बाबर, हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब… इनके बारे में आपने अपनी इतिहास की किताबों में तसल्ली के साथ पढ़े होंगे। कहीं एक पूरा पन्ना इनकी बहादुरी को समर्पित देखा होगा तो कहीं पर पूरा अध्याय इन्हीं के महिमामंडन में लिखा दिखा होगा। इतिहास के नाम पर मजाल है कि भारत की उस संस्कृति सभ्यता का गुणगान मिल जाए, जिसे मुगल आक्रांताओं ने कदम रखते ही नष्ट करने का काम किया था। अगर आपको इनके बारे में पढ़ना है तो आपको पाठ्यक्रम से अतिरिक्त किताबों की ओर रुख करना होगा, क्योंकि सिलेबस में शामिल पुस्तकों में ये सब तब से गायब है, जब से भारत आजाद हुआ था और पहले शिक्षा मंत्री के तौर पर मौलाना अबुल कलाम आजाद को कमान मिली।
मुगलों के कुकर्मों को धोया, हिंदू इतिहास को छिपाया
1947 से लेकर 1958 यानी अपने इंतकाल तक मौलाना अबुल कलाम आजाद देश के शिक्षा मंत्री थे। उनके जन्मदिवस के मौके पर पूरा देश उनके नाम पर राष्ट्रीय शिक्षा दिवस मनाता है। उनके शिक्षा मंत्री बनने के बाद शिक्षा क्षेत्र में बदलावों की चर्चा करता है। लेकिन ये बात कम जगह पढ़ने को मिलती है कि ये बदलाव कैसे थे, किस दिशा में थे, किस तरीके से उन्होंने शिक्षा मंत्री होते ही मुगलों के कुकृत्यों को धो-पोंछने का काम शुरू कर दिया था और मुगलों की एक नई तस्वीर समाज में परोसी थी।
वह लगभग 11 साल शिक्षा मंत्री थे। उस दौरान उन्होंने इस क्षेत्र में ऐसे लोगों को दाखिल किया था जो या तो उसी समुदाय के थे या फिर उनका संबंध लेफ्ट विचारधारा से था। इनमें हुमायूं कबीर, एमसी छागला और फखरुद्दीन अली अहमद जैसे लोग थे। इन सबने मिलकर मुगलों को भारत के नायक के तौर पर उभारा। वहीं ये बातें गौण कर दी गईं कि मुगलों ने लगातार भारत की संस्कृति नष्ट करने के लिए हिंदुओं पर ताबड़तोड़ हमले किए, उनसे जजिया लिया, उनका धर्मांतरण करवाया, उनकी महिलाओं के साथ दुराचार किया, बच्चों को बाजारों में बेच डाला।
हिंदुओं को किया गया बदनाम
मौलाना अबुल कलाम द्वारा शिक्षा क्षेत्र में किए गए बदलावों के बारे में अपने freedomFirst.in पर पढ़ने को मिलता है जिसमें बताया गया है कि किस तरह से आजाद ने शिक्षा मंत्री बनने के साथ इतिहास में हस्तक्षेप किया और मुगलों की लूट मार समेत तमाम कृत्यों को बताने की जगह छिपाने का काम किया। साल 2020 में इस संबंध में आईपीएस नागेश्वर राव ने अपने ट्वीट में पूरा एक थ्रेड शेयर किया था।
उन्होंने अपने ट्वीट में साफ कहा था कि भारत के इतिहास को बड़ी सफाई से ‘विकृत’ किया गया जिसमें मौलाना अबुल कलाम समेत कई मुस्लिम और वामपंथी नेताओं का हाथ था। ये लोग शिक्षा मंत्री बनकर भारतीय मन-मस्तिष्क के प्रभारी बने बैठे थे। उस दौरान इन लोगों ने सुनिश्चित किया कि हिंदुओं को उनके ज्ञान से वंचित रखा जाए, हिंदू धर्म को अंधविश्वासों के संग्रह के रूप में सत्यापित किया जाए, शिक्षा पर इस्लाम और ईसाइयत का प्रभुत्व हो, हिंदू अपनी पहचान को लेकर शर्मिंदा हों आदि।
मौलाना आजाद और वामपंथियों ने मिटाया मुस्लिमों का खूनी इतिहास: IPS अफसर ने बताया कैसे हिंदू धर्म को दिखाया नीचा#Archives https://t.co/mICGmuofJs
— ऑपइंडिया (@OpIndia_in) July 27, 2021
आज वही मौलाना अबुल कलाम आजाद देश के लिबरलों को सबसे उदारवादी लगते हैं। ये सवाल पूछा जाना कि आखिर क्यों उन्होंने हिंदुओं को उनका इतिहास पढ़ने से दूर रखा गया, सबको सुई की तरह चुभता है। लेकिन जो प्रश्न यहाँ उनके शिक्षा मंत्री बनने के बाद किए गए बदलावों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है वो ये कि आखिर उनका शिक्षा मंत्री के तौर पर चुनाव किस बिनाह पर किया गया होगा?
पीर बनाना चाहते थे अब्बा
उनकी जीवनी अगर पढ़ी जाए तो पता चलेगा कि मौलाना अबुल कलाम का पृष्ठभूमि सेकुलर भारत के शिक्षा मंत्री के तौर पर कहीं भी फिट नहीं बैठती थी। उनका जन्म इस्लामी उलेमाओं के घर हुआ था। उनका परिवार बाबर के जमाने में अफगानिस्तान जा चुका था और उनके अब्बा 1857 में मक्का गए थे। वहीं अबुल कलाम का जन्म हुआ था। उन्होंने अपने अब्बा मोहम्मद खैरुद्दीन से उर्दू सीखी थी और अम्मी से अरबी की तालीम ली थी।
उनकी शिक्षा-दीक्षा के दौरान ये ध्यान दिया गया था कि वो इस्लाम के मद्देनजर ही हो। उनके अब्बा हमेशा से चाहते थे कि अबुल उनकी तरह इस्लाम के वाहक या पीर बनें। यही वजह थी कि उन्होंने अपने बच्चों की तालीम न केवल पारसी और अरबी में करवाई, बल्कि उन्हें कुरान, हदीस और शरिया को लेकर हर जानकारी दी। बाद में मौलाना अबुल 1890 में भारत के कलकत्ता आए। 1905 में अबुल कलाम को कायरो की अल अजहर इस्लामी यूमिवर्सिटी में भेजा गया। आगे जाकर उन्होंने 1920 में भारत में शुरू हुए खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया और बाद में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनीं सरकार में शिक्षा मंत्री।
अब सोचिए, शुरुआत से लेकर अंत तक एक विचारधारा में पले-पोसे अबुल कलाम शिक्षा मंत्री बनने के बाद मुगलों के कृत्यों कों क्यों न छिपाने का काम करते। वो क्यों न टीपू सुल्तान और अलाउद्दीन खिलजी के बारे में बच्चों को पढ़वाते और क्यों न अकबर को महान बताते। वो आपको क्यों सम्राट पोरस और बप्पा रावल की शूरता की गाथा परोसते?
आज उन्हीं के गढ़े सिलेबस की देन है कि भारतीय मूल्य कैसे इंसानियत के खिलाफ हैं, इस पर चर्चा होती है। लोग सती प्रथा के बारे तो जान जान जाते हैं लेकिन उन्हें तीन तलाक, हलाला जैसी कुरीतियों के बारे में पढ़ने के लिए दूसरे से ज्ञान लेने की जरूरत पड़ती है। युवा अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं, पर हिंदू नरसंहार पर चुप्पी साध लेते हैं।