Sunday, November 24, 2024
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नहीं रहे जगमोहन: 1990 में आतंकियों की आखिरी साजिश को विफल कर घाटी को बचाया था

जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने का मौका मुहैया कराया, जिसके लिए पंडित उन्हें आज भी मसीहा मानते हैं। अरुण शौरी ने 2004 में यूँ ही नहीं कहा था, "यह जगमोहन ही रहे, जिन्होंने भारत के लिए घाटी को बचाया।"

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन का निधन हो गया है। वे 94 साल के थे। दो बार जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की जिम्मेदारी सँभालने वाले जगमोहन अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री भी रहे थे। कड़क नौकरशाह रहे जगमोहन के निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शोक जताया है।

उनका पूरा नाम जगमोहन मल्होत्रा था। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के बाद बीजेपी ने जब संपर्क अभियान शुरू किया था तो अमित शाह और मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा उनसे मिलने उनके घर पहुँचे थे। जगमोहन को पहली बार राज्यपाल बनाकर जम्मू-कश्मीर 1984 में कॉन्ग्रेस ने भेजा था। उस समय वह 1989 तक इस पद पर रहे। दूसरी बार वीपी सिंह की सरकार ने उन्हें जनवरी 1990 में राज्यपाल बनाकर भेजा और मई 1990 तक वे पद पर रहे।

जगमोहन ने दूसरी बार 1990 में 19 जनवरी की उसी शाम राज्यपाल पद की शपथ ली थी, जिस मनहूस रात घाटी की हर मस्जिद से एक ही आवाज आ रही थी कि हमें कश्मीर में हिंदू औरतें चाहिए, लेकिन बिना किसी हिंदू मर्द के। वह रात जब हिंदुओं को केवल तीन विकल्प दिए गए थे। पहला, कश्मीर छोड़कर भाग जाओ। दूसरा, धर्मांतरण कर लो। तीसरा, मारे जाओ। वह रात जिसने मानवीय इतिहास के सबसे बड़ी पलायन त्रासदियों में से एक का दरवाजा खोला। जिसके कारण करीब 4 लाख कश्मीरी हिंदू जान बचाने के लिए अपना घर, अपनी संपत्ति अपने ही देश में छोड़कर भागने को मजबूर हुए।

उस दिन को लेकर जगमोहन ने ‘कश्मीर: समस्या और समाधान’ में लिखा है, “अचानक विमान झटके के साथ नीचे झुका। ऐसा बाहरी हवा में दबाव के अन्तर के कारण हुआ। सीमा सुरक्षा बल का वह छोटा सा विमान उसे आसानी से झेल नहीं सकता था। पूरा विमान काँप उठा और उसके साथ मेरी विचारधारा भी। शायद इसने मुझे संस्मरण दिलाया कि मैं ऐसे राज्य में जा रहा हूँ जो अशांति और दहशत में फँसा है। यह 19 जनवरी 1990 की दोपहर थी। मैं विमान द्वारा दूसरी बार जम्मू-कश्मीर जा रहा था।”

उस रात क्या हुआ इससे हम सब परिचित हैं। जगमोहन ने खुद लिखा है कि पहले ही दिन आतंकवादियों, पाकिस्तान समर्थित तत्वों, कट्टरपं​थी और सांप्रदायिक तत्वों तथा राजनीतिक और शासकीय निहित तत्वों ने अपने-अपने तरीके से उन्हें कमजोर और पंगु बनाने का निर्णय कर लिया था। लेकिन, जगमोहन की असली चुनौती 26 जनवरी 1990 को इंतजार कर रही थी।

असल में उस साल की 26 जनवरी जुमे के दिन थी। ईदगाह पर 10 लाख लोगों को जुटाने की योजना बनाई गई थी। मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से लोगों को छोटे-छोटे समूह में ईदगाह पहुँचने को उकसाया जा रहा था। श्रीनगर के आसपास के गाँव, कस्बों से भी जुटान होना था। योजना थी कि जोशो-खरोश के साथ नमाज अता की जाएगी। आजादी के नारे लगाए जाएँगे। आतंकवादी हवा में गोलियाँ चलाएँगे। राष्ट्रीय ध्वज जलाया जाएगा। इस्लामिक झंडा फहाराया जाएगा। विदेशी रिपोर्टर और फोटोग्राफर तस्वीरें लेने के लिए वहाँ जमा रहेंगे। उससे पहले 25 की रात टोटल ब्लैक आउट की कॉल थी।

