Sunday, December 22, 2024
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संविधान में राम-कृष्ण को उकेरने वाला वो नायक जिसकी धरोहर ‘सेकुलर’ जमात ने गुपचुप गायब कर दी

क्या आज के समय नंदलाल बोस की इन कलाकृतियों को कोई 'सेकुलर' नेता संविधान का हिस्सा बनने देता? बिलकुल नहीं। ये लोग फौरन नंदलाल बोस को साम्प्रदायिक घोषित कर देते। उनकी कला को दरकिनार कर आरोप लगते की उन्होंने ऐसा बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए किया है।

क्या आपने नंदलाल बोस का नाम सुना है? आज के दौर में एक तबका हिंदू देवी-देवताओं को खारिज करने के लिए संविधान का हवाला देता है। भगवान श्रीराम का नाम सुनते ही बहुसंख्यक आबादी पर कम्यूनल होने का इल्जाम लगाया जाता है। श्रीकृष्ण के उपदेशों को खारिज करने के लिए उनकी रासलीला पर सवाल खड़े किए जाते हैं। शैक्षणिक संस्थानों में गायत्री मंंत्र को प्रार्थना में शामिल करने का विरोध किया जाता है। पूछा जाता है कि इससे अन्य समुदाय के बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?

अब सवाल है कि क्या वाकई हिंदू देवी-देवताओं का उल्लेख देश की बहुसंख्यक आबादी को साम्प्रदायिक करार देने की आजादी प्रदान करता है। या फिर ये भारतीय पृष्ठभूमि का एक ऐसा हिस्सा है जिसे इसके बिना जाना-समझा नहीं जा सकता। इसके बिना न केवल एक भारतीय अधूरा है, बल्कि सूचनाओं के स्तर पर शून्य भी है। जिस संविधान की दुहाई अक्सर दी जाती है, उसकी मूल प्रति में भारत की यात्रा को दर्शाने के लिए श्रीराम-सीता-लक्ष्मण सहित श्रीकृष्ण, नटराज, गंगा मैया का चित्रण मौजूद हैं।

कुछ लोगों को ये पढ़कर शायद हैरानी हो कि संविधान में हिंदू देवी-देवताओं की तस्वीर कैसे? अगर ये तस्वीर है भी तो उन्हें इसकी जानकारी क्यों नहीं? आज एक महान चित्रकार नंदलाल बोस की पुण्यतिथि पर हम आपको इन्हीं सवालों का जवाब देने जा रहे हैं। ये सभी बातें उस रचनाकार को याद किए बिना जानना मुश्किल है। उसने एक हस्तलिखित दस्तावेज को अपनी कला के माध्यम से न केवल सुसज्जित किया, बल्कि उसे नया जीवन भी प्रदान किया। नंदलाल बोस वही शख्स हैं जिन्होंने अपने शिष्यों के साथ मिलकर कागज़ पर लिखे संविधान की रिक्तता को पूर्ण करने के लिए सैकड़ों चित्र बनाए।

22 चित्रों को संविधान में जगह

हालाँकि बाद में इनमें से 22 चित्रों को भारतीय संविधान में जगह दी गई। समय के साथ-साथ राजनीति करने वालों ने इस किताब को भी अपने अधिकार क्षेत्र का हिस्सा समझ लिया और धीरे-धीरे इसमें से कुछ चित्रों को गायब करवा दिया। अब आजादी के बाद किसने सालों राज किया और किसने नए-नए संशोधन किए ये किसी से छिपी नहीं है। आने वाली प्रतियों से गायब होने वाले चित्र भगवान श्रीराम-सीता-लक्ष्मण के थे और ये चित्र अर्जुन को युद्धभूमि में उपदेश देते श्रीकृष्ण के थे। इन्हें भले गुपचुप नई प्रतियों से गायब कर दिया गया, लेकिन संविधान की मूल प्रति में ये आज भी उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। कुछ समय पहले इसका जिक्र केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी किया था। उन्होंने इस बात पर ध्यान आकर्षित करवाया था कि नीति निर्देशकों तत्वों से जुड़े अध्याय के ऊपर नंदलाल बोस द्वार बनाए रेखाचित्र हैं और मौलिक अधिकारों वाले अध्याय में भगवान श्रीराम हैं।

कहा जाता है कि जब संविधान तैयार हुआ तो उसमें ऊपर नीचे बहुत जगह सफेद जगह छूटी थी। ऐसे में इसपर विचार हुआ कि आखिर किस तरह इस खाली जगह के जरिए भारत की 5000 साल पुरानी संस्कृति को प्रदर्शित किया जाए। तब खुद जवाहरलाल नेहरू ने ही इस काम के लिए नंदलाल बोस को सत्यनिकेतन जाकर आमंत्रित किया। इसके बाद सदी के महान चित्रकार ने अपने कुछ शिष्यों के साथ मिलकर एक हस्तलिखित पन्नों में प्राण भरने का काम किया और बाद में समिति से जुड़े सभी लोगों ने इन चित्रों को संविधान के रिक्त स्थान पर शामिल करने पर सहमति देते हुए उस पर हस्ताक्षर किए। संविधान की मूल कॉपी यदि देखें तो आज भी वहाँ श्री राम भगवान और श्रीकृष्ण की तस्वीर चित्रित है। आखिरी पृष्ठ पर समिति के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर हैं।

