मैथिली में एक गीत के बोल हैं- कियै दुइये दिनक छुट्टी लऽ कऽ गाम एलियै… परेदस में रहने वाले पति को उलाहना देती एक विवाहिता के भावनाओं का दर्पण इस गीत को समझ लीजिए। पलायन के दर्द, चुहल और उलाहना से भरे ढेरों गीत आपको उत्तर प्रदेश-बिहार की लोकभाषाओं में मिल जाएँगे। ऊपर के गीत में विवाहिता परदेस में रहने वाले पति को लंबी छुट्टी लेकर घर नहीं आने पर उलाहना दे रही है। लेकिन, कोरोना वायरस संक्रमण के प्रसार पर काबू पाने के लिए देश भर में लॉकडाउन के ऐलान के बाद दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर हुआ जमावड़ा दो दिन की छुट्टी वाला मसला नहीं था। यह तो उस अनिश्चितिता से जुड़ा था जो कब खत्म होगा इसको लेकर मुकम्मल तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि अर्थव्यवस्था पर भी इसका असर होगा। रोजगार के लिहाज से कितना नुकसान होगा, खासकर श्रमिकों को इसका सटीक अनुमान लगाना पाना मुश्किल है। यानी, घर की ओर लौटने वाले इस हुजूम को यह नहीं पता था कि रोजगार के मोर्चे पर उसकी वापसी कब तक होगी।
नॉर्वे में चिकित्सक और गिरमिटिया मजदूरों पर आधारित किताब ‘कुली लाइन्स’ के लेखक प्रवीण झा कहते हैं, “लॉकडाउन या अन्य स्थिति में भी काम से छुट्टी होते ही घर लौटना पलायित वर्ग की प्रवृत्ति रही है। उनमें से अधिकतर लोग छुट्टियाँ घर पर ही मनाना चाहते हैं। यह ‘बासा से बाती’ तक जाने की प्रवृत्ति है। लॉकडाउन के बाद दिहाड़ी मजदूरों और प्राइवेट नौकरी करने वालों की छुट्टी हो गई। उनमें इसके कारण (कोरोना संक्रमण) के संज्ञान की कमी है। वे इसकी गंभीरता को नहीं समझते और उनके लिए यह छुट्टी जैसा ही है। लेकिन, ट्रेन-बस बंद होने की वजह से उन्हें पैदल ही झुंड में निकलना पड़ा, यह एक संकट बना।”
इस संकट ने यूपी-बिहार से पलायन को एक बार फिर राजनीतिक बहसों के केंद्र में खड़ा कर दिया है। ऐसा नहीं है कि पलायन केवल यूपी-बिहार से ही होता है या फिर यह नया चलन है। कुली लाइन्स को भी आप पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि गिरमिटिया बनकर केवल पूरबिए ही जहाजों में सवार नहीं हुए थे। दक्षिण से भी बड़ी तादाद में लोग गए थे। लॉकडाउन में ही आपने महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश, गुजरात से राजस्थान या अलग-अलग हिस्सों में पैदल, साइकिल, ठेला गाड़ी से लोगों के घर तक कूच करने की कई खबरें पढ़ी होंगी। वे तस्वीरें भी देखी होंगी जिसमें गुजरात से पैदल जाते राजस्थान के लोगों के लिए सड़क किनारे खाने की व्यवस्था करते खुद गुजरात के उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल दिख रहे थे। केरल में तो दिल्ली की तरह ही सैकड़ों की संख्या में प्रवासी घर जाने के लिए सड़क पर उतर आए थे। इनमें यूपी-बिहार के अलावा बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे राज्यों के भी श्रमिक थे। यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अन्य प्रदेशों में रह रहे अपने राज्य के लोगों की आवश्यकताओं का ध्यान रखने के लिए संबंधित राज्यों से आग्रह किया था। बकायदा अधिकारी इसके लिए तैनात किए गए थे। इसी तरह बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी हेल्पलाइन नंबर शुरू किए। राज्य के प्रवासियों की मदद के लिए डेस्क बनाए। बावजूद घर जाने के लिए एनसीआर से प्रवासी श्रमिकों का हुजूम यूपी बॉर्डर पर उमड़ पड़ा।
इसके कारणों की पड़ताल से पहले पलायन के हालात को समझते हैं।
पलायन क्या है, क्यों होता है?
अपने मूल जगह से दूसरे स्थान तक आवाजाही ही पलायन है। यह थोड़े समय के लिए और स्थायी भी हो सकता है। स्वैच्छिक के साथ मजबूरी में भी पलायन होता है। देश से बाहर, देश के एक राज्य से दूसरे राज्य, अपने ही राज्य में एक जिले से दूसरे जिले और खुद के जिले के भीतर भी लोग पलायन करते हैं। ग्रामीण इलाकों से शहरी इलाकों में बड़े पैमाने पर पलायन के कारण निम्न हैं,
- कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
- रोजगार के अवसर न होना
- क्षेत्रीय विकास में असमानता
- शैक्षणिक सुविधाओं की कमी
बेहतर इलाज के लिए भी लोग पलायन करते हैं, लेकिन यह अल्पकालिक ही होता है। इसके अलावा राजनीतिक हालात, जातीय-सामाजिक संघर्ष, धार्मिक उत्पीड़न, गृहयुद्ध जैसे हालात भी पलायन का कारण बनते हैं। हालॉंकि भारत, खासकर यूपी-बिहार जैसे राज्यों के संदर्भ में स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसरों का अभाव और शैक्षणिक सुविधाओं की कमी, इसकी दो मुख्य वजहें हैं। इन दोनों राज्यों से इलाज के लिए भी अल्पकालिक पलायन बड़े पैमाने पर होता है।
