कैसे भूल जाएँ हम 19 जनवरी 1990 की वह सुबह जिस दिन कश्मीरी पंडितों को अपने घरों से पलायन करना पड़ा था और सरकारें मुस्लिम तुष्टिकरण में आतंक का साथ दे रहीं थीं। उस दिन कश्मीर में माहौल पहले से कहीं ज़्यादा सर्दी थी तभी मस्जिदों से उस रोज अज़ान के साथ-साथ कुछ और नारे भी गूँजे। ‘यहाँ क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा’, ‘कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह-हू-अकबर कहना है’ और ‘असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान’ मतलब हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी मगर अपने मर्दों के बिना। यह संदेश किसी और के लिए नहीं बल्कि कश्मीर में रहने वाले हिंदू पंडितों के लिए था। ऐसी धमकियाँ उन्हें पिछले कई महीनों से मिल रही थीं। आज 32 साल बाद भी कश्मीरी पंडित अपने घरों को नहीं लौट पाए हैं। वो आज भी अपने ही देश में एक शरणार्थी की तरह जीवन बिताने को विवश हैं।
1990 में घाटी से कश्मीरी पंडितों को बुरी तरह तरह से प्रताड़ित करके, पूरी क्रूरता और हिंसा के बल पर वहाँ से भगाया गया था, ये किसी से छिपा नहीं है। जो इस क्रूरता के भुक्तभोगी या गवाह रहे हैं, आज भी इन घटनाओं को याद करते ही उनका कलेजा काँप जाता है। आज सोशल मीडिया पर मशहूर अभिनेता अनुपम खेर ने कश्मीरी पंडितों के पलायन को याद करते हुए एक कविता के माध्यम से देश को एक बार फिर उस त्रासदी की याद दिलाई है जो लाखों कश्मीरी पंडितों के दिलों में आज भी एक नासूर की तरह चुभता है। कविता की पंक्तियाँ ‘कैसे भूल जाऊँ मैं…’ आपके सामने 1990 का वह तस्वीर खींचती हैं जब आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों को अपने ही घर, जमीन, जायदाद सब छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया था।
बलिदान दिवस को याद करते अपनी कविता में वह कहते हैं, “कैसे भूल जाऊँ मैं… आँखों में डर की तस्वीर.. माथे पर तनाव की लकीर…बोलो कैसे भूल जाऊँ मैं…”
कैसे भूल जाऊँ मैं… ? बलिदान दिवस 19 January, 1990. #KashmiriPandits #Exodus #RaviDhar pic.twitter.com/boOwokDfRb
— Anupam Kher (@AnupamPKher) January 19, 2022
1990 में घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन
घाटी में आतंकवाद की पहली वारदात 14 सितंबर 1989 में हुई, जब वरिष्ठ वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता टीका राम टपलू की दिनदहाड़े श्रीनगर में उनके घर के बाहर ही गोली मारकर हत्या कर दी गई।
कश्मीरी पत्रकार आरती टिकू सिंह ने भी एक इंटरव्यू में उस खौफनाक मंजर को साझा किया था। हालाँकि तब वह मात्र 12 वर्ष की थीं, जब उन्हें अपने घर को छोड़ना पड़ा था। वो मूल रूप से अनंतनाग की हैं। उन्होंने बताया कि इस हादसे से पहले 1986 में भी पंडितों का दक्षिण कश्मीर वालों के साथ संघर्ष हुआ था और पहली बार उन्होंने कर्फ्यू देखा, लेकिन उन्हें अंदाज़ा नहीं था कि आगे होने वाली सारी घटनाएँ इसी से जुड़ी हुई हैं। कई लोगों ने इसे भाँप लिया था और वो 1986 में ही निकल गए थे। आरती टिक्कू सिंह कहती हैं, “जब मस्जिदों से नारे लगने शुरू हुए तो हजारों हिंदू घरों में उस दिन बेचैनी थी। सड़कों पर इस्लाम और पाकिस्तान की शान में तकरीरें हो रही थीं। हिंदुओं के खिलाफ जहर उगला जा रहा था। वो रात बड़ी भारी गुजरी थी, सामान बाँधते-बाँधते अपने पुश्तैनी घरों को छोड़कर कश्मीरी पंडितों ने घाटी से पलायन का फैसला किया।
हिंदुओं के घरों का नामोनिशान तक मिटा दिया गया
