भारत में एक से बढ़ कर एक महान संत हुए हैं और उन्होंने धर्म के लिए अपना सर्वस्व बलिदान किया है। ऐसी ही हस्तियों में से एक थे गुरु तेग बहादुर, जो सिखों के नौवें गुरु कहलाए। उनके बेटे गुरु गोविंद सिंह सिखों के अंतिम व दसवें गुरु हुए। यहाँ हम आपको बताएँगे कि कैसे गुरु तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितों के खिलाफ हो रहे अत्याचार और जबरन धर्मांतरण के खिलाफ औरंगजेब से लोहा लिया, लेकिन झुके नहीं।
ये वो समय था, जब औरंगजेब का अत्याचार लगातार ही बढ़ता जा रहा था और देश भर के हिन्दू सहित कश्मीरी पंडित भी हलकान थे। वाराणसी, उदयपुर और मथुरा सहित हिन्दुओं की श्रद्धा वाले कई क्षेत्रों में औरंगजेब की फ़ौज मंदिरों को ध्वस्त किए जा रही थी। सन 1669 में तो हद ही हो गई जब हिन्दुओं को नदी किनारे मृतकों का अंतिम-संस्कार तक करने से रोक दिया गया। शाही आदेश और जोर-जबरदस्ती, दोनों के जरिए हिन्दुओं पर प्रहार हो रहे थे।
जम्मू-कश्मीर में शेर अफगान नामक आक्रांता कश्मीरी पंडितों का नामोनिशान मिटा देना चाहता था और बादशाह औरंगजेब को उसका वरदहस्त प्राप्त था। ऐसे कठिन समय में कश्मीरी पंडितों का एक प्रतिनिधिमंडल गुरु तेग बहादुर के पास पहुँचा और उन्हें अपनी समस्या बताई। कृपाराम की अध्यक्षता में आए इस प्रतिनिधिमंडल ने जब गुरु को बादशाही अत्याचार और क्रूरता की दास्तान सुनाई तो वो काफी दुःखी हो उठे।
कहते हैं, जब पूरे दरबार में निराशा का माहौल था, तब बालक गोविंद राय को भी ये ठीक नहीं लगा और उन्होंने कई सवाल दाग दिए। वो पूछने लगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि जहाँ दिन-रात भजन-कीर्तन और शास्त्रों की बातें होती थीं, वहाँ आज इस तरह नीरसता का माहौल छाया हुआ है। बच्चे की जिद के आगे गुरु तेग बहादुर झुक गए और सारी व्यथा कह डाली। दरबार में कौन लोग आए थे और उनकी व्यथा थी- सब।
उन्होंने ये तक कह दिया कि इनके दुःखों के निवारण के लिए किसी महापुरुष का बलिदान चाहिए। इस पर बालक गोविंद राय ने पूछा इस समय भारतवर्ष में आपसे बढ़ कर विद्वान, सद्गुणों वाला और महान महापुरुष कौन है, इसीलिए क्या आपको ही इस बलिदान के लिए स्वयं को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए? एक बालक के मुँह से गुरु नानक की शिक्षाओं और शरणागत की रक्षा के लिए प्राण त्यागने की बातें सुन कर गुरु तेग बहादुर समझ गए कि ये ईश्वर का ही संदेशा है।
गुरु तेग बहादुर ने इसे ईश्वर का आदेश मान कर कश्मीरी पंडितों की रक्षा का निर्णय लिया और बादशाह औरंगजेब के पास उनके ही हाथों संदेशा भेजा। औरंगजेब को लगा कि अगर धर्मांतरण वाले अभियान को गुरु तेग बहादुर का समर्थन मिल गया तो एक-एक कश्मीरी पंडित मुस्लिम मजहब अपना लेगा। औरंगजेब ये सोच कर खुश हुआ कि गुरु तेग बहादुर इस्लाम अपना लेंगे और पीछे से पूरे कश्मीर पर भी इस्लाम का राज होगा।