साभार: कश्मीर: समस्या और समाधान

आतंकियों को कामयाबी का पूरा गुमान था। वे जानते थे कि गणतंत्र दिवस होने के कारण आवाजाही पर कोई प्रतिबंध नहीं होगा। नेता और अधिकारी जम्मू में सलामी लेने में व्यस्त होंगे। स्थानीय अधिकारी कोई काम नहीं करेंगे। इस्लामी झंडा लहराते ही उनका सरेंडर करवाया जाएगा। तैयारियाँ पूरी थी और साजिश पर गुप्त तरीके से अमल हो रहा था। अंतिम वक्त में हैरान कर देने के मॅंसूबे थे। 14 अगस्त 1989 को वे इसका एक प्रयोग कर चुके थे। तब कुछ आतंकियों ने परेड की सलामी ली थी। पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस मनाया गया था। अखबारों में उस जश्न की ख़बरें और तस्वीरें छपी थीं। अगले दिन भारत के स्वतंत्रता दिवस पर तिरंगे को सार्वजनिक रूप से जलाया गया था।

26 जनवरी से दो दिन पहले अफवाह फैलाई गई कि अर्धसैनिक बलों ने कश्मीर आर्म्ड फोर्सेस के चार जवानों को मार गिराया है। ‘खून का बदला खून’ का आह्वान किया गया। 25 जनवरी की सुबह श्रीनगर में भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना और तीन अन्य अफसर की आतंकियों ने निर्मम हत्या कर दी। हत्या उस समय की गई जब वे ड्यूटी पर जाने के लिए अपनी दफ्तर की गाड़ी का इंतजार कर रहे थे। आतंकियों ने संदेश दे दिया था।

आतंकियों के लिए आज़ादी बस कुछ घंटे दूर थी। उन्हें लग रहा था कि इस साजिश की भनक जगमोहन को नहीं लगेगी। लगी भी तो 10 लाख लोगों पर बल प्रयोग का जोखिम नहीं उठाया जाएगा। लेकिन, मजहबी उन्मादियों को घुटने पर लाने का प्लान पहले से तैयार था। उन्हें चौंकाते हुए जगमोहन ने 25 जनवरी की दोपहर ही कर्फ्यू लगा दिया। अपने कुछ विश्वस्त सहयोगियों को उसी शाम बता दिया कि वे सलामी लेने जम्मू नहीं जाएँगे। श्रीनगर में ही डेरा डाले रहेंगे। सभी सरकारी विभागों को आदेश दिए कि हर हाल में दफ्तरों में लाइटें जलनी चाहिए। हर हाल में स्ट्रीट लाइट ऑन रहनी चाहिए। इसके लिए पीडब्ल्यूडी और बिजली विभाग को विशेष आदेश दिए गए। शाम हुई तो बिजली जल उठी। बकौल जगमोहन, आप इसे अथॉरिटी का सम्मान कहिए या डर, कर्मचारियों ने इसका पालन किया।

साभार: कश्मीर: समस्या और समाधान

इन लाइटों की रोशनी से जो गर्माहट पैदा हुई वह इस्लामिक आतंकवाद पर भारत की पहली मनोवैज्ञानिक जीत थी। इसने तय कर दिया कि जीतना भारत को ही है। कश्मीर को संविधान के आईन में ही चलना है, न कि किसी मजहबी उन्माद में जलना है। 1990 के जनवरी के आखिरी दिनों में जगमोहन ने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में भी इस घटना का जिक्र किया था। जो कुछ इस तरह था,

