भारत में हिन्दुओं के कई नरसंहार ऐसे हैं, जिनके बारे में हमें ही कुछ भी पता नहीं है। ऐसी ही एक घटना हिमाचल प्रदेश के चम्बा में हुई थी, जब हिज़्बुल मुजाहिद्दीन के आतंकियों ने 35 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया था। जो कहते हैं कि आतंकियों का कोई मजहब नहीं होता, उनके मुँह पर इन आतंकियों ने बार-बार तमाचा मारा है – हिन्दुओं को निशाना बना कर। हिमाचल के चम्बा में भी ऐसा ही कुछ हुआ था।
चम्बा जिले की सीमा जम्मू के डोडा से लगती थी। वहाँ अधिकतर हिन्दू ही थे, ऐसे में आतंकियों ने उस जगह को जानबूझ कर निशाना बनाया था। इस घटना में 11 लोग घायल भी हुए थे। सबसे बड़ी बात कि इस नरसंहार में मारे गए लोगों में अधिकतर गरीब मजदूर थे। लेकिन, उनका कसूर बस इतना था कि वो हिन्दू थे। गरीबों के हितों का दावा करने वाले एक्टिविस्ट्स और राजनीतिक दल इस पर बात नहीं करते।
आइए, शुरू से जानते हैं कि उस सोमवार (अगस्त 3, 1998) को हुआ क्या था। वो ऐसा समय था जब जम्मू कश्मीर में अशान्ति फैली रहती थी। सत्ता के ठेकेदार दिल्ली से लेकर श्रीनगर तक मलाई चापते रहते थे और जनता मरती रहती थी। आतंकियों के मंसूबे आसमान पर हुआ करते थे। लेकिन, हिमाचल प्रदेश शांत था। वहाँ इस तरह की ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी। लेकिन अगस्त 1998 के पहले हफ्ते में ही सब बदल गया।
आतंकियों ने उस दिन चम्बा जिले के दो अलग-अलग जगहों को निशाना बनाया था। दूसरा हमला रात के डेढ़ बजे सतरुंडी में हुआ रहा, जहाँ 6 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया और 3 घायल हुए। इससे पहले कालाबान में आतंकियों ने धावा बोला था। यहाँ 26 लोग गोलियों से भून डाले गए थे और 8 घायल हुए। दूसरी घटना भी एकदम तड़के हुई। सुबह जब हिमचाल के लोग सोकर उठे तो उनकी नींद इस खूनी खबर के साथ खुली।
आतंकियों ने ऐसी हिमाकत कैसे की, इसे समझने के लिए पहले हमें हिमाचल प्रदेश के चम्बा का भूगोल समझने की ज़रूरत है। ये वही जिला है, जहाँ ऐतिहासिक मिंजर और मणिमहेश मेला लगता आ रहा है। हमेशा मेले के समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता था और आतंकियों से निपटने के लिए विशेष व्यवस्था करनी होती थी। इस जिले की खासियत ये है कि इसके कुछ हिस्सों से जम्मू कश्मीर और पंजाब, दोनों राज्यों में पैदल ही पहुँचा जा सकता है।
मिंजर मेले का प्रभाव प्रदेश स्तरीय है, जबकि मणिमहेश इतना लोकप्रिय है कि इसमें देशभर से तीर्थ यात्री चंबा का रुख करते हैं। चम्बा-पठानकोट हाईवे पर तुन्नूहट्टी में सुरक्षा व्यवस्था का विशेष ध्यान रखना पड़ता है और वहाँ अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती करनी पड़ती है। अब आते हैं वापस 1998 के नरसंहार पर। दरअसल, जब हिमाचल के चम्बा में उस वक्त हिन्दुओं का नरसंहार हुआ था, तब वहाँ मिंजर मेला ही लगा हुआ था।