गुरु तेग बहादुर की दिल्ली आने की सूचना को उसने भ्रामक खबर बना कर दुष्प्रचारित करवाया कि गुरु इस्लाम अपनाने ही आ रहे हैं। लेकिन, कपटी औरंगजेब ने गुरु को आगरा के नजदीक ही गिरफ्तार करवा लिया। इसके ठीक अगले दिन उसने गुरु को अपने दरबार में बुलाया। हमेशा की तरह गुरु तेग बहादुर शांतचित्त मुद्रा में बैठे हुए थे और उनके मुख पर डर या घृणा, किसी भी चीज का जरा भी भाव नहीं था।
Then this Saint of India #GuruTeghBahadur made the supreme sacrifice of his life to protect #KashmiriHindus #KashmiriPandits. He did not buckle under pressure of Mughal emperor #Aurangzeb and didn’t accept Islam. The 9th Sikh Guru was beheaded outside #RedFort Gurudwara ShishGanj pic.twitter.com/0j09F3obve
— GAURAV C SAWANT (@gauravcsawant) November 24, 2019
दरबार में उनके बीच हुई बातचीत का वर्णन हिंदी समाचार पत्र ‘उगता भारत’ के संस्थापक-संपादक राकेश कुमार आर्य ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू राष्ट्र स्वप्नदृष्टा: बंदा वीर बैरागी‘ में किया है। इसकी चर्चा कई अन्य जगह भी मिलती है। वहाँ औरंगजेब का पूरा जोर इस बात पर था कि वो हिन्दुओं और सिखों को अलग-अलग साबित कर गुरु तेग बहादुर को भ्रमित कर सके और दोनों समुदायों के बीच कटुता पैदा कर सके।
उसने गुरु तेग बहादुर से कहा कि वो हिन्दुओं का नेतृत्व न करें, क्योंकि वे तो सिखों से अलग होते हैं। औरंगजेब के जवाब में गुरु तेग बहादुर ने उसे वेदों और उपनिषदों के माध्यम से समझाना शुरू किया। गुरु तेग बहादुर इन समस्त शास्त्र-पुराणों में पारंगत थे और साथ ही मानवता को परम धर्म मानते थे। इसीलिए उन्होंने इन सबके माध्यम से औरंगजेब के क्रियाकलापों को धर्मविरुद्ध साबित कर दिया, जिससे वो भड़क गया।
औरंगजेब ने अरब मुल्कों का उदाहरण देते हुए दावा किया कि जैसे वहाँ पर सारे मुस्लिम ही होते हैं, ठीक उसी तरह सम्पूर्ण भारतवर्ष में भी एक ‘दीन’ मजहब होगा तो सारी समस्याएँ अपनेआप ही ख़त्म हो जाएँगी- न कोई मतभेद होगा, न कोई कटुता। गुरु तेग बहादुर ने उसे याद दिलाया कि जहाँ केवल मुस्लिम रहते हैं, वहाँ भी तो शिया-सुन्नी के झगड़े चलते ही रहते हैं। उन्होंने मुस्लिमों में भी कई पंथ-समुदाय होने की बात याद दिलाई।
गुरु तेग बहादुर का जोर इस बात पर था कि ये पूरी दुनिया ईश्वर की बनाई वो वाटिका है, जहाँ भाँति-भाँति के पुष्प खिल सकते हैं। उन्होंने औरंगजेब से सवाल किया कि अगर प्रकृति की इच्छा होती कि भारत में सिर्फ मुस्लिम ही पैदा हों, तब तो उन्हें संतान ही नहीं होती और केवल मुस्लिमों को ही संतान पैदा होती। उन्होंने समझाया कि प्रकृति सबके साथ बराबर व्यवहार करती है, इसीलिए उसे भी जबरन धर्मांतरण अभियान रोक देना चाहिए।
