90 के दशक का अजमेर। पत्रकार संतोष गुप्ता अपने दफ्तर में बैठे रहते थे। वहाँ लोगों का आना-जाना लगा रहता था, जो अचानक से ही बढ़ गया था। पूरे 90 के दशक में लोग लड़की की तस्वीर लेकर आते और पूछते थे- “क्या ये वही लड़की है?” दरअसल, वो ऐसे लोग होते थे, जिनकी शादी होने वाली होती थी और वो पहले ही इस बात की पुष्टि करना चाहते थे कि कहीं उनकी होने वाली पत्नी बलात्कार की शिकार तो नहीं। इस कहानी में अजमेर है, चिश्ती हैं, रेप है और ब्लैकमेलिंग है।
यह क्रम संतोष गुप्ता द्वारा अजमेर रेप-कांड का भाँडाफोड़ किए जाने के बाद से लेकर पूरे 90 के दशक के अंत तक चला था। उस समय भले इंटरनेट नहीं था लेकिन इस रेप व ब्लैकमेल स्कैंडल की ख़बरें लोगों के बीच आग की तरह फैली थी।
फरवरी 15, 2018। पुलिस ने इसी दिन इस केस के मुख्य आरोपित सुहैल गनी चिश्ती को गिरफ़्तार किया। इस ख़बर के बाद ही लोगों के बीच लगभग 3 दशक पहले की यादें ताज़ा हो गईं। अजमेर के लोग इस केस पर आज भी बात करने से हिचकिचाते हैं। आखिर बात करें भी तो क्या? ये वो केस है, जिसके बारे में वो समझते हैं कि इसने इस शहर को पूरी दुनिया में बदनाम कर के रख दिया।
अजमेर दरगाह अनुमान कमिटी के जॉइंट सेक्रेटरी मोसब्बिर हुसैन ने एक बार ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए कहा था कि ये हमारे शहर पर लगा एक बदनुमा धब्बा है। संतोष गुप्ता ने इस केस का खुलासा अप्रैल 1992 को किया था। उन्होंने लड़कियों पर हुए अत्याचार की व्यथा को देश के सम्मुख रखा था।
कौन लोग थे, जिन्होंने इस शहर पर ऐसा दाग लगाया था? ये यहीं के लोग थे, खादिम थे। प्रभावशाली थे, अमीर थे और सफेदपोश थे। वो अपराधी नहीं दिखते थे, वो समाजसेवी के कलेवर में थे। कुल 8 लोगों के खिलाफ शुरुआत में मामला दर्ज किया गया था। इसके बाद जाँच हुई और 18 आरोपित निकले।
ये वही लोग थे, जिन पर सूफी फ़क़ीर कहे जाने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह की देखरेख की जिम्मेदारी थी। ये वही लोग थे, जो ख़ुद को चिश्ती का वंशज मानते हैं। उन पर हाथ डालने से पहले प्रशासन को भी सोचना पड़ता। अंदरखाने में बाबुओं को ये बातें पता होने के बावजूद इस पर पर्दा पड़ा रहा।
चेन के बारे में तो आपको पता ही होगा। एक के बाद एक को जोड़ कर चेन या श्रृंखला बनाई जाती है। मजहबी ठेकेदार के वेश में रह रहे दरिंदों ने यही तरीका अपनाया था। किसी युवती को अपने जाल में फँसाओ, उससे सम्बन्ध बनाओ, उसकी नग्न व आपत्तिजनक तस्वीरें ले लो, फिर उसका प्रयोग कर के उसकी किसी दोस्त को फाँसो, फिर उसके साथ ऐसा करो और फिर उसकी किसी दोस्त के साथ- यही उस गैंग का तरीका था।
ओमेंद्र भारद्वाज तब अजमेर के डीआईजी थे, जो बाद में राजस्थान के डीजीपी भी बने। वो कहते हैं कि आरोपित वित्तीय रूप से इतने प्रभावशाली थे और सामाजिक रूप से ऐसी पहुँच रखते थे कि पीड़िताओं को बयान देने के लिए प्रेरित करना पुलिस के लिए एक चुनौती बन गया था।
कोई भी पीड़िता आगे नहीं आना चाहती थी। उनका भी परिवार था, समाज था, जीवन था और ये लड़ाई उन्हें हाथी और चींटी जैसी लगती थी। केस लड़ने, आरोपितों के ख़िलाफ़ बयान देने और पुलिस-कचहरी के लफड़ों में पड़ने से अच्छा उन्होंने यही समझा कि चुप रहा जाए।
इस रेप-कांड की शिकार अधिकतर स्कूल और कॉलेज जाने वाली लड़कियाँ थीं। लोग कहते हैं कि इनमें से अधिकतर ने तो आत्महत्या कर ली। जब ये केस सामने आया था, तब अजमेर कई दिनों तक बन्द रहा था। लोग सड़क पर उतर गए थे और प्रदर्शन चालू हो गए थे। जानी हुई बात है कि आरोपितों में से अधिकतर समुदाय विशेष से थे और पीड़िताओं में सामान्यतः हिन्दू ही थीं।
Ajmer Rape Case, where 100s of Hindu girls were raped by Khadims of Ajmer. First, Police had stalled the case as local politicians warned action against the Accuse would lead to massive communal tension. Farooq Chishty, one of the main accused was also a Youth Congress Leader.