इसे आज भी लोग ‘खूनी मिंजर’ के नाम से जानते हैं। आज भी जब ये मेला लगता है तो लोग उस पल को याद कर ज़रूर काँप उठते हैं। मिंजर मेले में हमला करने वाले आतंकियों ने न सिर्फ हिन्दुओं को मारा और उन्हें घायल किया था, बल्कि कइयों को वो बँधक बना कर भी ले गए थे। कालाबान में भी ये आतंकी जम्मू कश्मीर के डोडा से ही घुसे थे। उनके पास ऑटोमेटिक हथियार थे। आतंकियों ने जैसे ही गरीब हिन्दू मजदूरों को सोते हुए देखा, फायरिंग शुरू कर दी।
दोनों जगह मरने वाले हिन्दुओं में अधिकतर मजदूर ही थे। कई ख़बरों में तो ऐसा भी बताया गया था कि आतंकियों ने उन हिन्दुओं को मारने से पहले उन्हें पेड़ से बाँध दिया था, उसके बाद उन्हें एक-एक कर गोलियों से भून डाला गया। सबसे बड़ी बात तो ये कि इतना सब कुछ हो गया और पुलिस-प्रशासन सोता रहा, सरकार सोती रही। इस घटना के 6 घंटे बाद पुलिस को इसके बारे में पता चला, जब दो घायल किसी तरह 8 किलोमीटर पहाड़ ट्रेक कर के मनसा पुलिस स्टेशन पहुँचे।
असल में आतंकियों के गुस्से का कारण वहाँ हो रहे कंस्ट्रक्शन के काम थे। आतंकी नहीं चाहते थे कि क्षेत्र का विकास हो, क्योंकि इससे दूरदराज के क्षेत्रों में लोगों की आवाजाही आसान हो जाती। वो लोग बैरागढ़-सतरुंडी रोड के निर्माण के कारण खफा थे, इसीलिए उन्होने इस नरसंहार को अंजाम दिया। आतंकियों ने उस क्षेत्र को एक तरह से अपना अड्डा ही बना रखा था और पंजाब व जम्मू कश्मीर में दबाव के कारण वो बर्फ पिघलते ही वहाँ जम जाते थे।
जब ये घटना हुई, तब जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री थे फ़ारूक़ अब्दुल्ला और हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार चल रही थी। जैसे ही ये घटना हुई, धूमल ने अपने समकक्ष अब्दुल्ला से बातचीत की और जॉइंट ऑपरेशन के जरिए आतंकियों के सफाए का ऑफर दिया। हालाँकि, अब्दुल्ला परिवार शुरू से आतंकियों और अलगाववादियों को लेकर नरम रुख दिखाता रहा है।
इसके बाद डोडा के भदरवाह में कैम्प कर रहे राष्ट्रीय राइफल्स के जवानों को आनन-फानन में हिमाचल प्रदेश पुलिस की मदद के लिए उन दुर्गम इलाक़ों में भेजा गया। राष्ट्रपति केआर नारायणन और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस घटना की निंदा की थी। राष्ट्रपति ने अपने शोक सन्देश में उम्मीद जताई थी कि प्रशासन इस निर्दयी नरसंहार को रोकने में सक्षम होगा और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए दोषियों को गिरफ्तार करेगा।
वहीं पीएम वाजपेयी ने भी सरकार व अधिकारियों को इस हमले के गुनहगारों से कठोरतम तरीके से निपटने का निर्देश जारी किया। इससे कुछ दिनों पहले ही अब हिमाचल प्रदेश के कुछ लोग बगल के डोडा जिले में जड़ी-बूटियों के लिए गए थे तो आतंकियों ने उनमें से 4 को मौत के घाट उतार दिया था। एक गुज्जर ने उनके मृत शरीर को देखा, जो वहीं पड़े हुए थे। इसके बाद पुलिस को सूचित किया गया था।