इसके बाद का प्रसंग लगभग सभी को पता ही है। क्रूर और आततायी बादशाह ने गुरु को मृत्यु अथवा इस्लाम में से कोई एक चुनने के लिए दिया। गुरु तेग बहादुर ने धर्म की रक्षा के लिए मृत्यु का वरन करने की इच्छा प्रकट की, लेकिन इस्लाम अपनाने से साफ़ इनकार कर दिया। उन्हें जेल में डाल दिया गया। उन पर अमानवीय अत्याचार किए जाने लगे। गुरु ने सबका सामना किया। उन्हें विभिन्न माध्यमों से प्रताड़ित किया जाता था।
इस पूरे प्रकरण के दौरान अगर भाई मतिदास के बलिदान का जिक्र न किया गया तो ये अधूरा ही रहेगा। उन्हें भी गुरु तेग बहादुर के साथ ही पकड़ा गया था। दिल्ली के चाँदनी चौक पर उन्हें मृत्युदंड देने के लिए लाया गया। आक्रांताओं ने उनकी अंतिम इच्छा पूछी तो उन्होंने कहा कि मृत्यु के वक्त उनका सिर गुरु के समक्ष रहे, ताकि वो उन्हें देखते हुए मौत को गले लगा सकें। गुरु तेग बहादुर के पिंजरे के ठीक सामने उन्हें रखा गया।
लकड़ी के दो शहतीरों की पाट में उनकी शरीर को टिका दिया गया और दो जल्लाद आड़े लेकर खड़े हो गए। उनसे अंतिम बार पूछा गया कि क्या वो इस्लाम कबूल करेंगे, लेकिन उनका जवाब ना में था। तुरंत ही आड़े से उनके शरीर को चीर डाला गया। खून के फव्वारे छूट पड़े, देखने वालों के रोंगटे खड़े हो गए और फिर भी अत्याचारी आक्रांता मजे लेते रहे। औरंगजेब ने गुरु तेग बहादुर की मृत्यु की भी तारीख निश्चित कर दी।
पूरे दिल्ली में ढिंढोरा पिटवा दिया गया कि गुरुवार, 12 मार्गशीष, सुदी 5, सम्मत 1732, विक्रमी (नवंबर 11, 1675) को चाँदनी चौक स्थित दिल्ली चबूतरे पर उनका क़त्ल कर दिया जाएगा। उससे पहले भाई दयाल जी और सतीदास जी के जीवन का अंत कर दिया गया था। उपर्युक्त तारीख़ पर सैकड़ों लोग वहाँ जुटे पर किसी की कुछ भी बोलने की हिम्मत नहीं हुई। अत्याचारियों ने सबके सामने गुरु का शीश काट दिया। ‘हिंद की चादर’ का बलिदान हो गया।
अंत में जिक्र उन दो बहादुरों का, जिहोने गुरु के शीश और धड़ को शत्रु के द्वारा अपमानित होने से बचाया और विधि-विधान से अंतिम संस्कार हेतु लेकर गए। गुरु की मृत्यु के बाद वहाँ बड़ी भगदड़ मच गई थी। भाई वीर जैता और भाई लखीशाह ने क्रमशः गुरु के शीश और धड़ को उठाया और वहाँ से निकल गए। बाद में ससम्मान उनका अंतिम संस्कार हुआ। इन दोनों की बहादुरी आज भी याद की जाती है।
इन सबके बावजूद आज नारा लगाया जाता है- जय भीम-जय मीम। इस नारे का अब तक का सफर विश्वासघातों से ही भरा है। ऐसे मौकों की फेहरिस्त काफी लंबी है, जब फायदे के लिए दलितों का पहले इस्तेमाल करने वालों ने ही बाद में मजहब के नाम पर उनका नरसंहार किया। हिन्दुओं और सिखों के साथ ये हर दौर में होता आया है। ऐसी एक नहीं, बल्कि कई घटनाएँ हैं जो इस्लामी क्रूरता को बयान करती है। निशाना हिन्दू होते हैं, या सिख।