— Anshul Saxena (@AskAnshul) April 14, 2018
28 साल से केस चल रहा है। कई पीड़िताएँ अपने बयानों से भी मुकर गईं। कइयों की शादी हुई, बच्चे हुए, बच्चों के बच्चे हुए। 30 साल में आखिर क्या नहीं बदल जाता?
हमारी समाजिक संरचना को देखते हुए शायद ही ऐसा कहीं होता है कि कोई महिला अपने बेटे और गोद में पोते को रख कर 30 साल पहले ख़ुद पर हुए यूँ जुर्म की लड़ाई लड़ने के लिए अदालतों का चक्कर लगाए। शायद उन महिलाओं ने भी इस जुल्म को भूत मान कर नियति के आगोश में जाकर अपनी ज़िंदगी को जीना सीख लिया है और उनमें से अधिकतर अपने हँसते-खेलते परिवारों के बीच 30 साल पुरानी दास्तान को याद भी नहीं करना चाहतीं।
18 आरोपितों में से एक ने आत्महत्या कर ली। फारूक चिश्ती तब यूथ कॉन्ग्रेस का नेता हुआ करता था, जिसे मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित कर दिया गया। ऐसा नहीं है कि सुनवाई नहीं हुई। सेशन कोर्ट ने 1998 में 8 आरोपितों को आजीवन कारावास की सज़ा तो सुनाई लेकिन इसके 3 सालों बाद 2001 में राजस्थान हाईकोर्ट ने इनमें से 4 को बरी कर दिया।
2003 में सुप्रीम कोर्ट ने मोइजुल्लाह उर्फ पट्टन, इशरत अली, अनवर चिश्ती और शमशुद्दीन उर्फ मैराडोना की सज़ा ही कम कर डाली। इन सबको मात्र 10 वर्षों का कारावास मिला। इनमें से 6 के ख़िलाफ़ अभी भी मामला चल रहा है। सुहैल चिश्ती 2018 में शिकंजे में आया था। एक आरोपित अलमास महाराज फरार है, जिसके ख़िलाफ़ सीबीआई ने रेड कॉर्नर नोटिस तक जारी कर रखी है। लोगों का मानना है कि वो अमेरिका में हो सकता है।
2007 में मानसिक विक्षिप्त घोषित आरोपित फारूक चिश्ती को अजमेर की एक फ़ास्ट ट्रैक अदालत ने दोषी मान कर सज़ा सुनाई और राजस्थान हाईकोर्ट ने इस निर्णय को बरकरार भी रखा। लेकिन, हाईकोर्ट ने उसके द्वारा तब तक जेल में बिताई गई अवधि को ही सज़ा मान लिया। चिश्तियों में अभी सिर्फ़ सलीम और सुहैल ही जेल में है। इस मामले में 200 से भी अधिक पीड़िताएँ हैं लेकिन कुछ ने ही बयान दिया। अफसोस, इनमें से शायद ही कोई अपने बयान पर कायम रही हों।
संतोष गुप्ता अपना अनुभव बताते हुए कहते हैं कि शुरू से ही पुलिस का जोर दोषियों को सज़ा दिलाने पर कम और कथित रूप से पैदा होने वाली ‘क़ानून व्यवस्था के विपरीत स्थिति’ से निपटने की तैयारी में ज्यादा था। सामाजिक स्तर पर इस केस का एक बुरा असर ये पड़ा था कि अजमेर की लड़कियों की शादी कराने में काफी मशक्कतें करनी पड़ती थीं। लोग उनके चरित्र पर सवाल उठाते थे। पूरे शहर को एक ही नज़र से देखा जाने लगा था।
इस केस पर बाद में टीवी मीडिया पर शो से लेकर किताबें तक लिखी गईं लेकिन एक चीज जो आज तक कहीं नहीं दिखा, वो है- न्याय। अगर उस समय पुलिस ने इस केस में आरोपितों पर शिकंजा कसा होता तो शायद उन्हें फाँसी की सज़ा भी मिल सकती थी।
एक और चीज जानने लायक है कि उस समय पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री थे और कॉन्ग्रेस पार्टी के अध्यक्ष भी वही हुआ करते थे। पूरे 5 सालों तक उन्होंने सरकार और संगठन को चलाया था। फारूक चिश्ती इंडियन यूथ कॉन्ग्रेस के अजमेर यूनिट का अध्यक्ष था। नफीस चिश्ती कॉन्ग्रेस की अजमेर यूनिट का उपाध्यक्ष था। अनवर चिश्ती अजमेर में पार्टी का जॉइंट सेक्रेटरी था। ऐसे में ये कहा जा सकता है कि शक्तिशाली कॉन्ग्रेस पार्टी, उसकी तुष्टिकरण की नीति और आरोपितों का समाजिक व वित्तीय प्रभाव- इन सबने मिल कर न्याय की राह में रोड़े खड़े कर दिए थे।
