अगर आपने बप्पा रावल का नाम नहीं सुना है तो दोष आपका नहीं, उस व्यवस्था का है जिसके तहत हमने या आपने अपनी शिक्षा-दीक्षा पाई है। नागादित और कमलावती के पुत्र कालभोज को ही मेवाड़ के लोगों के प्यार और सम्मान ने बप्पा रावल बना दिया। उन्होंने इस्लामी आक्रांताओं को रोका और अरब तक पहुँच कर उन्हें धूल चटाई। उनका जन्म गुहिल वंश में हुआ था, जिसका इतिहास भगवान श्रीराम के पुत्र लव तक जाता है।
कौन थे मेवाड़ के बप्पा रावल
बाद में ये सिसोदिया राजवंश कहलाया, जिसने 1400 वर्षों तक मेवाड़ की गद्दी को सुशोभित रखा और आज भी ये वहाँ के मानद राजा कहलाते हैं। बप्पा रावल का बचपन संघर्षों में गुजरा। उनकी माँ ने भीण्डर के जंगलों में भाग कर बेटे की जान बचाई, जहाँ यदु वंश के भील राजा मांडलिक ने उनकी रक्षा की। भीलों का मेवाड़ के राजपूत राजाओं के साथ तभी से गठबंधन है। महाराणा प्रताप की अकबर के खिलाफ लड़ाई में भीलों की वीरता की गाथा आज भी राजस्थान में गाई जाती है।
बप्पा रावल का जीवन ऐसा था कि उनकी कहानी में बहादुरी के साथ-साथ चमत्कार भी हैं। कहते हैं हरित साधु नाम के एक ऋषि से उनकी मुलाकात हुई थी, जिन्होंने उन्हें ‘शैव तंत्र’ का शिक्षण दिया। इसके तहत उन्हें युद्धकला से लेकर जीवन के हर पहलू सिखाए गए। फिर उक्त साधु ने उन्हें इस्लामी आक्रांताओं से मेवाड़ को मुक्त करने को कहा। उन्हें स्वप्न में माँ भवानी ने चित्तौर के मोरी राजवंश की मदद करने का आदेश दिया। बप्पा रावल ने इस्लामी फ़ौज को ऐसा खदेड़ा था कि अगले 200 वर्षों तक उनकी भारत पर बड़े आक्रमण की हिम्मत नहीं हुई।
‘शैव तंत्र’ का ही प्रभाव था कि बप्पा रावल ने भगवान एकलिंग को अपना इष्ट बनाया और तब से मेवाड़ की सेना ‘जय एकलिंग’ के उद्घोष के साथ ही युद्ध में उतरती रही। आज भी मेवाड़ राजवंश के इष्ट एकलिंग ही हैं। जब इधर राजा मान मोरी वीर बप्पा रावल को ‘सामंत’ की उपाधि से नवाज कर उनके हिस्से की जागीर उन्हें दे रहे थे, उसी दौर में एक तरफ सिंध में मुहम्मद कासिम के रूप में पहली बार इस्लामी आक्रांता भारतवर्ष में घुसे।
राजा दाहिर की हार और हत्या के साथ भारत ने पहली बार युद्ध के बाद बलात्कार और सिर कलम करने जैसी घटनाओं को देखा, वो भी थोक में। भारतीय राजा हार-जीत के बाद भी एक-दूसरे की प्रजा और परिवार का सम्मान करते थे, लेकिन अरब के इस्लामी आक्रांताओं के साथ ऐसा नहीं था। ब्राह्मण राजा दाहिर और उनके बहादुर भाई ने कई बार मुहम्मद बिन कासिम को पीछे धकेला। लेकिन, सन् 712 में सब कुछ बदल गया।
अरब के खलीफा की फ़ौज को खदेड़ने वाला बप्पा रावल
अपनी पुस्तक ‘MAHARANAS: A Thousand Year War for Dharma (महाराणा: सहस्त्र वर्षों का धर्मयुद्ध)’ में ओमेंद्र रतनु लिखते हैं कि सिंध के बौद्ध समुदाय ने इस्लामी आक्रांताओं का साथ दिया और सिंध के नेरून शहर (अब पाकिस्तान का हैदराबाद) के बौद्ध मुखिया भंडारकर समाणी ने न सिर्फ सिंधु नदी पार करने में मुहम्मद बिन कासिम की मदद की, बल्कि उसकी फ़ौज के लिए रसद-पानी व अन्य ज़रूरी वस्तुओं का भी प्रबंध किया।
इसके अलावा मातृभूमि से गद्दारी करने वालों में वो स्थानीय ‘मेड़’ कबीले का नाम भी लेते हैं। बौद्धों और मेड़ की मदद से इस्लामी फ़ौज राजा दाहिर के गढ़ में घुसी और अरोड़ के युद्ध में उनकी हार हुई। राजा दाहिर और उनके भाई का सिर कलम कर दिया गया, उनकी बेटियों को खलीफा हज्जाज बिन युसूफ को भेंट के रूप में भेजा गया, कई महिलाओं को सेक्स स्लेव बना लिया गया और सिंध के अमीरों को लूट कर मुहम्मद बिन कासिम मेवाड़ की तरफ बढ़ा।
