विनायक दामोदर सावरकर, यानी एक ऐसा नाम जो ‘वीर’ का पर्यायवाची बन गया। वीर सिर्फ हथियार उठा कर अंग्रेजों से युद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि ‘वीर’ इसीलिए क्योंकि सैकड़ों को दमनकारी आक्रांताओं के खिलाफ हथियार उठाने को प्रेरित किया, अपनी लेखनी और विचारों से स्वतंत्रता की अलख जगाई, 1857 युद्ध को लेकर अंग्रेजों का नैरेटिव ध्वस्त किया और कालापानी में असंख्य यातनाएँ सहीं।
विनायक दामोदर सावरकर जब कालापनी की सज़ा भुगत रहे थे, तब महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से लौटे तक नहीं थे और जब 28 वर्ष के सावरकर को अंडमान-निकोबार में बने सेल्युलर जेल में कोल्हू के बैल की जगह जोता जाता था, उसके 4 वर्षों बाद 45 साल के मोहनदास करमचंद गाँधी का भारत में आगमन हुआ। रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा नाना और वीर कुँवर सिंह की गाथाओं को इतिहास से खोद कर निकाल लाने वाले सावरकर सचमुच ‘वीर’ थे।
कॉन्ग्रेस पार्टी ने जवाहरलाल नेहरू के कद को ऊँचा कर के दिखाने के लिए VD सावरकर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के योगदान को नकारा और दबा कर रखा। आज भी कॉन्ग्रेस नेता कहते हैं कि सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी माँगी। ये एक कानूनी प्रक्रिया थी, जिसका सहारा खुदीराम बोस जैसे बलिदानी ने भी लिया था। सावरकर उन नेताओं में नहीं थे, जिन्हें जेल में ऐशोआराम की सारी सुविधाएँ दी जाती थीं।
जवाहरलाल नेहरू को नाभा जेल से निकालने के लिए वायसराय तक गए थे पिता
जब बात अंग्रेजों की यातनाएँ सहने की हो तो आज विनायक दामोदर सावरकर की तुलना जवाहरलाल नेहरू से करनी बनती है, क्योंकि इसकी शुरुआत कॉन्ग्रेस ने ही की थी। सावरकर 1909-1924 में लगातार 15 जेल में रहे और उसमें से 10 साल कालापानी में भीषण प्रताड़ना झेली, लेकिन, जवाहरलाल नेहरू की अंतिम जेल टर्म को छोड़ दें तो भारत का कोई भी जेल उन्हें 2 साल भी रोक नहीं पाया।
जवाहरलाल नेहरू को टुकड़ों में कुल 9 बार जेल की सज़ा दी गई। पहली बार वो मात्र 88 दिन में ही (दिसंबर 6, 1921 से मार्च 3, 1922 तक) लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल से बाहर आ गए। दूसरी बार उन्हें इलाहबाद सेंट्रल जेल और लखनऊ डिस्ट्रिक्ट जेल में 266 दिनों के लिए (मई 11, 1922 से जनवरी 31, 1923 तक) रखा गया। तीसरी बार सितंबर 22, 1923 में उन्हें नाभा जेल में डाला गया, जहाँ से वो मात्र 12 दिनों में ही छूट गए।
नाभा जेल जवाहरलाल नेहरू को छुड़ाने के लिए उनके पिता, जो कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे, ने एड़ी-चोटी का जोड़ लगा दिया। जवाहरलाल नेहरू को नाभा जेल से तभी छोड़ा गया था, जब उन्होंने हस्ताक्षर कर के दिया था कि वो फिर कभी नाभा प्रिंसली स्टेट के क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे। नाभा जेल में कीचड़ और कमरे के कम क्षेत्रफल को देख कर ही नेहरू के पसीने छूट गए थे। संतरियों तक को उनसे बात करने की इजाजत नहीं थी।
इसी जेल में उनके साथ के सन्तानम नाम के स्वतंत्रता सेनानी भी बंद थे, जिनका 1980 में निधन हुआ था। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘Handcuffed with Jawaharlal’ में लिखा है कि नेहरू को एक अलग सेल में डाला गया था, जहाँ उन्हें अकेले रखा गया था। 20 × 12 स्क्वायर फ़ीट के इस कमरे में दीवारों पर कीचड़ था और ऊपर से भी टपकता था। स्नान की सुविधा नहीं थी। कैदियों को अच्छे कपड़े भी नहीं दिए गए थे।
एक अमीर खानदान में जन्मे और ऐशोआराम की ज़िंदगी जीने वाले जवाहरलाल नेहरू को ये सब इतना अखरता था कि वो इस व्यवस्था से खासे झल्ला गए। के सन्तानम लिखते हैं कि कुपित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी झल्लाहट निकालने के लिए रोज आधे घंटे कमरे में झाड़ू लगाना शुरू कर दिया था। सन्तानम लिखते हैं कि वो और उनके साथी स्वतंत्रता सेनानी AT गिडवानी को ये सब देख कर गुस्से से ज्यादा ये मनोरंजक लगने लगा था।
लेकिन, बाहर मोतीलाल नेहरू के प्रयासों के बाद अचानक से सब बदल गया और स्नान से लेकर कपड़े बदलने तक की व्यवस्था कर दी गई। बाहर रह रहे मित्रों से फलों से लेकर अन्य खाद्य पदार्थ मँगवाने की अनुमति भी दे दी गई। 2 साल की सज़ा सुनाई गई थी लेकिन नेहरू 12 दिनों में ही बाहर निकलने में कामयाब रहे। लेकिन, उससे पहले बाहरी दुनिया को बताया तक नहीं गया था कि जवाहरलाल को कहाँ रखा गया है।
