क्या आपने रॉबर्ट ओपेनहाइमर का नाम सुना है? वही रॉबर्ट ओपेनहाइमर, जिन पर हॉलीवुड के दिग्गज निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन फिल्म लेकर आए हैं। ‘Oppenheimer’ नाम की ये फिल्म रॉबर्ट ओपेनहाइमर के जीवन पर ही आधारित है। असल में ये वही शख्स थे, जिन्हें ‘परमाणु बम का जनक’ कहा जाता है। अमेरिका के फिजिसिस्ट रॉबर्ट ओपेनहाइमर परमाणु बम बनाने के लिए बनाई गई ‘लॉस एलामोस लेबोरेटरी’ के डायरेक्टर थे। उन्होंने हारवर्ड, कैम्ब्रिज, गोटेंगेन और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उक्त लैब को ‘मैनहटन प्रोजेक्ट’ के तहत विकसित किया गया था। पहले न्यूक्लियर टेस्ट को ‘ट्रिनिटी’ नाम दिया गया था। वो 16 जुलाई, 1945 का दिन था जब ये कराया गया था। जब ये टेस्ट हुआ, उस समय रॉबर्ट ओपेनहाइमर एक बंकर में बैठे हुए थे, जबकि वहाँ से 10 किलोमीटर दूर न्यू मेक्सिको स्थित जोर्नाडा डेल मुर्टो के रेगिस्तान में ये परीक्षण हुआ था। बताया जाता है कि इस परियोजना, जिसे ‘Project Y’ भी नाम दिया गया था, पर काम करने के दौरान उनका वजन काफी घट गया था और वो पतले हो गए थे।
J. Robert Oppenheimer, परमाणु परीक्षण और भगवद्गीता का एक श्लोक
इस प्रोजेक्ट के लिए उन्होंने 3 साल लगातार जो मेहनत की थी, उस कारण ऐसा हुआ था। टेस्ट वाले दिन वो ठीक से सो भी नहीं पाए थे। बताया जाता है कि जब पहला परमाणु ब्लास्ट हुआ, तब उसने सूरज की रोशनी को भी फीका कर दिया। 21 किलोटन TNT के साथ किया गया ये ब्लास्ट उस समय तक कहीं देखा-सुना नहीं गया था। ब्लास्ट के बाद जब मशरूम के आकर का घना धुआँ आकाश में उठा, तब जाकर रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने राहत की साँस ली। 160 किलोमीटर दूर तक ब्लास्ट का कंपन सुनाई दिया।
उनके दोस्त इसीडोर रबी ने बताया था कि उसके बाद उन्होंने एक दूसरी से रॉबर्ट ओपेनहाइमर को देखा था, उनके शब्दों में कहें तो वो कार से जब निकले तो उनकी चाल एक अकड़ वाली थी, उसमें एक एहसास था कि उन्होंने कर दिखाया। उन्होंने इसकी तुलना दोपहर के सूर्य से की थी। लेकिन, क्या आपको पता है कि इस पहले परमाणु बम ब्लास्ट के बाद रॉबर्ट ओपेनहाइमर के दिमाग में क्या गूँजा था। असल में वो भगवद्गीता से प्रेरित थे। उन्हें इस हिन्दू ग्रन्थ से प्रेम था।
1960 के दशक में उन्होंने इसका खुलासा किया था। उन्होंने कहा था कि जब दुनिया का पहला परमाणु ब्लास्ट सफल रहा, तब उनके मन में भगवद्गीता से भगवान श्रीकृष्ण के ये शब्द गूँजे – “अब मैं मृत्यु बन गया हूँ, संसारों का विध्वंस करने वाला।” भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय मित्र अर्जुन की शंकाओं का जवाब देते हैं, उन्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित करते हैं। इसी दौरान वो अपना विकराल रूप प्रकट करते हैं और विष्णु के रूप में बताते हैं कि वो कौन हैं। उक्त श्लोक इस प्रकार है:
कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः ॥॥ (11.32)
इसका हिंदी अर्थ कुछ इस प्रकार होगा, “मैं प्रलय का मूल कारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएँगे।” श्रीकृष्ण ने इसमें खुद को काल बताया है। सृष्टि की सभी घटनाएँ अंततः काल के ही गर्भ में समा जाती हैं। यहाँ उन्होंने परमेश्वर का वो रूप दिखाया है, जो भक्षण करने वाला है। वो हर एक जीव और वस्तु को नष्ट करने में सक्षम हैं।