आँकड़ों में पलायन
भारत में पलायन की मौजूदा स्थिति का कोई आधिकारिक आँकड़ा नहीं है। इस संदर्भ में 2011 की जनगणना के आँकड़े एक तस्वीर पेश करते हैं। इसी आँकड़े, इकोनॉमिक सर्वे और एनएसएओ सर्वे के आधार पर विशेषज्ञ अनुमान लगाते हैं। हम यहॉं इसे 2011 के आधिकारिक आँकड़ों के आधार पर ही समझने की कोशिश करेंगे। इससे पता चलता है:
- देश की हिंदी पट्टी पलायन का प्रमुख केंद्र है। उत्तर प्रदेश और बिहार से लगभग 2,09,00,000 लोग पलायन कर देश के दूसरे राज्यों में गए। यह आँकड़ा देश में होने वाले एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन का 37 प्रतिशत था।
- देश के दो बड़े महानगरों दिल्ली और मुंबई की ओर पलायन करने वालों की कुल संख्या 99 लाख थी, जो वहॉं की आबादी का करीब एक तिहाई हिस्सा था।
- हिंदी पट्टी के चार प्रमुख राज्यों (उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश) की एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी थी।
- खुद के राज्य में भी पलायन करने वाले लोग 2001-2011 के बीच बढ़े। इसे कागजी भाषा में अंतर-जिला पलायन कहते हैं। 2001 की जनगणना में अंतर-जिला पलायन 30% था, जो 2011 की जनगणना में बढ़कर 58% हो गया।
- एक राज्य से दूसरे राज्य में पलायन करने वाले आधे लोगों का ठिकाना महाराष्ट्र, दिल्ली, गुजरात, उत्तर प्रदेश और हरियाणा थे।
- दूसरे प्रांतों से पलायन कर सबसे ज्यादा लोग महाराष्ट्र पहुँचे।
- खुद के राज्य के भीतर पलायन करने का आँकड़ा 2001 के 33% से बढ़कर 2011 में 55% हो गया था। एक ही राज्य के एक जिले से दूसरे जिले में पलायन का आँकड़ा 30% से बढ़कर 58% हो गया था।
- लोग राज्य के भीतर एक जिले से दूसरे जिले ही नहीं जा रहे थे। जिलों के भीतर भी पलायन हो रहा है। यह आँकड़ा 33% से बढ़कर 45% तक पहुँच गया था।
यानी घर के करीब अवसरों को प्राथमिकता देने का भी चलन बढ़ा है। इसका सबसे बड़ा कारण छुट्टी होते ही बासा से बाती तक लौटने की वही प्रवृत्ति है, जिसके बारे में प्रवीण झा इशारा करते हैं।
यहॉं यह याद रखना जरूरी है कि दशक भर में इन आँकड़ों में व्यापक तब्दीली आई होगी।
यूपी-बिहार से पलायन
2011 के आँकड़ों से एक दिलचस्प सूरत यह उभरती है कि पलायन कर दूसरे राज्य में जाने और दूसरे राज्यों से पलायन कर आने वाले लोगों का ठिकाना बनने, दोनों लिहाज से सूची में उत्तर प्रदेश ऊपर से है। बिहार के साथ ऐसी स्थिति नहीं होने के कारणों पर आगे गौर करेंगे। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि बिहार के छह जिलों (मधुबनी, दरभंगा, समस्तीपुर, सारण, पटना, सीवान) से सर्वाधिक पलायन होता है। यूपी में पलायन वाले शीर्ष 10 जिले हैं: देवरिया, गोरखपुर, आजमगढ़, बस्ती, गोंडा, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, जौनपुर और वाराणसी। इनके साथ ओडिशा के गंजम जिले को शामिल कर दें, तो देश में पलायन करने वाले 25 फीसदी पुरुष इन्हीं 17 जिलों से थे। जाहिर है जब लॉकडाउन हुआ तो सबसे ज्यादा मारामारी भी इन्हीं जिलों तक पहुॅंचने की थी। मोटे तौर पर कहें तो सड़क पर उतरे ज्यादातर प्रवासी पूर्वांचल के थे।
2018 के इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार सबसे अधिक पलायन वाले देश के 75 जिलों में 39 यूपी के हैं। इसमें 9 जिले उत्तराखंड के और 8 बिहार के हैं। इकोनॉमिक सर्वे के अनुसार, 1991-2001 के दशक में माइग्रेशन की दर 2.4% थी, जो 2001-11 के दशक में लगभग दोगुनी बढ़कर 4.5% पर पहुॅंच गई। अनुमानों के मुताबिक, हर साल 50 से 90 लाख लोग देश के भीतर पलायन करते हैं।
पलायन: अवसर या अभिशाप?
पलायन होता तो बेहतरी की तलाश में ही है। लेकिन, यह स्वैच्छिक कारणों और मजबूरी दोनों वजहों से होता है, इसलिए इस सवाल का जवाब तलाशना जरूरी हो जाता है कि यह अवसर है अथवा अभिशाप? जैसा कि प्रवीण झा ने बताया, “पलायन को अगर प्रवास कहें तो यह अवसर है। यह एक तथ्य है कि भारत के समृद्ध राज्यों (गुजरात और पंजाब) से प्रवास होता रहा है और विदेशी धन का संचार उन्हें समृद्ध करता रहा है। इसे विस्थापन में ‘पुल फैक्टर’ कहते हैं, जब आप बेहतर अवसर के लिए किसी स्थान पर जाते हैं। वहीं, पलायन शब्द संताप से जुड़ा है। इसमें ‘पुल फैक्टर’ से अधिक ‘पुश फैक्टर’ की भूमिका है। बिहार से अस्सी-नब्बे के दशक के पलायन में इसी फैक्टर की भूमिका है, जहाँ पलायन की वजह उद्योगों का बंद होना और जंगलराज रहा।”
बिहार: पलायन के जड़ में क्या है?