अक्टूबर 1992 में एक पत्रकार मैदान सिंह की हत्या कर दी गई थी, जो अजमेर में ‘लहरों की बरखा’ नामक दैनिक पत्रिका का संचालन करते थे। हॉस्पिटल में घुस कर उन्हें मार डाला गया था। इस हत्याकांड के लिंक इसी सेक्स स्कैंडल से जुड़े थे। इससे पहले भी उन पर गोलीबारी हुई थी, जिसमें उन्होंने कॉन्ग्रेस के पूर्व विधायक डॉक्टर राजकुमार जयपाल को आरोपित बनाया था। इसके अलावा नेता के दोस्त सवाई सिंह को भी आरोपित बनाया गया था, जो अजमेर का लोकल माफिया था।
इन सबके बावजूद पुलिस ने उनके बयान को नज़रअंदाज़ किया और पत्रकार मैदान सिंह की हत्या कर दी गई। एक अन्य आरोपित नरेंद्र सिंह की गिरफ़्तारी के बाद ही पुलिस ने कॉन्ग्रेस नेता को गिरफ्तार किया। इसके पीछे पुलिस को एक बड़े राजनीतिक-आपराधिक गठजोड़ की बू आई थी।
1992, the Ajmer Rape Case was one of India’s biggest cases of coerced sexual exploitation. Farooq Chishty, one of the main accused who also happened to be a youth Congress leader, . Farooq Chishty was the president of the Ajmer Youth Congress and fr family of Khadims at Dargah pic.twitter.com/oj6KfhQgFp
— Sushma Singh (@SushmaAnand89) January 26, 2019
कहते हैं, ये रेप स्कैंडल किसी बड़े परिवार के एक लड़के और 9वीं कक्षा की एक लड़की के बीच प्रेम संबंध से शुरू हुआ था। लड़के के दोस्तों ने उन दोनों की अश्लील तस्वीरें निकाल ली थीं और लड़की को अपने दोस्तों से जान-पहचान कराने को कहा था। फिर तो इसका सिलसिला ही चल पड़ा। बाद में तो पुलिस ने भी माना कि उन्होंने जानबूझ कर खादिमों के विरुद्ध लीगल एक्शन नहीं लिया।
पुलिस को डर था कि इससे साम्प्रदायिक तनाव फैलेगा। इस स्कैंडल को सामने लाने वाले ‘नवज्योति’ के संपादक रहे दीनबंधु चौधरी ने कहा कि वो इसी उलझन में थे कि लड़कियों के खिलाफ हुए अत्याचार को तस्वीरों के जरिए बयाँ किया जाए या नहीं। फिर उन्होंने आगे बढ़ने का निश्चय किया और इन तस्वीरों के सामने आने के बाद ही प्रशासन की तंद्रा टूटी और वो भी तब, जब लोग सड़कों पर उतर आए।
मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत की सरकार ने जाँच के आदेश तो दिए लेकिन तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। कहा जाता है कि कॉन्ग्रेस नेता जयपाल का भी इस सेक्स स्कैंडल में हाथ था और पत्रकार मदन सिंह की हत्या भी इसी कारण हुई।
मदन सिंह इस पूरी घटना के तथ्यों का पर्दाफाश करने में लगे हुए थे। पुलिस ने इस हत्याकांड को गैंगवार का नतीजा करार दिया था। पुलिस ये मानने को तैयार ही नहीं थी कि इसका सेक्स स्कैंडल से कुछ लेना-देना हो सकता है। मदन और उनके भाइयों के आपराधिक इतिहास की बात करते हुए पुलिस ने दावा किया था कि पत्रकारिता उस परिवार के लिए एक कवर थी।
उस वक़्त अजमेर में 350 से भी अधिक पत्र-पत्रिका थी और इस सेक्स स्कैंडल के पीड़ितों का साथ देने के बजाए स्थानीय स्तर के कई मीडियाकर्मी उल्टा उनके परिवारों को ब्लैकमेल किया करते थे। आरोपितों को छोड़िए, इस पूरे मामले में समाज का कोई भी ऐसा प्रोफेशन शायद ही रहा हो, जिसने एकमत से इन पीड़िताओं के लिए आवाज़ उठाई हो।
आरोप यह भी है कि जिस लैब में फोटो निकाले गए, जिस टेक्नीशियन ने उसे प्रोसेस किया, जिन पत्रकारों को इसके बारे में पता था- उन सबने मिल कर अलग-अलग ब्लैकमेलिंग का धँधा चमकाया। पीड़ित लड़कियों और उनके परिवारों से सबने रकम ऐंठे। ऐसे में भला कोई न्याय की उम्मीद करे भी तो कैसे? कभी 29 पीड़ित महिलाओं ने बयान दिया था, आज गिन कर इनकी संख्या 2 है। सिस्टम ने हर तरफ से इन्हें तबाह किया।