भगवद्गीता का ये श्लोक ही रॉबर्ट ओपेनहाइमर को याद आया था, जब उनका परमाणु परीक्षण सफल रहा। बड़ी बात ये है कि इस परीक्षण के बाद काफी दिनों तक वो अवसादग्रस्त रहे थे। उन्हें पता था कि आगे इस परमाणु बम का क्या इस्तेमाल होने वाला है। एक दिन तो वो जापानी लोगों को लेकर चिंतित भी थे। उन्होंने कहा था, “ये बेचारे लोग…”। लेकिन, 15 दिन बाद फिर से सब भूल कर वो वापस अपने काम में लग गए। उन्होंने बताया कि परमाणु बम को ज़्यादा ऊँचे पर नहीं फोड़ा जाए, नहीं तो टार्गेट अच्छे से क्षतिग्रस्त नहीं होगा।
साथ ही उन्होंने बारिश या धुंध में भी इसे डेटोनेट न करने की सलाह दी। हिरोशिमा पर जब परमाणु बम गिराए जाने की खबर आई, तब उसके बाद उन्होंने अपने साथियों के बीच इसका जश्न मनाया और मुट्ठी बाँध कर हाथ हवा में लहरा कर प्रतिक्रिया व्यक्त की। उनके साथ काम करने वाली जेमी बर्नस्टीन का कहना था कि ये प्रोजेक्ट उनके अलावा किसी और से सफल नहीं हो पाता। उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि अगर रॉबर्ट ओपेनहाइमर प्रोजेक्ट के डायरेक्टर नहीं होता तो परमाणु बम का इस्तेमाल हुए बिना द्वितीय विश्व युद्ध खत्म हो जाता।
रॉबर्ट ओपेनहाइमर और उनका जीवन
वो न सिर्फ थ्योरेटिकल फिजिक्स के विद्वान थे, बल्कि एक बुद्धिजीवी और नेतृत्वकर्ता के रूप में भी उन्होंने पहचान बनाई। 1904 में न्यूयॉर्क में जन्मे रॉबर्ट ओपेनहाइमर जर्मन-यहूदी माता-पिता की संतान थे। उनका परिवार टेक्सटाइल कारोबार में उन्नति कर के समृद्ध बन गया था। एक बड़े अपार्टमेंट में उनका परिवार रहा करता था, जिसमें 3 नौकरानियाँ और 1 ड्राइवर भी था। बचपन में वो काफी शर्मीले हुआ करते थे। 9 वर्ष की उम्र में ही वो ग्रीक और लैटिन चिंतन साहित्य पढ़ते थे।
यही वो समय था जब ‘Mineralogy’ (खनिज पदार्थों और उनकी भौतिक-रासायनिक स्थितियों का अध्ययन) में उनकी रुचि जगी और उन्होंने अपने अध्ययन को लेकर ‘न्यूयॉर्क मिनरालॉजिकल क्लब’ को पत्र भेजने शुरू किए। ये इतने गहरे होते थे कि क्लब ने वयस्क समझ कर उन्हें प्रेजेंटेशन के लिए आमंत्रित भी कर दिया। हार्वर्ड में स्नातक करने के दौरान भी उन्होंने लिखा था कि वो कैसेथीसिस, कविताएँ सब लिखते हैं, चाय परोसते हैं और लैब्स में भी काम करते हैं।
कैम्ब्रिज में पोस्ट ग्रेजुएशन के दौरान तो उन्होंने अपने ट्यूटर के टेबल पर एक ज़हर इंजेक्ट किया हुआ सेब ही रख डाला था, लेकिन संयोग से ये उसने खाया नहीं। हालाँकि, उन्हें मनोवैज्ञानिक डॉक्टर को दिखाने की शर्त पर वहाँ से निकाला नहीं गया। उन्होंने 1925 में लिखा था कि इन लैब्स में काम करते हुए वो कुछ नया सीख नहीं पा रहे हैं। उस दौरान उन्हें आत्महत्या के भी ख्याल आते। उसी दौरान पेरिस दौरे में उनके एक दोस्त फ्रांसिस फर्ग्युसन ने बताया था कि उसने उनकी गर्लफ्रेंड को प्रोपोज़ किया है।
इस पर दोनों के बीच खूब मारपीट हुई थी और रॉबर्ट ओपेनहाइमर की गर्दन पर जख्म हो गया था। वो रोए भी थे। रॉबर्ट ओपेनहाइमर का कहना था कि उन्हें ऐसे लोग पसंद हैं जो कई सारी चीजों को करने में असाधारण हों, लेकिन साथ ही उनके चेहरे आँसू से भी सने हों। उनके जीवन में बड़ा मोड़ तब आया, जब 1926 में उनकी मुलाकात जर्मनी स्थित ‘Göttingen यूनिवर्सिटी’ में ‘इन्टीटूटे ऑफ थ्योरेटिकल फिजिक्स’ के डायरेक्टर से हुई। प्रोफेसर ने उनकी प्रतिभा को पहचान कर यूनिवर्सिटी में रिसर्च का मौका दिया।