1812 में पटना की जनसंख्या करीब 3 लाख थी। कलकत्ता (यानी आज की कोलकाता) की 1.75 लाख। 1871 में पटना की जनसंख्या 1.6 लाख रह गई तो कलकत्ता की बढ़कर 4.5 लाख हो गई। पटना जैसा हाल ही भागलपुर और पूर्णिया का भी हुआ। इसका कारण था अंग्रेजों के राज में कलकत्ता में उद्योगों का फलना-फूलना और बिहार खासकर मिथिला के इलाके में देशी उद्योगों का दम तोड़ना। इसी तरह यूपी में कानपुर जैसे शहरों में उद्योग-धंधों ने जोर पकड़ा। नतीजतन, बिहार से पलायन इन शहरों की ओर तेज हुआ। कालांतर में कलकत्ता और कानपुर जैसे शहर के उद्योग भी उजड़ते गए। जिसकी परिणति आज हम दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद, गुड़गॉंव, सूरत, अहमदाबाद, मुंबई जैसे बड़े महानगरों में यूपी-बिहार के लोगों के इतने बड़े पैमाने पर पलायन के तौर पर देखते हैं। 2011 की जनगणना के आँकड़े भी इसकी गवाही देते हैं।
प्रवीण झा भी बताते हैं, “बिहार-यूपी से पलायन का इतिहास दो सौ वर्ष या उससे भी अधिक का है। इसमें ‘पुल-पुश फैक्टर’ के अतिरिक्त प्रवासी प्रवृत्ति भी है। मारवाड़ियों और पंजाबियों की तरह यह प्रवृत्ति बिहार-यूपी के किसान-मजदूर वर्ग में भी गिरमिटिया युग से ही रही है। इनकी बिदेसिया प्रवृत्ति है कि बाहर जा कर धन कमाओ और गाँव भेजो। यह उस वक्त भी होता था, जब बिहार-यूपी अपेक्षाकृत समृद्ध थे।” उनके अनुसार सामंतवादी व्यवस्था और कर्ज उतारने का दबाव भी इसका एक कारण रहा है। गंगा के दक्षिण के लोगों में प्रवासी प्रवृत्ति शुरू से रही है। वे कहते हैं, “यकीनन, आधुनिक समय में ‘पुश फैक्टर’ इसका बड़ा कारण है। लेकिन, इसके साथ एक और प्रवृत्ति देखी जा रही है, जिसे ‘इंटैगलमेंट’ कहते हैं। यानी, जंगलराज खत्म होने के बाद भी लोग वापस नहीं लौट रहे। इसकी वजह है उनका फँस जाना। वे बाहर नौकरी करने लगे, उनका परिवार अब बिहार लौटना नहीं चाहता और वे फँस चुके हैं।”
पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य और समाजशास्त्री नवल किशोर चौधरी इसकी वजहें सामाजिक और आर्थिक दोनों मानते हैं। उनके अनुसार बिहार से पलायन ने इन वजहों से जोर पकड़ा;
- 90 के दशक में बिहार ने जातीय हिंसा का भीषण दौर देखा है। प्रभावित इलाकों के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग वर्ग का सामूहिक पलायन हुआ।
- राज्य में उद्योग-धंधे एक-एक कर बंद होते गए और नए लगे नहीं। इससे न केवल रोजगार के नए अवसर ही पैदा नहीं हुए, बल्कि पहले से उपलब्ध अवसर भी समाप्त हो गए। इसने लोगों को बड़े पैमाने पर देश के दूसरे राज्यों में श्रमिक के तौर पर जाने के लिए मजबूर किया।
- सत्ता में बदलाव के बाद उपेक्षित वर्ग में इस भावना ने जोर पकड़ा कि महानगरों में जाकर मजदूरी कर लेंगे, लेकिन अपने गॉंव में नहीं करेंगे। हमारी सामाजिक सरंचना भी ऐसी है जिसमें स्थानीय स्तर पर जो काम करने में लोग लज्जा महसूस करते हैं, वही काम वे बाहर जाकर आराम से करते हैं। उनके मन में यह भाव होता है कि यहॉं उन्हें कोई देख नहीं रहा।
- पुश्तैनी धंधों के खात्मे ने भी श्रमिक के तौर पर पलायन के लिए लोगों को मजबूर किया। यह दो तरह से हुआ। मसलन, गॉंवों में नाई, लुहार, कुम्हार का जो काम कर रहे थे उनमें से एक वर्ग ऐसा था जो इस काम को आगे ले जाने को तैयार नहीं था। वह शहरों की ओर निकल गया। जो लोग पुश्तैनी धंधे से जुड़े रहना चाहते थे उनके लिए गॉंवों से अन्य वर्गों के पलायन के कारण रोजी-रोटी का संकट पैदा हो गया। धीरे-धीरे उन्होंने भी महानगरों की राह पकड़ ली।
- हर साल आने वाली बाढ़ और सुखाड़ ने भी ग्रामीण इलाकों से बड़े पैमाने पर निकलकर महानगरों में मजदूरी करने को लोगों को मजबूर किया।
आज आप गॉंवों में जाएँ तो पाएँगे कि पुरुष वे ही रह गए हैं जो वृद्ध हैं या कुछ भी करने में असमर्थ।
पटना विश्वविद्यालय में प्राध्यापक शंकर कुमार के अनुसार शिक्षा-व्यवस्था चौपट होने से भी राज्य से बाहर पलायन को गति मिली। उन्होंने बताया, “पहले पटना, दरभंगा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर जैसे शहर शिक्षा के बड़े केंद्र हुआ करते थे। ज्यादातर छात्र बेहतर शिक्षा के लिए इन्हीं शहरों में पहुॅंचते थे। उसके बाद कुछ बनारस या इलाहाबाद जैसे विश्वविद्यालयों में जाते थे। दिल्ली तो काफी कम छात्र ही जाया करते थे। लेकिन, 90 के दशक से इस चलन में बदलाव आना शुरू हुआ। आज बेहतर शिक्षा के लिए बाहर जाना ही एकमात्र विकल्प रह गया। यही कारण है कि अब गॉंव से निकलकर छात्र सीधे दिल्ली, कोटा या दक्षिण भारत के शहरों में जा रहे हैं।”
उन्होंने बताया कि शैक्षणिक व्यवस्था में गिरावट का अंदाजा आप पटना विश्वविद्यालय के हालात से लगा सकते हैं, जिसे कभी ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ कहा जाता था। बीते तीन-चार दशक में राज्य में नए स्तरीय संस्थान खड़े नहीं हुए हैं। जो पुराने संस्थान हैं उनकी प्रतिष्ठा अब वैसी नहीं रही। हालत यह है कि राज्य के ज्यादातर विश्वविद्यालय तीन साल में ग्रेजुएशन की डिग्री नहीं दे पाते। ऐसे में कोई छात्र अपना कीमती समय क्यों बर्बाद करना चाहेगा।
बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर इसकी एक वजह कानून-व्यवस्था की स्थिति को भी मानते हैं। उनके अनुसार गिरावट अस्सी के दशक से ही शुरू हो गई थी। लेकिन जिस दौर को हम जंगलराज के नाम से जानते हैं उसने पलायन को नई रफ्तार दी। वे कहते हैं, “कानून-व्यवस्था बिगड़ने के मतलब है कि उसका असर कृषि से लेकर व्यापार-उद्योग सब पर पड़ा। मजदूरों का तबका इन्हीं से जुड़ा होता है। डर से व्यापारी राज्य से निकले तो स्थानीय स्तर पर लोगों के रोजगार भी छिन गए। सुरक्षित जीवन की तलाश में आम लोग भी दूसरे राज्यों में निकल गए।”
उन्होंने बताया कि बिहार से पलायन की एक बड़ी वजह रेल भाड़ा सामान्यीकरण कानून भी है। आजादी के बाद केंद्र सरकार का बनाया यह कानून 90 के दशक में खत्म हुआ। इस कानून के तहत धनबाद से रॉंची कोयला की ढुलाई में जितना रेल किराया लगता था, उतने ही भाड़े में यह धनबाद से मद्रास भी पहुॅंच जाता था। इसने उद्योगपतियों को समुद्र किनारे कोयला आधारित उद्योग लगाने को प्रोत्साहित किया। सुरेंद्र किशोर कहते हैं, “यदि यह कानून अंग्रेजों के जमाने में होता तो टाटा नगर न होता। फिर टाटा बंबई जैसे शहरों में अपना उद्योग खड़ा करते। केंद्र सरकार की इस बेईमानी की वजह से बिहार को कम से कम 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। उद्योगों का राज्य में अपेक्षित विकास नहीं हुआ। न खेती का पंजाब की तरह विकास हुआ। आबादी बढ़ती गई। स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा नहीं हो रहे थे। ऐसे में पलायन होना ही था।”
उन्होंने बताया कि बिहार की सत्ता में नीतीश कुमार के आने के बाद स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन पूॅंजी निवेश नहीं हुआ। इसकी वजह प्रशासन पर उद्योगपतियों का विश्वास नहीं होना है। उन्हें यह भी डर रहता है कि यदि लालू फिर सत्ता में लौट गए तो दोबारा वैसे ही हालात पैदा हो जाएँगे। उनके अनुसार इन 15 सालों में पलायन में थोड़ी कमी आई है। राज्य में सत्ता परिवर्तन के बाद जब सड़कों का निर्माण बड़े पैमाने पर हुआ था तो कुछ साल के लिए पलायन के दर में कमी देखी गई थी। कुछ लोग राज्य में लौटे भी थे। नीतीश सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं से भी इसमें मदद मिली।
लेकिन, जिस अनुपात में आबादी बढ़ी, न यह उल्लेखनीय है और न ही इससे व्यापक असर पड़ा।
बिहार: वक़्त के साथ कितना बदला पलायन
जगदीश चंद्र झा ने Migration and Achievements of Maithil Pandits में लिखा है कि बेहतर अर्थ लाभ के लिए मैथिल हमेशा से देश के अन्य क्षेत्रों में जाते रहे हैं। हालॉंकि तब और अब के पलायन में एक मोटा फर्क है। तब लोग जड़ों की ओर लौटते वक्त अमूमन अपने साथ कृषि की नई तकनीक, स्वस्थ जीवन जीने के तरीके, घरेलू उद्योग लगाने के गुर सीख कर आते थे। इसकी वजह से पुराने वक्त में बिहार में पलायन के साथ उद्योग फल-फूल भी रहा था। मसलन, मधुबनी में मलमल, दुलालगंज में सस्ते कपड़ों और किशनगंज में कागज का उद्योग चला। दरभंगा हाथी दाँत से बने सामान का प्रमुख उत्पादन केंद्र बना। खगड़िया, किशनगंज जैसे इलाके पीतल, कांसे के बर्तन के लिए जाने जाते थे। भागलपुर सिल्क तो मुंगेर घोड़े की नाल, स्टोव, जूते के लिए प्रसिद्ध था। पूर्णिया सिंदूर उत्पादन और निर्यात के साथ टेंट हाउस के सामान बनाने के लिए प्रसिद्ध था।
इसके अलावा चीनी मिल, वस्त्र, जूट, तंबाकू, दाल मिल, आटा चक्की मिलें, तेल मिल वगैरह के साथ-साथ आजाद भारत में कई सार्वजनिक उपक्रम भी राज्य के अलग-अलग हिस्सों में लगे। निजी क्षेत्र में रोहतास इंडस्ट्रीज लिमिटेड (डालमिया नगर), अशोक पेपर मिल (दरभंगा), हिन्द इंजीनियरिंग कम्पनी (बरौनी) जैसे कई बड़े नाम थे। बरौनी में 1946 में खाद कारखाना स्थापित किया गया। फिर यहीं तेल शोधक कारखाना भी लगा। मुंगेर के जमालपुर में रेलवे वर्कशाप तो मोकामा में भारत वैगन एवं इंजीनियरिंग कम्पनी लिमिटेड शुरू किया गया। बिहार से अलग होकर बने झारखंड वाले हिस्से की पहचान ही उद्योगों और खनिजों से थी। अलग-अलग शहर अलग-अलग कामों के लिए जाने जाते थे। मसलन;
लाख उद्योग: गया, पूर्णिया
तेल मिल: पटना, मुंगेर, शाहाबाद
कागज व लुग्दी उद्योग: डालमिया नगर, समस्तीपुर, दरभंगा, पटना, बरौनी
प्लाईवुड: हाजीपुर
चमड़ा उद्योग: गया, दीघा, मोकामा
सीमेंट उद्योग: डालमिया नगर, खेलारी
तंबाकू उद्योग: मुंगेर, बक्सर, गया, आरा
शराब कारखाना: मुंगेर, पटना, मानपुर, पंचरूखी
शीशा उद्योग: पटना
बंदूक उद्योग: मुंगेर
बटन उद्योग: दलसिंहसराय
दियासलाई: कटिहार
कंबल उद्योग: गया, पूर्णिया, औरंगाबाद, मोतिहारी
बीड़ी उद्योग: बिहारशरीफ, झाझा, जमुई
हथकरघा उद्योग: मधुबनी, भागलपुर, बिहारशरीफ, गया, पटना, मुंगेर
बर्तन उद्योग: सीवान, बिहटा
