बॉलीवुड का लोगों के जीवन और उनके सोच-विचार पर अच्छा-खासा असर पड़ता है। चाहे फ़िल्मी कलाकारों की नक़ल करना हो, उनके डायलॉग्स बोलना हो या फिर उनका ड्रेसिंग स्टाइल कॉपी करना हो- बॉलीवुड का समाज पर खासा प्रभाव है। आज जब बलात्कार के मामलों को लेकर देश आक्रोशित है, हम ये सोचने में लगे हैं कि किस मानसिकता के तहत ऐसे अपराधों को अंजाम दिया जाता है।
बलात्कार के मामले जब-जब सुर्ख़ियों में आते हैं, तब-तब हम इस पर हो रही राजनीति की निंदा करते हैं, लेकिन हमारे समाज में बलात्कार इतना सामान्य क्यों बना दिया गया है, इस बारे में हम नहीं सोचते। अगर समाज में बलात्कार आज दुर्भाग्य से इतना सामान्य बना दिया गया है, तो इसके पीछे बॉलीवुड द्वारा दिखाई गई सामग्रियों को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। बॉलीवुड ने पूरे 70 और 90 के दशक में ‘जिस्मी की गर्मी’ की धारणा के जरिए रेप का सामान्यीकरण किया।
जब भी कोई बलात्कार या इसके प्रयास या फिर किसी महिला को बुरी नज़र से देखता है तो फिल्मों में इसी धारणा का प्रयोग किया गया। बलात्कार जैसे घृणित अपराध को ‘जिस्म की गर्मी’ का नाम देकर इसे नॉर्मल बना दिया गया। ट्विटर हैंडल ‘जेम्स ऑफ बॉलीवुड’ ने कई वीडियो के जरिए बताया है कि कैसे बॉलीवुड में बड़ी-बड़ी फिल्मों में भी बलात्कार को एक सामान्य घटना बना कर रख दिया गया।
साथ ही इन फिल्मों में महिलाओं को भी एक ऑब्जेक्ट की तरह पेश किया गया। इसी तरह की एक फिल्म है ‘आ गले लग जा (1973)’, जिसमें शशि कपूर अस्वस्थ शर्मिला टैगोर को ठीक करने की कोशिश करते हैं, लेकिन जब कुछ भी काम नहीं आता है तो कपड़े उतारकर ‘जिस्म की गर्मी देते’ हैं। इसमें दिखाया जाता है कि ‘साथ में सो कर जिस्म की गर्मी ट्रांसफर की जा सकती है, जिससे उसकी जान बच सकती है।‘
इसके बाद शशि कपूर एक कम्बल डालते हैं और कपड़े उतार कर शर्मिला टैगोर के साथ सोते हैं और ‘प्यार’ करते हैं। यहाँ बड़े आराम से ”जिस्म की गर्मी’ के जरिए बलात्कार को ठीक बताने की कोशिश की गई है। बाद में शर्मिला टैगोर भी कहती हैं कि एक जान बचाने की कोई कीमत नहीं है, वो भी शशि की जगह रहती तो यही करती। इस तरह से बेहोश महिला के बलात्कार को फिल्म में सही ठहराया गया।
इसी तरह की एक फिल्म ‘बदले की आग (1982)’ में सुनील दत्त इसी तरह की एक परिस्थिति में पड़ते हैं। अभिनेत्री रीना रॉय को बुखार है और वो बेहोश होती हैं। जब बात नहीं बनती है तो वो अभिनेत्री के कपड़े उतार कर फेंक देते हैं और ‘जिस्म की गर्मी’ ट्रांसफर करते हैं। बाद में अभिनेता इसे सही ठहराता है और अभिनेत्री को भी इससे कोई समस्या नहीं होती है। यहाँ भी बलात्कार का महिमामंडन किया गया है।
Shashi Kapoor perhaps pioneered the rape-therapy aka Jism ki Garmi to save life. In Aa Gale Lag Jaa, 1973 he had no option but to impregnate Sharmila to save her from Sardi ki maut wali neend.
— Gems of Bollywood (@GemsOfBollywood) October 3, 2020
Sharmila Tagore is happy. Says – I would have also done the same. Medical Bollywood. pic.twitter.com/YKvCkngZtV
इसी तरह की फिल्म ‘गंगा यमुना सरस्वती (1988)’ की एक फिल्म में अमिताभ बच्चन का किरदार मीनाक्षी शेषाद्रि के किरदार का बलात्कार करते हैं और इसके लिए भी इसी बहाने के जरिए इसे ठीक ठहराने की कोशिश होती है। 1991 में आई अक्षय कुमार की ‘सौगंध’ में यही दिखाया गया है। बाद में गुस्से में अभिनेत्री को अक्षय का दोस्त कहता है कि उसने उसकी जान बचाने के लिए ऐसा किया और यहाँ भी इसे ठीक ठहराया गया है।
इसी तरह की एक फिल्म ‘बेनाम बादशाह’ में अनिल कपूर जूही चावला का रेप करते हैं। उसे 5000 रुपए दिए गए होते हैं, अभिनेत्री की शादी की रात ही बलात्कार करने के लिए। इसमें एक डायलॉग है, “दाग मिट सकता है, अगर दाग लगाने वाला सिंदूर लगा दे“, जिसके जरिए रेप को जस्टिफाई किया गया है। फिल्मों में यह सिलसिला लंबे समय से चलता आ रहा है।