उस रात घाटी से पंडितों का पहला जत्था निकला। मार्च और अप्रैल आते-आते हजारों परिवार घाटी से भागकर भारत के अन्य इलाकों में शरण लेने को मजबूर हुए। अगले कुछ महीनों में खाली पड़े घरों को जलाकर खाक कर दिया। जो घर मुस्लिम आबादी के पास थे, उन्हें बड़ी सावधानी से बर्बाद कर दिया गया। सैकड़ों मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार, जनवरी 1990 में घाटी के भीतर 75,343 परिवार थे। 1990 और 1992 के बीच 70,000 से ज्यादा परिवारों ने घाटी को छोड़ दिया। एक अनुमान है कि आतंकियों ने 1990 से 2011 के बीच सैकड़ों कश्मीरी पंडितों की हत्या की।
अब यह भी जान लीजिए जब देश में इतना बड़ा कांड हुआ तो सत्ता में कौन था। उस वक्त जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कॉन्ग्रेस के गठबंधन की सरकार थी, लेकिन सही मायने में वहाँ हुकूमत आतंकवादियों और अलगाववादियों की चल रही थी। कश्मीरी पंडितों के खिलाफ आतंकवाद का ये खूनी खेल 1986-87 में ही शुरू हो गया था। जब सैय्यद सलाहुद्दीन और यासीन मलिक जैसे आतंकवादी जम्मू-कश्मीर में चुनाव लड़ रहे थे। लेकिन कॉन्ग्रेस गठबंधन की सरकार ने कश्मीरी पंडितों को यूँ ही आतंकियों के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया था।
बता दें कि साल 1987 के विधान सभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर की जनता के सामने बस दो विकल्प थे या तो वो भारत के लोकतंत्र में भरोसा करने वाली सरकार चुनें या फिर उस कट्टरपंथी यूनाइटेड मुस्लिम फ्रंट का साथ दे, जिसका मंसूबा कश्मीर को पाकिस्तान बनाना था और जिसके इशारे पर कश्मीरी पंडितों की हत्याएँ की जा रही थीं। ऐसे हिंसा और आतंकवाद के माहौल में भी जम्मू-कश्मीर की जनता ने अपने लिए लोकतंत्र का रास्ता चुना। फारूक अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने। उसके बाद कट्टरपंथियों ने कश्मीर की आजादी की माँग और तेज करते हुए हिंदुओं का नरसंहार शुरू कर दिया, लेकिन जम्मू-कश्मीर की फारुक अब्दुल्ला सरकार मुस्लिम कट्टरपंथियों के आगे मूक दर्शक बनी रही।
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, यदि आँकड़ों में बात की जाए तो ऐसे समझिए कि 20वीं सदी की शुरुआत में लगभग 10 लाख कश्मीरी पंडित थे। आज की तारीख में 9,000 से ज्यादा नहीं हैं। 1941 में कश्मीरी हिंदुओं का आबादी में हिस्सा 15% था। 1991 तक उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 0.1% रह गई थी। अब आप ही बताइए जब किसी समुदाय की आबादी 10 लाख से घटकर 10 हजार से भी कम रह जाए तो उसे नरसंहार के अलावा और क्या कहा जाए।
370 के हटने के बाद बढ़ी उम्मीद लेकिन राह आज भी आसान नहीं
पिछले 32 साल में कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में बसाने की कई कोशिशें हुईं, यहाँ तक कि बीजेपी के सत्ता में आने के बाद यह प्रयास और तेज हुआ है। जिसके सकारात्मक असर भी दिख रहे हैं लेकिन नतीजा अभी भी संतोषजनक नहीं है। हाल के सालों में भी आतंकियों ने कश्मीरी पंडितों में डर बनाए रखने के लिए कई कश्मीरी पंडितों यहाँ तक की जम्मू-कश्मीर में भाजपा नेताओं की भी हत्या की।
वापसी की आशाओं के बीच कश्मीरी पंडितों को भी इस बात का अहसास है कि घाटी अब पहले जैसी नहीं रही। हालाँकि, 5 अगस्त, 2019 को जब भारत सरकार ने जम्मू और कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किया तो कश्मीरी पंडित बेहद खुश थे। मगर उनकी वापसी अभी भी सुनिश्चित नहीं हुई है। ऐसे में कोई भी कश्मीरी पंडित कैसे उस खौफनाक पलायन को भूल जाए। चलते-चलते पिछले साल का अनुपम खेर का वह वीडियो भी आपके सामने है जब कश्मीरी पंडितों के दर्द को वह इस उम्मीद में साझा कर रहे हैं कि जल्द ही वह दौर बदले और कश्मीरी पंडित सुरक्षित अपने घरों में हों।