इनमें से ज्यादातर उद्योग कृषि आधारित थे। इसकी वजह से किसानों के लिए खेती आज की तरह घाटे का सौदा नहीं थी। साथ ही मजबूरी में दूसरे राज्यों में पलायन ही एकमात्र विकल्प नहीं था।
जंगलराज से लेकर सुशासन तक वही पलायन
बिहार में संस्थानों में गिरावट का दौर 80 के दशक में ही शुरू हो गया था। 90 के दशक में लालू यादव सत्ता में आए। 15 साल तक प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर सत्ता की बागडोर उन्हीं के हाथों में रही। इस दौरान राज्य में कानून-व्यवस्था के हालात इतने बिगड़ गए कि उस दौर को आज भी ‘जंगलराज’ के तौर पर याद किया जाता है। बीते 15 साल से राज्य की सत्ता में नीतीश कुमार बने हुए हैं। अपने शुरुआती कार्यकाल के कामों के दम पर उन्होंने ‘सुशासन बाबू’ की छवि गढ़ी। बावजूद पलायन के मोर्चे पर कोई बड़ा बदलाव नहीं दिखता। इसकी वजह जानने के लिए हम दो क्षेत्रों पर नजर डालते हैं।
शैक्षणिक ढाँचा: एक स्कूल है नेतरहाट। कभी बिहार की शान हुआ करता था। अब झारखंड में है। नीतीश कुमार सत्ता में आए तो उन्होंने राज्य में नेतरहाट के मुकाबले का एक स्कूल तैयार करने का सपना देखा। 2010 में बड़ी घोषणाओं के साथ छठी से बारहवीं तक की पढ़ाई के लिए जमुई जिले की पहाड़ियों के मनोरम माहौल में सिमुलतला आवासीय विद्यालय की शुरुआत की। 10वीं और 12वीं के नतीजों के लिहाज से इस समय यह राज्य का अव्वल स्कूल है। लेकिन दशक भर के छोटे से सफर में ही गड़बड़ियों, उपेक्षा और घपलों का प्रतीक भी बन गया है। सिमुलतला का सफर बताता है कि संस्थान खड़ा करने के लिहाज से सुशासन भी फिसड्डी ही रहा है।
इस स्कूल के संस्थापक प्राचार्य रहे और अब पटना विश्वविद्यालय के प्राध्यापक शंकर कुमार बताते हैं कि शिक्षा के लिहाज से बिहार में 80 के दशक से पहले का समय गोल्डन पीरियड रहा है। अस्सी का दशक अपने साथ कैंपस में अराजकता और नेताओं का दखल लेकर आया। फिर कॉन्ग्रेस की वित्त रहित शिक्षा नीति ने बेड़ा गर्क कर दिया। इसने शिक्षकों को हर गलत काम में संलिप्त होकर धन और संसाधन जुटाने को मजबूर किया। यह धारणा बनी कि डिग्री बेचोगे तो पैसा आएगा। इससे शैक्षणिक गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आई।
उन्होंने बताया कि 90 में जब लालू आए तो उन्होंने शिक्षा क्षेत्र को उसके हाल पर छोड़ दिया। पतन का सिलसिला जारी रहा। परीक्षाओं में खुलेआम नकल होने लगी और शिक्षण संस्थान डिग्री बॉंटने के कारखाने बन गए। नीतीश कुमार अपने साथ शिक्षा के क्षेत्र में नियोजन लाए। वित्त रहित शिक्षा नीति विश्वविद्यालयों से निकल कर स्कूलों तक पहुॅंच गई। बकौल शंकर कुमार, “उन्होंने इंगेजमेंट पर फोकस रखा, लेकिन नॉलेज बेस्ड सिस्टम डेवलप करने पर ध्यान नहीं दिया। अच्छे लड़के कैंपस से दूर होते ही गए और अब हालत यह है कि 12वीं के बाद ही छात्रों का पलायन होने लगा है।”
असल में यह क्वालिटी ही थी जिसके कारण 80 के दशक तक बिहार से शिक्षा के क्षेत्र में नाम मात्र का पलायन देखने को मिलता था। पटना की छोड़िए हर इलाके में कोई न कोई प्रतिष्ठित कॉलेज था। मसलन, सीएम साइंस कॉलेज (दरभंगा), आरके कॉलेज (मधुबनी), जीडी कॉलेज (बेगूसराय), राजेंद्र कॉलेज (छपरा), कुंवर सिंह कॉलेज (आरा), मारवाड़ी कॉलेज (भागलपुर), लंगट सिंह कॉलेज (मुजफ्फरपुर), गया कॉलेज (गया), सेंट जेवियर्स (रॉंची), सेंट कोलंबस (हजारीबाग) वगैरह। पटना साइंस कॉलेज तो प्रेसिडेंसी कॉलेज के टक्कर का माना जाता था।
शंकर कुमार बताते हैं, “ये कॉलेज अच्छे लड़कों को अपने जिले में ही रोक देते थे। वे अच्छी शिक्षा के लिए बाहर जाने को मजबूर नहीं थे। आज हालत यह है कि कॉलेजों में सीट तो खाली नहीं है, लेकिन अच्छे लड़के कैंपस में नहीं आ रहे। अच्छे छात्रों का आना बंद हुआ तो शिक्षकों की गुणवत्ता में भी कमी आई और आखिर में पूरा सिस्टम ध्वस्त हो गया।”
वे बताते हैं कि बिहार में एजुकेशन हब बनने की भरपूर क्षमता है। आप दूसरे राज्यों के किसी भी अच्छे संस्थान में जाइए वहॉं पढ़ने और पढ़ाने वाले, दोनों बिहार के मिलेंगे। लेकिन लालू के जमाने में कानून-व्यवस्था खराब होने के कारण ऐसा नहीं हो पाया। नीतीश भी इसके लिए माहौल तैयार नहीं कर पाए। यदि ऐसा हो जाता तो न केवल पलायन रुकता, बल्कि रोजगार भी बड़े पैमाने पर पैदा होता। शिक्षा इंडस्ट्री ढेर सारे अप्रत्यक्ष रोजगार भी पैदा करता है। इससे शिक्षा के अलावा दूसरे क्षेत्रों में पलायन भी रुकता।
उन्होंने बताया, “हाल के सालों में कुछ निजी संस्थान राज्य में आए हैं। लेकिन वे या तो किसी औद्योगिक घराने से जुड़े हैं या नेताओं की उनमें भागीदारी है। बेहतर संस्थान खड़ा करने के लिए सबसे जरूरी चीज है उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप का न होना। अब तक का अनुभव बताता है कि ऐसा होने पर संस्थानों का लर्निंग आउटपुट बेहद खराब होता है।” इस लिहाज से नीतीश का 15 साल का कार्यकाल भी खरा नहीं उतरता। नतीजतन, पलायन में भी कमी नहीं आ सकी।
