भगवान श्री रामलला का मंदिर बन रहा है। जिस काम के लिए मेरे बेटे ने बलिदान दिया था, वह काम अब पूरा हो रहा है। मेरे बेटे का बलिदान सार्थक हुआ।
यह कहना है 72 साल की अक्षय माहेश्वरी का। वे और उनके 76 वर्षीय पति मानकचंद माहेश्वरी राजस्थान के अजमेर में रहते हैं। इन दिनों 22 जनवरी 2024 को अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा का साक्षी बनने की तैयारियाँ कर रहे हैं। यह बुजुर्ग दंपती राम मंदिर के लिए 19 साल की उम्र में बलिदान देने वाले अविनाश माहेश्वरी के माता-पिता हैं।
जिस रामजन्मभूमि पर इस्लामी आक्रांता बाबर के नाम पर एक गुंबद चढ़ा दिया गया था, उस पवित्र जगह को वापस पाने के लिए हिंदुओं के संघर्ष की कहानी करीब 500 वर्षों की है। इस दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों के कारसेवकों को अयोध्या में बलिदान तक देना पड़ा। अविनाश माहेश्वरी उसी 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बलिदान हुए थे जिस दिन विवादित ढाँचा ढाह दिया गया था।
अयोध्या के टेढ़ा सर्कल पर इस दिन कारसेवकों पर बम फेंका गया था। अविनाश ने उस बम को हवा में ही कैच कर दूर फेंक दिया। लेकिन विस्फोट होने से छर्रे उनके चेहरे पर लग गए। उन्हें गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया, पर उनकी जान नहीं बची। सैकड़ों रामभक्त की जिंदगी बचाकर वे खुद बलिदान हो गए।
एनडीटीवी को अविनाश के पिता मानक चंद माहेश्वरी ने बताया, “ढाँचा विध्वंस के दौरान एक कार सेवक जख्मी हो गया था। अविनाश अपने साथियों के साथ उन्हें अस्पताल ले जा रहे थे। इसी दौरान एक अन्य मजदूर के घायल होने की सूचना मिली। अविनाश अयोध्या के टेढ़ा सर्कल पर उतर गए। इसी समय राहत कार्य में लगे कारसेवकों पर बम फेंका गया। अविनाश ने इसे बम को कैच कर दूर फेंक दिया पर बम फटने से छर्रे उनके चहरे पर आकर लग गए।”
मानकचंद माहेश्वरी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ाव रहा है। इस कारण 12 साल की उम्र में ही अविनाश भी संघ से जुड़ गए। वह नियमित रूप से शाखा जाने लगे। अक्षय माहेश्वरी बताती हैं कि 26 नवंबर 1992 को अविनाश उनसे अयोध्या जाने की जिद्द करने लगा। उन्होंने उसे मना किया तो वह रोते-रोते सो गया। 28 नवंबर की सुबह वह अपने दोस्त के साथ अयोध्या के लिए निकल गया।
मानकचंद माहेश्वरी के अनुसार अयोध्या रवाना होने से पहले उनका बेटा उनकी डिस्पेंसरी पर मिलने आया था। उन्होंने अविनाश से कहा था, “जो भी तुम्हें काम दे, वह सब अच्छे से कर लेना।” माहेश्वरी के अनुसार उस समय अजमेर से अयोध्या के लिए 28 लोगों की एक टोली निकली थी।
नारे लग रहे थे अविनाश अमर रहे और बरस रहे थे डंडे
मानकचंद माहेश्वरी ने दैनिक भास्कर को बताया कि बेटे के बलिदान होने की जानकारी उन्हें आएसएस से संपर्क होने के कारण 6 दिसंबर 1992 को ही मिल गई थी। 7 दिसंबर को पूरे देश में कर्फ्यू लग दिया गया था। पत्नी को इसके बारे में उन्होंने 8 दिसंबर को तब बताया जब बेटे के शव की शिनाख्त के लिए बुलाया गया। 9 दिसंबर को संघ की तरफ से उन्हें अविनाश की अंतिम यात्रा जुलूस के रूप में निकालने का प्रस्ताव दिया गया। लेकिन कर्फ्यू के कारण उन्होंने मना कर दिया। बावजूद अंतिम दर्शन करने को भीड़ उमड़ पड़ी। इस दौरान एक तरफ ‘अविनाश अमर रहे’ के नारे लग रहे थे, दूसरी तरफ प्रशासन भीड़ पर डंडे बरसा रहा था। इस दौरान कई लोगों को चोटें भी आई थी।
बलिदान होने के बाद बहन को मिली चिट्ठी
अविनाश माहेश्वरी 6 दिसंबर को अयोध्या में बलिदान हो गए। 28 नवंबर को माता-पिता ने उन्हें आखिरी बार जीवित देखा था। 30 नवंबर को उनकी बड़ी बहन सुमन काबरा का जन्मदिन था। उन्होंने बहन को एक चिट्ठी लिखी थी, जो उनके बलिदान के तीन दिन बाद यानी 9 दिसंबर को सुमन को मिली। इसमें लिखा था;
मैं अयोध्या पहुँच गया हूँ। यहाँ सब अच्छा है। कोई टेंशन की बात नहीं है। जन्मदिन की शुभकामनाएँ। जल्द अगला लेटर लिखूँगा। अजमेर में माँ -पापा भी ठीक होंगे, उन्हें भी लेटर लिखूँगा। फूलों का तारों का सबका कहना है, एक हजारों में मेरी बहना है।
मानकचंद माहेश्वरी के अनुसार अविनाश के बलिदान के करीब एक महीने बाद विश्व हिंदू परिषद ने उन्हें 2 लाख रुपए का चेक देना चाहा था। लेकिन उन्होंने इसे लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद उनके बेटे की स्मृति में अजमेर के भजनगंज में एक स्कूल खोला गया। 28 बच्चों से शुरू हुए इस स्कूल में आज 650 बच्चे पढ़ते हैं। अपना दर्द छिपाते हुए अक्षय और मानकचंद माहेश्वरी कहते हैं;
जिस काम के लिए हमारा बेटा वहाँ गया और अपना बलिदान दिया, वह काम अब पूरा हो रहा है। हमारे बेटे का बलिदान सार्थक हुआ। उसके बलिदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।