आदरणीय राष्ट्रपति जी,
ठीक दस दिन पहले मैंने अपना कार्यभार संभाला था। तब से अब तक मैं एक छोटी रिपोर्ट लिखने के लिए दस मिनट का समय भी ​नहीं निकाल सका। स्थिति इतनी गंभीर और संकटपूर्ण थी।
… यह वाकई चमत्कार था कि 26 जनवरी को काश्मीर बचा लिया गया और हम राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय शर्मिंदगी उठाने से बच गए। इस दिन की कहानी लम्बी है और यह बाद में पूरे ब्यौरे के साथ बताई जानी चाहिए।
… मैंने 26 जनवरी को हुई घटनाओं में अपनी भूमिका पूरी तरह अदा की है और मुझे इसका गर्व है। लेकिन अपना काम जारी रखना मेरे लिए कठिन हो जाएगा यदि यह प्रभाव बना रहा कि जनता में मुझे पूरा समर्थन नहीं प्राप्त है। पहले से ही मुझे एक टूटा और बिखरा प्रशासन मिला है। यदि कमांडर पर ही हर रोज छिप कर वार किया जाए तो सफलता का क्या अवसर रह जाता है इसकी कल्पना की जा सकती है।
… कामचलाऊ समाधानों या सुगम रास्तों का सहारा लेना आत्मघाती नहीं तो गलत जरूर होगा। विष महत्वपूर्ण अंशों तक पहुॅंच चुका है। जब तक कि उसे पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाता, हम एक संकटपूर्ण स्थिति से दूसरी में ही लड़खड़ाते रहेंगे।
आपका
-जगमोहन

वैसे जगमोहन को पहली बार जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल इंदिरा गाँधी की सरकार ने ही बनाया था। लेकिन यह भी छिपा नहीं कि बाद के वर्षों में वे कॉन्ग्रेस को खटकते रहे। उनका नाम लेकर कॉन्ग्रेस अपने शीर्ष परिवार की कश्मीर नीतियों की नाकामी को छिपाने की कोशिश करता रहा।

अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहे गुलाम नबी आजाद ने कहा था, “पिछले दिनों में जो घटनाएँ हुई हैं उससे जम्मू-कश्मीर और लेह-लद्दाख के लोग डरे हुए हैं। इससे 1990 की यादें ताजा हो गई हैं, जब वीपी सिंह की सरकार में बीजेपी ने जगमोहन को कश्मीर का राज्यपाल बनवाया था और फिर घाटी से कश्मीरी पंडितों को बसों में भर कर बाहर निकाला गया जो आज तक एक कलंक की तरह है।”

पत्रकार आदित्य राज कौल ने ट्वीट कर उस समय कहा था, “2014 में वाराणसी में एक साक्षात्कार के दौरान ने गुलाम नबी आजाद ने मुझे जगमोहन के बारे में सवाल पूछने को कहा था ताकि वे भाजपा पर निशाना साध सकें।” कश्मीरी पंडितों के मसीहा जगमोहन को खलनायक साबित करने के लिए एक अन्य कॉन्ग्रेसी और केन्द्र में मंत्री रह चुके सैफुद्दीन सोज तो बकायदा एक किताब ‘Kashmir: Glimpses of History and the Story of Struggle’ भी लिख चुके हैं।

यह सही है कि दूसरी बार, 1990 में जब जगमोहन को कुछ महीनों के लिए जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया तो केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार थी और वह भाजपा के समर्थन से चल रही थी। यह भी सच है कि उनके इस कार्यकाल में कश्मीरी पंडितों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उनके राज्यपाल बनने से पहले 1987-88 से ही पंडितों ने घाटी छोड़ना शुरू कर दिया था। 14 सितंबर 1989 को भाजपा नेता पंडित टीका लाल टपलू की निर्मम हत्या कर दी गई थी। इसके कुछ समय बाद ही जज नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गई। गंजू ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेता मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी। जुलाई से नवंबर 1989 के बीच 70 अपराधी जेल से रिहा किए गए थे। घाटी में हमें पाकिस्तान चाहिए। पंडितों के बगैर, पर उनकी औरतों के साथ जैसे नारे लग रहे थे।

ऐसे माहौल में श्रीनगर पहुँचे जगमोहन ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से सुरक्षित निकलने का मौका मुहैया कराया, जिसके लिए पंडित उन्हें आज भी मसीहा मानते हैं। अरुण शौरी ने 2004 में यूँ ही नहीं कहा था, “यह जगमोहन ही रहे, जिन्होंने भारत के लिए घाटी को बचाया।”

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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