शंकर कुमार कहते हैं, “शिक्षा के क्षेत्र में पलायन रोकने की एक ही शर्त है क्वालिटी एजुकेशन का अवसर पैदा करना।” क्या बिहार में कभी यह मुख्य धारा की राजनीति का मुद्दा बन पाएगा। शंकर कुमार कहते हैं- शिक्षा क्षेत्र में असंतोष काफी है। बड़ा मुद्दा बनने की क्षमता भी है। लेकिन यह कब होगा, कैसे होगा यह बता पाना मुमकिन नहीं है।
असल में शंकर कुमार जैसे शिक्षकों की यही निराशा सुशासन की सफलता पर सवालिया निशान भी है और बिहार की प्रतिभाओं के पलायित होने की बेबसी का सच भी।
सामाजिक ढॉंचा: लालू राज के 15 साल और नीतीश कुमार के डेढ़ दशक के बीच क्या फर्क है? समाजशास्त्री नवल किशोर चौधरी के अनुसार एक के एजेंडे में विकास नहीं था तो संभावनाएँ खत्म हो गई। दूसरे के एजेंडे में विकास है, लेकिन विजन स्पष्ट नहीं होने के कारण अवसर पैदा नहीं हुए।
वे कहते हैं, “1990 में जब लालू सत्ता में आए तो उन्होंने खुलकर कहना शुरू किया कि विकास उनका एजेंडा नहीं है। उनका एजेंडा सोशल जस्टिस है। इससे विकास की दौड़ में राज्य करीब-करीब ठहर सा गया। नीतीश कुमार के आने के बाद से विकास की बातें तो खूब हुई है, लेकिन रोजगार के मौके पैदा नहीं हुए। सरकार के एजेंडे में विकास होना ही महत्वपूर्ण नहीं है। उसका मॉडल रोजगारपरक होने पर ही पलायन रुकता है।”
उन्होंने बताया कि लालू के आने के साथ एक खास वर्ग की उपेक्षा हुई। उनकी लगातार अनदेखी की गई। जातीय संघर्ष तेज हुआ। कृषि की स्थिति अच्छी नहीं रही। इससे जुड़े उद्योग एक-एक कर बंद होते गए, क्यूंकि यह सरकार की प्राथमिकता नहीं थी। इसने सभी वर्गों को राज्य से बाहर पलायन के लिए मजबूर किया। सत्ता में बदलाव से जो वर्ग उपेक्षित हुआ उस पर केवल सामाजिक असर ही नहीं हुआ। साइकोलॉजिकल और कल्चरल इफेक्ट भी दिखा। इसकी वजह से उपेक्षित वर्ग के गरीब गॉंव में काम करने को तैयार नहीं होते, लेकिन महानगरों में मजदूरी करते भी उन्हें संकोच नहीं होता। इसने भी पलायन को रफ्तार दी।
उन्होंने बताया सत्ता से लालू की विदाई के बाद से राज्य में उद्योग लगाने के नाम पर चर्चा खूब हुई है। पर जमीन पर कोई ठोस पहल नहीं की गई। उद्योगपतियों का कॉन्फ्रेंस कर निवेश नहीं लाया जा सकता। इसका सरकार की प्राथमिकता में होना जरूरी है। यह इन 15 सालों में भी नहीं दिखा है। विकास के नाम पर सड़कें, फ्लाईओवर, बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें जरूर बनी हैं। लेकिन ऐसे ज्यादातर काम बाहर के लोगों को दिए गए हैं। स्थानीय स्तर पर कंस्ट्रक्शन वर्कर के तौर पर कुछ लोगों को काम मिला है। इतनी बड़ी आबादी को राज्य के बाहर जाने से रोकने के लिए स्मॉल और मीडियम इंडस्ट्रीज का विकास जरूरी है, जो नहीं हो पाया। बकौल चौधरी- नीयत में खोट भले न दिखता हो पर नीतियों में खामियों की भरमार है।
शायद, पलायन की रफ़्तार पर ब्रेक लगाने में नीतीश कुमार की नाकामी की सबसे बड़ी वजह भी यही है।
पलायन मजबूरी तो लॉकडाउन में वापसी की मारामारी क्यों?
ऊपर के तथ्यों से आप समझ सकते हैं कि पूर्वांचल, खासकर बिहार से इतने बड़े पैमाने पर पलायन मजबूरी ही है। बावजूद इसके लॉकडाउन में घर लौटने की ऐसी मारामारी मची कि उस सोशल डिस्टेंसिंग का भी किसी को ख्याल नहीं रहा जो कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए सबसे कारगर उपाय माना जाता है। आखिर किस भरोसे सैकड़ों किलोमीटर दूर घर जाने के लिए लोग सड़कों पर आ गए, जबकि वे भलीभॉंति जानते थे कि ट्रेन, बसें सब बंद हैं।
असल में लॉकडाउन की घोषणा होते ही दिल्ली सहित तमाम बड़े शहरों में रह रहे प्रवासी मजदूरों के सामने पहला सवाल यह खड़ा हुआ कि काम नहीं मिला तो क्या करेंगे? क्या खाएँगे? कहॉं रहेंगे? यह भी नहीं कहा जा सकता था कि 21 दिन के बाद लॉकडाउन खत्म हो ही जाएगा और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो जाएगा। इसी उधेड़बुन ने प्रवासी मजदूरों की भीड़ दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर खड़ी कर दी। कुछ सैकड़ों किमी पैदल चलकर घर पहुॅंचे। कुछ रास्ते में रोक दिए गए। कुछ को आखिर में यूपी सरकार ने अपनी बसों से घर तक पहुॅंचाया।
धीरे-धीरे जब चीजें स्पष्ट होने लगी तो साफ हुआ कि इसके पीछे दो तरह की चीज़ें काम कर रही थी। एक, लॉकडाउन से पैदा हुई चुनौतियॉं। दूसरा, उन चुनौतियों की आड़ में अफवाहों को दी गई हवा। इसकी पुष्टि रामबाबू साह जैसों की आपबीती से भी होती है।
मधुबनी जिले के बेनीपट्टी प्रखंड के रहने वाले रामबाबू साह 2003 में दिल्ली आए। करोलबाग में एक कपड़ों की दुकान में काम करने लगे। कुछ साल बाद खुद का जींस के कपड़े बनाने का काम शुरू किया। धीरे-धीरे रामबाबू के परिवार और रिश्तेदारी में जो युवक थे उनमें ज्यादातर दिल्ली पहुॅंच गए। कोई दुकान में काम करने लगा तो कोई फैक्ट्री में। कुछ गार्ड बन गए, कुछ होटलों में लग गए, तो कुछ रामबाबू के साथ उनके धंधे में। आज रामबाबू अपने गॉंव के स्कूल में परिवार के छह लोगों के साथ कैद हैं।