जाहिर है कि उस समय इन चित्रों से किसी को आपत्ति नहीं थी। मगर सोचिए! क्या आज के समय नंदलाल बोस की इन कलाकृतियों को कोई ‘सेकुलर’ नेता संविधान का हिस्सा बनने देता? बिलकुल नहीं। ये लोग फौरन नंदलाल बोस को साम्प्रदायिक घोषित कर देते। साथ ही उनकी कला को दरकिनार कर सिर्फ़ इस बात पर ध्यान देते कि उन्होंने बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए ये काम किया है। क्योंकि इसमें श्रीराम हैं, श्रीकृष्ण हैं।

लेकिन, नंदलाल बोस की कलाकृतियों का इतिहास जानते-समझते हुए इस बात को जेहन में डालने की कोई कोशिश नहीं करता कि नंदलाल बोस और शांति निकेतन के उनके छात्रों ने धर्म विशेष नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास की विकास यात्रा को दर्शाने वाले चित्र बनाए जो बिन इन देवनायकों के अधूरी है। ध्यान देने योग्य बात है कि उन्होंने इसके बाद जो भी चित्र बनाए वो भी इसी बिंदु को केंद्र में रखकर बनाए।

उन्होंने  संविधान के लिए भारत के राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ की लाट का बनाया, हड़प्पा की खुदाई से मिले घोड़े, शेर, हाथी और सांड़ की चित्रों को लेकर सुनहरी किनारियों को सजाया। उन्होंने झाँसी की रानी को चित्रित किया तो मैसूर के सुल्तान टीपू को भी आकार में उकेरा। उन्होंने अपनी कला से संविधान को एक बोलती किताब बना दिया। जिसमें निहित अनुच्छेदों ने भारत के नागरिकों को लोकतांत्रिक बनाया। वहीं 5000 पहली की संस्कृति को भी जीवंत रखा।

बताया जाता है कि चूँकि उनपर टैगोर परिवार और अजंता के भित्ति  चित्रों का खासा प्रभाव था तो उनकी चित्रकारी में भी इसका असर दिखता था। वे महीन-महीन डिजाइनों को भी ऐसे गढ़ते थे जैसे समाज उनसे कोई संदेश ले रहा हो। उनका मानना था कि चित्रकार कभी किसी रंग को दूसरे रंग से बेहतर नहीं बताता, जो चित्रकार होता है, उसे सभी रंग पसंद होते हैं।

जो मिलता उसी के साथ रम जाते नंदलाल बोस

कला के प्रति उनके प्रेम का अंदाजा उनके बचपने के वाकयों से लगाया जा सकता है। कहते हैं बाल्यकाल से ही नंदलाल बोस को कलाकारी से इतना प्यार था कि घर से लेकर सड़क तक जो भी कोई कला सिखाने वाला मिलता, वे उसके साथ रम जाते थे। जब उनकी माँ क्षेत्रमणि देवी रंगोली या गुड़िया बनातीं, या कपड़ों पर कढ़ाई करतीं, तो वह उसे भी ध्यान से देखते थे। इसका परिणाम यह होता कि वे पढ़ाई से अधिक रुचि चित्रकला में लेते और जब कक्षा में अध्यापक पढ़ाते थे, तो वे कागजों पर चित्र ही बनाते रहते थे।

धीरे-धीरे समय बीता और 15 वर्ष की अवस्था में वे कोलकाता पढ़ने आ गए लेकिन यहाँ भी उनका कला से मोहभंग नहीं हुआ। नतीजन वह अपने पढ़ाई के पैसे भी चित्रों को खरीदने में लगा देते, जिसके कारण उन्हें कई बार अनुतीर्ण होना पड़ा। बाद में आगे चलकर उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर के बड़े भाई को अवीन्द्रनाथ टैगोर को अपना गुरु बनाया और धीरे-धीरे भारतीय कला की तरफ आगे बढ़े।

एक वाकया उन्हें लेकर मशहूर है कि वो एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने एक बार एक पागल से भी कला सीखी, ताकि उसका प्रयोग आने वाले जीवन में कर सकें। जी हाँ। एक राह चलते पागल से, जिसे देखकर आम आदमी कई फीट की दूरी बना लेता है। वैसे ही एक पागल को एक बार उन्होंने उस समय तीन पैसे दिए, जिसने केवल कोयले और पानी से सड़क पर उनका चित्र बना दिया। हालाँकि इसे देखकर वह भी हैरान हुए होंगे। लेकिन उन्होंने इस पर अचंभा जताने से ज्यादा उस पागल से उस कला को सीखा। बाद में इसका प्रयोग उन्होंने शांति निकेतन में किया। 1922 में उन्हें शांतिनिकेतन का प्रमुख बनाया गया। 

भले नंदलाल बोस को गुजरे दशकों बीत गए हैं, लेकिन उनके द्वारा बनाए गए स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित चित्र भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। इनमें गाँधी जी की दांडी यात्रा को सबसे ज्यादा प्रसिद्ध बताया जाता है। इसके अलावा उनके द्वारा भारतीय देवी-देवताओं तथा प्राचीन ऐतिहासित घटनाओं के चित्रों का आज भी कोई मुकाबला नहीं है। मौजूद जानकारी के अनुसार उन्होंने न केवल संविधान को सजाया बल्कि स्वतंत्रता के बाद जब नागरिकों को सम्मानित करने के लिए पद्म अलंकरण प्रारम्भ हुए, तो इनके प्रतीक चिन्ह भी नंदलाल जी ने ही बनाए। अपने अमूल्य काम के लिए उन्हें 1954 में पद्मविभूषण भी मिला।

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