असल में दिक्कत ये थी कि जैसे ही बर्फ पिघलनी शुरू होती थी, चम्बा के लोग वहाँ से उतर कर मैदानी इलाक़ों में काम-धाम के लिए निकलते थे और उनके घर खाली रहते थे। जब पूरे क्षेत्र में अधिकतर घर खाली हो जाते थे तो जम्मू कश्मीर में केंद्रीय बलों से बचने के लिए आतंकी उन्हें अपना ठिकाना बना कर वहीं रहने लगते थे। जम्मू कश्मीर के आतंकी उन घरों को अपने ‘हाईडआउट्स’ के रूप में इस्तेमाल करते थे, ऐसा सीएम धूमल ने भी ध्यान दिलाया था।
इतिहास और भूगोल के बाद अब जरा वहाँ के समाज को समझ लेते हैं। दरअसल, इस नरसंहार के बाद गुज्जरों और गद्दियों में संघर्ष शरू हो गया था। उनमें तनाव पसर गया था क्योंकि गुज्जर संप्रदाय विशेष के थे और गद्दी हिन्दू। सरकार ने मजबूर होकर गुज्जरों को मैदानी इलाकों में पर उतारा, ताकि वहाँ शांति बनी रहे। उन्हें अपने जानवरों सहित नीचे उतारा गया। इसके एक साल बाद गुज्जर वापस चम्बा के ऊँचे इलाक़ों में लौटे थे।
Various Hindu temples have been attacked and a number of Hindus have been targeted by Muslim militants and the petitioner goes on to cite the instances of Chamba massacre of 1998, Raghunath Temple and Akshardham Temple attacks of 2002, Varanasi bombing of 2006 etc pic.twitter.com/4CDlpkTjGa
— Bar & Bench (@barandbench) March 15, 2019
वर्तमान में ‘नेटवर्क 18’के ग्रुप कंसल्टिंग एडिटर प्रवीण स्वामी ने तब ‘फ्रंटलाइन’ में इस तनाव पर लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने स्वीकार किया था कि हिन्दुओं ने कभी गुज्जरों (संप्रदाय विशेष) के खिलाफ हिंसा नहीं की लेकिन उनका आरोप था कि ये गुज्जर आतंकी हरकतों में भागीदार हैं और आतंकियों की मदद करते हैं। वो आतंकियों को अपने घर देते थे और भोजन-पानी की भी व्यवस्था करते थे। हिमाचल स्थित चम्बा में हिन्दुओं के नरसंहार मामले में जिन 6 लोगों को आतंकियों की मदद के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, वो सभी गुज्जर (संप्रदाय विशेष) थे।
इस घटना की चर्चा 17 सालों बाद कोर्ट में तब हुई थी, जब एक समाजिक कार्यकर्ता संगत सिंह चौहान ने संप्रदाय विशेष के सारे लोगों को पाकिस्तान भेजने के लिए याचिका दायर की थी और कुछ मजबूत पॉइंट्स भी दिए थे। उस दौरान इसकी चर्चा हुई थी कि किस तरह हिमाचल के चम्बा में हिंदुओं का नरसंहार करने वाले संप्रदाय विशेष के ही थे और वो हिन्दू मंदिरों को भी अक्सर निशान बनाते रहते हैं। हालाँकि, जस्टिस रोहिंटन ने इसे नकारते हुए पूछा था कि क्या वो सचमुच इसे लेकर गंभीरता से दलीलें पेश करना चाहते हैं?
उसी साल वंधामा में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। रविवार (जनवरी 25, 1998) की रात इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता, वंधामा (Wandhama Massacre) के 23 हिन्दू क़त्ल किए जा चुके थे। उन्हें बेरहमी से मारा गया था। कइयों के तो शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। लाशों को देख कर स्पष्ट पता चलता था कि ये कोई आम कत्लेआम नहीं है क्योंकि कातिलों के मन में हिन्दुओं के प्रति इतनी घृणा थी, जो क्षत-विक्षत लाशों को देख कर ही पता चल रहा था।