रामबाबू ने फोन पर हुई बातचीत में बताया कि वे 23 लोग दिल्ली में एक ही जगह रह रहे थे। लॉकडाउन होते ही दुकानें, होटल, फैक्ट्री बंद हो गईं। उनलोगों के पास काम नहीं था तो सभी लोग उन्हीं कमरों में सिमटने को मजबूर हो गए, जिसमें इन सालों में कभी एक साथ नहीं रहे थे। उन्होंने बताया, “एक कमरे में हम पॉंच-छह लोग रहते थे। उसी में खाना भी बनाते थे। सबका ड्यूटी का टाइम अलग-अलग था तो कभी दिक्कत नहीं हुई। लेकिन लॉकडाउन के बाद जब सभी लोग कमरे पर आ गए तो मकान मालिक धमकाने लगा कि इतने लोगों को नहीं रहने देंगे। हमलोग राशन भी घर में जमाकर नहीं रखते थे। रोज खरीद कर लाते थे और बनाकर खाते थे। दुकान बंद होने से खाने-पीने का दिक्कत होने लगा। फिर हमें पता चला कि बाजार 21 दिन बाद नहीं खुलेगा। कम से कम दो-तीन महीना बंद रहेगा।”
मैंने उनसे सवाल किया कि बाजार दो-तीन महीने बंद रहने की बात उन्हें कैसे पता चली। उनका जवाब था, “सब यही कह रहा था। मकान मालिक से लेकर आसपास में जिसको हम जानते थे सब यही बोला।”
रामबाबू के अनुसार उनका साला ड्राइवर का काम करता था। बंदी होने से दो दिन पहले ही मालिक ने उसे छुट्टी दे दी और कहा कि गॉंव चले जाओ सब बंद होने वाला है। उन्होंने बताया कि 27 तारीख को वे सभी लोग पैदल ही करोलबाग से आनंद विहार के लिए निकले थे। मकान मालिक ने उन्हें बताया कि आनंद विहार से बस बिहार लेकर जा रही है। घर से निकलने के बाद इनलोगों को कोई सवारी नहीं मिली। कनाट प्लेस से उन्हें डीटीसी की एक बस मिली जिसने सबको आनंद विहार छोड़ दिया। यह पूछने पर कि रास्ते में किसी ने नहीं रोका कि लॉकडाउन में इतने लोग एक साथ कहॉं जा रहे हो? उनका जवाब था- नहीं। पुलिस की एक-दो जिप्सी गुजरी, लेकिन हमसे किसी ने कुछ नहीं पूछा।
रामबाबू ने बताया, “आनंद विहार पहुॅंचकर पता चला कि बिहार का कोई बस नहीं है। हम लोग आठ-दस घंटा वहीं रहे। फिर सोचे कि जब एक बार निकल गए हैं तो कैसे भी गॉंव पहुँच जाना है।” वे बताते हैं कि हाइवे होते हुए काफी दूर तक पैदल चलने के बाद उनलोगों को सवारी मिली थी। जैसे-तैसे कर 29 मार्च की शाम वे लोग मधुबनी पहुॅंचे। उन्होंने बताया, “मधुबनी से मेरे गॉंव का टेंपू वाला तीन-साढ़े तीन सौ रुपया लेता है। लेकिन, इस बार हर आदमी से हजार रुपया लिया। गॉंव पहुँचने पर भी हमको अपने घर नहीं जाने दिया गया। प्राइमरी स्कूल में रखा है। जितना भी आदमी बाहर से आया है सब स्कूल में ही है। हमको 14 दिन यहीं रहने के लिए कहा है। खाना मिलता है।”
मैंने पूछा कि क्या उनकी किसी तरह की जाँच हुई है? उनका जवाब था- नहीं। जिस दिन आए थे उस दिन खाली पूछा था कि सर्दी-बुखार तो नहीं है। यह पूछे जाने पर कि उनलोगों की निगरानी के लिए गॉंव के स्कूल में प्रशासन की तरफ से कोई व्यवस्था की गई है। जवाब मिला- दिनभर में एक बार चौकीदार आता है। लेकिन, गाम का लोग सब खुद से ही बहुत टाइट किए हुआ है। 24 घंटा नजर रखता है कि कोई बाहर नहीं आए। यह पूछे जाने पर कि दिल्ली सरकार की तरफ से प्रवासी श्रमिकों के खाने, रहने की व्यवस्था किए जाने की उन्हें जानकारी थी, तो रामबाबू ने कहा, “हमें नहीं पता था। लेकिन हमको खाने और पैसा-कौड़ी का दिक्कत नहीं था। मकान मालिक बहुत परेशान कर दिया था। दो-तीन महीना बाजार बंद रहता तो दिक्कत हो जाता। इसलिए बस का बात पता चलते ही सोचें कि गॉंव चले जाते हैं। काम-धंधा ज्यादा दिन भी बंद रहा तो उतना दिक्कत नहीं होगा।”
लॉकडाउन बढ़ने और यूपी बॉर्डर से बिहार के लिए बस चलने की जिस अफवाह का जिक्र रामबाबू कर रहे हैं उसमें दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार पर मिलीभगत के भी आरोप लग रहे हैं। 28 मार्च को यूपी सरकार ने भी कहा था कि घर पहुॅंचे लोगों ने बताया है कि उनके बिजली-पानी के कनेक्शन काट दिए गए। उन्हें भोजन और दूध नहीं मिल रहा था। मदद के नाम पर डीटीसी की बस में बिठाकर लोगों को यूपी बॉर्डर पर छोड़ दिया गया। इस बयान के अनुसार दिल्ली में अफवाह फैलाई गई कि यूपी बॉर्डर पर लोगों को गंतव्य तक ले जाने के लिए बसें खड़ी हैं। बॉर्डर पर भारी भीड़ जमा होने और लोगों के पैदल ही कूच करने की खबरों के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोगों को उनके घर तक पहुॅंचाने के लिए 1000 बसों का प्रबंध करने का निर्देश दिया था।
शुरुआत में योगी के इसी फैसले को बॉर्डर पर जुटी भीड़ के लिए जिम्मेदार ठहराने की कोशिश की गई थी। लेकिन, तथ्यों से साफ था कि यह फैसला बॉर्डर पर प्रवासियों की भीड़ के बाद किया गया था। बाद में दिल्ली सरकार ने भी दबी जुबान डीटीसी बसें चलाने की बात मानी। लेकिन, दावा किया कि इसकी जानकारी केंद्र सरकार को भी थी। शुरुआत में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोगों को गंतव्य तक पहुॅंचाने के फैसले पर यह कहते हुए आपत्ति जताई कि इससे लॉकडाउन का मकसद फेल हो जाएगा। बाद में उन्होंने राज्य की सीमा पर बाहर से आने वाले लोगों को कैंपों में क्वारंटाइन करने की बात कही। आखिर में सरकार ने बसों का प्रबंध कर लोगों को उनके गंतव्य तक पहुॅंचाया। इनमें ज्यादातर लोग अपने गॉंवों के स्कूल, पंचायत भवन, सामुदायिक भवन में रामबाबू और उनके साथ के लोगों की तरह ही रह रहे हैं।