यहाँ उनकी मुलाकात इस क्षेत्र के प्रतिभावान वैज्ञानिकों से भी हुई, जिनमें से कई उनके दोस्त बने तो कइयों ने ‘लॉस एलामोस लेबोरेटरी’ में उनकी टीम में काम किया। आपके मन में एक सवाल ज़रूर आ रहा होगा कि रॉबर्ट ओपेनहाइमर को भगवद्गीता से इतना लगाव क्यों था। ये सब शुरू हुआ 1930 के दशक में, जब वो Humanities के क्षेत्र में भी थोड़ा-बहुत अलग से काम कर रहे थे। इसी दौरान उनका परिचय प्राचीन हिन्दू ग्रंथों से हुआ और इनसे वो खासे प्रभावित हुए।
परमाणु बम से तबाही देख बदला मन? हिन्दू ग्रन्थ में ली शरण
इस दौरान उन्होंने निश्चय किया कि वो भगवद्गीता का अनुवाद किए बिना इसे पढ़ेंगे। चूँकि मूल रूप से ये ग्रन्थ संस्कृत में है, इसीलिए उन्होंने संस्कृत भी सीखनी शुरू कर दी। रॉबर्ट ओपेनहाइमर के भीतर मनोविज्ञान की समझ भगवद्गीता के बाद ही अच्छी तरह से विकसित हुई। यही कारण है कि ‘प्रोजेक्ट वाई’ के दौरान वो नैतिकता को सोच-विचार कर जिस कश्मकश में रहे, उससे निपटने में उन्हें सफलता मिली। कर्तव्य, नियति और फल की परवाह किए बिना कर्म करना – ये उन्होंने वहाँ से सीखा और दुष्परिणामों के बारे में सोचना बंद कर दिया।
हालाँकि, भगवद्गीता का ये सन्देश बिलकुल भी नहीं है कि निर्दोषों की हत्या की जाए या उनका नरसंहार किया जाए। रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने उस दौरान कहा था कि युद्ध ऐसी परिस्थिति है, जिसमें इस दर्शन को लागू किया जा सकता है। लेकिन, युद्ध के बाद उनमें बदलाव आया और वो परमाणु हथियारों को आक्रामकता, अप्रत्याशित आक्रमण और आतंक के औजार बताने लगे। उन्होंने हथियारों की इंडस्ट्री को ही शैतानी करार दिया। उन्होंने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन से कहा कि मेरे हाथ पर खून लगे हैं।
उन्हें ढाँढस बँधाने के लिए ट्रूमैन ने कह दिया कि खून आपके नहीं, मेरे हाथों में लगे हैं। रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने वैज्ञानिकों से एक बार कहा भी था वैज्ञानिक तो सिर्फ अपना कर्तव्य कर रहे हैं, हत्याओं की जिम्मेदारी तो राजनेताओं की होगी। एक तरह से ऐसा भी हो सकता है कि परमाणु बम बनाने और इसके दुष्परिणामों के बारे में सोच कर उन्होंने भगवद्गीता की शरण ली और अपने काम को सही ठहराने का प्रयास किया, लेकिन अंत में उन्हें समझ आया कि उन्होंने क्या किया है।
युद्ध के कुछ वर्षों बाद उसी अमेरिका ने उन पर जाँच बिठा दी, जिसे उन्होंने परमाणु बम बना कर दिया था। उनकी सुरक्षा व्यवस्था में कमी कर दी गई। तब उनकी तरफ से कुछ विशेषज्ञों ने अख़बारों में लिखा कि वो गद्दार नहीं हैं। रॉबर्ट ओपेनहाइमर किशोरावस्था से ही काफी स्मोकिंग करते थे, इस कारण उन्हें बाद में टीबी का भी सामना करना पड़ा। अपनी मृत्यु से 2 दिन पहले उन्होंने कहा था कि दोबारा एक ही गलती को न दोहराने के कारोबार का नाम ही विज्ञान है।
वो सन् 1933 का समय था, जब प्रत्येक गुरुवार को रॉबर्ट ओपेनहाइमर भगवद्गीता पढ़ने जाते थे। बर्कली में उन दिनों आर्थर राइडर नाम के एक संस्कृत शिक्षक हुआ करते थे, जिनसे वो पढ़ने जाते थे। उनका कहना था कि राइडर से ही उन्हें नीतिशास्त्र का ज्ञान मिला, उन्होंने सीखा कि जो लोग कठिन कार्य करते हैं उन्हें सम्मान प्राप्त होता है। हिन्दू धर्म में उन्होंने दुनियादारी से खुद को अलग कर के देखने की भावना उन्होंने सीखी। एक बार उन्होंने अपने एक मित्र से कहा था, “मैंने ग्रीक को भी पढ़ा है। लेकिन हिन्दुओं में गहराई है। ”