राजा दाहिर के बेटे ने भाग कर मेवाड़ में शरण ली और बप्पा रावल को पूरी स्थिति के बारे में बताया। महिलाओं के साथ इस अत्याचार ने बप्पा रावल को क्रोधित कर दिया, लेकिन वो एक लंबे युद्ध के लिए गठबंधन तैयार करने में लग गए। उनका मानना था कि ये ‘म्लेच्छ’ आसानी से नहीं मानेंगे और बार-बार भारत पर आक्रमण करेंगे। बप्पा रावल ने मालवा (मध्य प्रदेश) के शासक गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के नागभट्ट I के साथ गठबंधन किया।
इसके बाद उन्होंने गुजरात के पुलकेशीराजा और जयभट्ट को भी अपने साथ लिया। नागभट्ट के आग्रह पर चालुक्य राजा जय सिम्हा वर्मन ने अपने पुत्र पुलकेशीराजा को इस्लामी फ़ौज के खिलाफ इस युद्ध में भेजा। तब तक अरब सेना का नेतृत्व कर रहे जुनैद अल मर्री ने दक्षिणी गुजरात, मालवा और दक्षिणी राजस्थान के कुछ इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया था। सन् 738 में हिन्दुओं की 6000 की सेना ने 60,000 की अरब फ़ौज के साथ जोधपुर के नजदीक युद्ध किया।
जुनैद का इस युद्ध में वध कर दिया गया और इस्लामी फ़ौज को खदेड़ कर अरब की उम्मैयद वंश को कड़ा सन्देश भी दे दिया गया। मध्य पूर्व, पर्शिया, मेसोपोटामिया, सीरिया और उत्तरी अफ्रीका में उन्होंने जो सफलता पाई थी, उसे वो भारत में नहीं दोहरा पाए। बप्पा रावल की रणनीति ने पश्चिमी भारत का गणित ऐसा बदला कि इसकी चर्चा दुनिया भर में होने लगी। सोचिए, भारत पर खलीफा का राज हो जाता तो यहाँ के हिन्दुओं, खासकर महिलाओं की क्या स्थिति होती।
जेम्स टॉड ने लिखा है कि हिन्दू सेना ने ईरान तक अरबों को खदेड़ा और उन्हें कहीं शरण नहीं मिल रही थी। बप्पा रावल मानवीय मस्तिष्क को समझने वाले व्यक्ति थे। बप्पा रावल जब अफगानिस्तान पहुँचे तो गजनी नामक शहर पर उन्होंने किसी सलीम को शासन करते हुए पाया। बप्पा रावल ने सलीम को हरा कर अपने भतीजे को वहाँ बिठाया, जिससे अगले कई शताब्दियों तक वहाँ हिन्दुओं का शासन रहा। बप्पा रावल ने सलीम की बेटी से शादी भी की।
राजा दाहिर की बेटियों ने लिया बदला, चित्तौड़ की कमान बप्पा रावल के हाथों में
अरब से लौटते समय दूरदर्शी बप्पा रावल ने कई चेक पोस्ट्स स्थापित किए। राजा दाहिर सेन की बेटियों प्रेमला और सूर्या ने खलीफा से झूठ बोला कि मुहम्मद बिन कासिम ने खलीफा के पास भेजने से पहले उन दोनों को ‘अपवित्र’ कर दिया है। इसे सुनते क्रोशित खलीफा ने कासिम को तलब किया। उसे बाँध कर बंद कर के लाया जा रहा था, लेकिन रास्ते में ही वो कुत्ते की मौत मर गया। बाद में राजा दाहिर की बहादुर बेटियों ने खलीफा को बता दिया कि उन्होंने झूठ बोला था, जिसके बाद क्रूर इस्लामी शासक ने दोनों को दीवार में ज़िंदा दफनाने का हुक्म जारी कर दिया।
पर्शियन पुस्तक ‘चचनामा’ में इस घटना का जिक्र है। बप्पा रावल की इस जीत के बाद चित्तौर की कमान भी मोरी राजवंश से उनके हाथ में आ गई। उन्हें ‘महाराव’ की उपाधि मिली। उन्हें ‘हिन्द सूरज’ भी कहा गया। उन्हें ‘राजगुरु’ की उपाधि भी मिली। बप्पा को भील समाज ने ‘रावल (रा – राज्य, व – वर्वत/आशीर्वाद, ल – लक्ष्मी/धन)’। पाकिस्तान का ‘रावलपिंडी’ कभी बप्पा रावल का एक बड़ा चेकपोस्ट हुआ करता था, जिस पर उस जगह का ये नाम पड़ा।
बप्पा रावल ने दर्जनों छोट-बड़े मुस्लिम शासकों को हराया और हिन्दू साम्राज्य का पुनः विस्तार किया। कई ऐसे शासकों की बेटियों से उन्होंने शादियाँ की। इन महिलाओं से उन्हें 130 बेटे हुए, जिनके वंशजों को आज ‘नौशेरा पठान’ कहा जाता है। 8वीं शताब्दी के इस महायोद्धा का नाम शायद ही हमारे पाठ्य पुस्तकों में मिलता हो, जबकि अरबी आक्रांताओं के नाम सभी को बताए जाते हैं। एक गौपालक परिवार से मेवाड़ पर देश हजार वर्ष शासन करने वाले परिवार की स्थापना तक, बप्पा रावल ने हिंदुत्व के लिए बड़ा योगदान दिया।