चिंतित मोतीलाल नेहरू ने हर जगह से पता लगाने की कोशिश की कि उनके बेटे को कहाँ रखा गया है। पंजाब में उन्होंने कई अधिकारियों और अपने सूत्रों के माध्यम से जवाहरलाल को छुड़ाने के लिए दिन-रात एक कर दिया। इसके बाद उन्होंने पूरी डिटेल्स जानने के लिए सीधे वायसराय से संपर्क किया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में भी नाभा की ‘प्रताड़ना’ का जिक्र किया है – कमरे की ऊँचाई कम थी, वहाँ एक चूहा था, जमीन पर सोना होता था और सैनिटाइजेशन की व्यवस्था नहीं थी।
विनायक दामोदर सावरकर और कॉन्ग्रेस पार्टी: स्वतंत्रता के पहले व बाद
जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन ही देश की स्वतंत्रता के लिए न्योछावर कर दिया था, उस व्यक्ति को आज़ादी के बाद ही उसी देश की सरकार ने प्रताड़ित किया, जिसके आज़ाद होने का उन्होंने सपना देखा था। पत्रकार भालचंद्र कृष्णा जी केलकर लिखते हैं कि महात्मा गाँधी की हत्या तक को एक ‘अवसर’ में बदल कर हिंदूवादियों के सफाए की कोशिश की गई। सावरकर को मुक़दमे में लपेट लिया गया और RSS को प्रतिबंधित किया गया।
गुलामी के उस दौर में भी कॉन्ग्रेस के नेताओं के ब्रिटिश वायसरॉय एवं अधिकारियों से बहुत ही अच्छे संबंध थे। यह आपसी संबंध इतने गहरे थे कि जैसा ब्रिटिश सरकार चाहती थी, कॉन्ग्रेस के नेता वैसा ही करते थे। मिंटो ने वायसराय बनने के बाद गोपाल कृष्ण गोखले को बातचीत के लिए बुलाया और विदेशी समान के बहिष्कार के आंदोलन को ख़त्म करने का आश्वासन ले लिया। कॉन्ग्रेस के कई अधिवेशनों की शुरुआत ब्रिटेन के महाराजा के गुणगान के साथ हुई थी।
खुद महात्मा गाँधी ने लिखा था, “सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए। मुझे डर है कि उसके ये दो निष्ठावान पुत्र सदा के लिए हाथ से चले जाएँगे। वे बहादुर हैं, चतुर हैं, देशभक्त हैं। वे क्रन्तिकारी हैं और इसे छुपाते नहीं हैं। मौजूदा शासन प्रणाली की बुराई का सबसे भीषण रूप उन्होंने बहुत पहले, मुझे से काफी पहले, देख लिया था। आज भारत को, अपने देश को, दिलोजान से प्यार करने के अपराध में कालापानी भोग रहे हैं। अगर सच्ची और न्यायी सरकार होती तो वे किसी ऊँचे शासकीय पद को सुशोभित कर रहे होते।”
अंग्रेजों के हाथों असली प्रताड़ना सावरकर ने ही झेली
कालापानी में कक्ष कारागारों को सेल्युलर जेल कहा जाता था। वहाँ कड़ा पुलिस पहरा रहता था। सावरकर अपनी पुस्तक ‘काला पानी’ में इस नारकीय यातना का वर्णन करते हैं। 750 कोठरियाँ, जिनमें बंद होते ही कैदी के दिलोदिमाग पर घुप्प अँधेरा छा जाता था। अंडमान के सुन्दर द्वीप पर ये अंग्रेजों का नरक था। इंसानों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता था। अंग्रेज उन्हें कोल्हू के बैल की जगह जोत देते थे।
पाँव से चलने वाले कोल्हू में एक बड़ा सा डंडा लगा कर उसके दोनों तरफ दो आदमियों को लगाया जाता था और उनसे दिन भर काम करवाया जाता था। जो काम बैलों का था, वो इंसानों से कराए जाते थे। जो टालमटोल करते, उन्हें तेल का कोटा दे दिया जाता था और ये जब तक पूरा नहीं होता था, उन्हें रात का भोजन भी नहीं दिया जाता था। उन्हें हाँकने के लिए वार्डरों तक की नियुक्ति की गई थी। उन्होंने अंडमान में कागज़-कलम न मिलने पर दीवारों पर कीलों, काँटों और अपने नाखूनों तक से साहित्य रचे।
सिर चकराता था। लंगोटी पहन कर कोल्हू में काम लिया जाता था। वो भी दिन भर। शरीर इतना थका होता था कि उनकी रातें करवट बदलते-बदलते कटती थी। सावरकर को आत्महत्या करने की इच्छा होती। एक बार कोल्हू पेरते-पेरते उन्हें चक्कर आ गया और फिर उन्हें आत्महत्या का ख्याल आया। उसी जेल में VD सावरकर के भाई भी थे। उन्हें भी ऐसे ही प्रताड़ित किया जाता था। कई महीनों तक तो दोनों भाई मिले तक नहीं।
आज जब कॉन्ग्रेस पार्टी वीर सावरकर को ‘देशद्रोही’ बताते है, ‘होमोसेक्सुअल’ कहती है और ‘सॉरी’ का तंज कस के उनका मजाक बनाती है, तो उसे अपने किसी एक नेता का नाम बताना चाहिए जिसे कालापानी की सज़ा हुई हो और डेढ़ दशक तक लगातार प्रताड़ित किया गया हो। अपने नेताओं के अधिकाधिक महिमामंडन तक तो ठीक है, लेकिन इसके लिए अन्य राष्ट्रवादी नेताओं को बदनाम करने का हथकंडा बंद होना चाहिए।