पत्रकार व्यालोक पाठक की मानें तो यह अफवाह भी फैली कि गॉंव में सरकार ग्रामीणों के नाम लिख रही है, जिनको बाद में मुआवजा दिया जाएगा। जबकि सच्चाई यह थी कि गॉंव में भी आइसोलेशन और होम क्वारंटाइन में लोग रखे जा रहे थे और बाहर से आने वालों का नाम लिखा जा रहा था। उनके अनुसार कुछ लोगों ने यह भी बताया कि अभी अगर गॉंव नहीं गए तो तो पट्टीदार लोग जमीन पर कब्जा कर लेंगे। बटाई का काम नहीं मिलेगा।
दरभंगा के सिंहवाड़ा प्रखंड के रहने वाले शाह आलम की दिल्ली में चमड़े की जैकेट की दुकान है। नांगलोई के पास फैक्ट्री भी है। ठंड में उनके पास काफी काम होता है। उन्होंने बताया कि वे तीन भाई दिल्ली में रहते हैं। लेकिन, सितंबर में अपने इलाके से करीब ढाई-तीन सौ लोगों को लेकर दिल्ली आते हैं। इनमें कई उनके रिश्तेदार भी होते हैं। ये लोग हर साल मार्च के अंत में या अप्रैल के पहले हफ्ते तक अपने घर लौट जाते हैं। उन्होंने बताया कि लौटते वक्त वे सभी लोगों का हिसाब करते हैं। गॉंव से दिल्ली आने और फिर यहॉं से गॉंव जाने का खर्चा देते हैं। दिल्ली में रहने के दौरान इनलोगों के खाने और रहने की व्यवस्था करते हैं। ज्यादातर लोग उनकी दुकानों या फैक्ट्री में ही सोते हैं।
वे कहते हैं, “लॉकडाउन के कारण फैक्ट्री, दुकान बंद करना पड़ा। इतने लोगों को हम कहॉं रखते। इनके खाने की व्यवस्था कहॉं से करते। बाजार में सब कह रहा था कि अब दो-तीन महीना बंद ही रहेगा। हमारा काफी पेमेंट भी फॅंसा हुआ है।” उन्होंने बताया, “मेरे यहॉं काम करने वाले लोगों ने 22-23 मार्च से ही निकलना शुरू कर दिया था। अब सब घर पहुॅंच गया है, फोन पर हमारी सबसे बात हुई है। इस बार सबका पूरा पेमेंट भी नहीं कर पाए। कई लोग गॉंव से फोन किए हैं कि जो पैसा दिए थे वो घर पहुॅंचने में खर्च हो गया। अब हम कहॉं से पैसा भेजे हमारा खुद का पैसा बाजार में फॅंसा है और कब तक मिलेगा कुछ पता नहीं चल रहा।”
असल में दिल्ली में रहने वाले प्रवासी मजदूरों की एक सच्चाई यह भी है। एक बड़ा तबका जो होटल, दुकानों में काम करता है, काम की जगह ही सोता भी है। निर्माण उद्योग में लगे लोग जहॉं काम चलता है, वहीं झुग्गी डाल रहने लगते हैं। गार्ड का काम करने वाले कई लोग मिलकर एक छोटा सा कमरा ले लेते हैं और उसी में रहते हैं। काम चलते रहने से कभी उन्हें परेशानी नहीं होती थी, क्योंकि सबके काम का समय अलग-अलग था।
प्राइवेट सिक्योरिटी कंपनी में काम करने वाले रामचरण मिश्रा कहते हैं, “जिस कमरा में दो-तीन आदमी मुश्किल से रह सकता है, सोचिए उस में छह-सात आदमी जमा हो जाए तो क्या होगा। कहॉं लेटेगा और कहॉं खाना बनाएगा। एक-दो दिन का बात हो तो आदमी गुजर भी कर ले। अभी तो पता ही नहीं है कि ये सब कितना दिन चलेगा। जब बाजार खुलेगा तो कितना को काम मिलेगा। अकेले यहॉं मरने से बढ़िया है कि आदमी गॉंव चला जाए। कम से कम अपना आदमी तो पास रहेगा। हालत ठीक होगा तो फिर आ जाएगा कमाने। यहॉं फॅंसा रहेगा तो गॉंव में परिवार को भी चिंता ही लगा रहेगा।”
सीएसडीएस द्वारा 2017-19 के बीच किए गए ‘पॉलिटिक्स एंड सोसायटी बिटवीन इलेक्शंस’ सर्वे बताता है कि दिल्ली में रहने वाले 22 फीसदी प्रवासी मजदूरों की आय दो हजार, 32 फीसदी की दो से पॉंच हजार, 25 फीसदी की 5 से 10 हजार, 13 फीसदी की दस से 20 हजार रुपए है। 20 हजार से ज्यादा कमाने वाले श्रमिक केवल 8 फीसदी हैं। सीएसडीएस ने हालिया दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान एक सर्वे किया था। इसमें शामिल लोगों में से 20 फीसदी ने बताया कि उनकी मासिक आमदनी 10 हजार रुपए से कम है। इनमें भी सबसे ज्यादा लोग बिहार और यूपी के क्रमश: 33% और 27% थे।
जाहिर है कि आर्थिक सुरक्षा के लिए ही लोग अपना घर छोड़ दिल्ली-एनसीआर या देश के दूसरे में महानगरों में पहुॅंचते हैं। जब इस सुरक्षा के हटने का खतरा पैदा हो गया तो उन्होंने घर लौटने में भलाई समझी। लॉकडाउन बढ़ने और यूपी बॉर्डर से घर तक जाने के लिए बस की व्यवस्था किए जाने की अफवाहों ने इसमें घी का काम किया।
…तो क्या पलायन इस बार बन पाएगा चुनावी मुद्दा
तथ्यों से जाहिर है कि मजबूरी में पलायन बिहार के लिए कोई नई बात नहीं है। साल दर साल इसकी बढ़ती रफ्तार से लगता है कि लोगों ने इसे अपनी नियति मान समझौता कर लिया है। सो, इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी इसके निर्णायक मुद्दा बनने के आसार नहीं दिखते।
जैसा कि चौधरी कहते हैं, “राज्य की राजनीति के लिहाज से यह बहुत छोटा फैक्टर है। यहाँ दो महत्चपूर्ण फैक्टर हैं। पहला, राज्य की राजनीति में तीन महत्वपूर्ण ताकतें हैं बीजेपी, जदयू और राजद। इनमें से दो जिस तरफ होते हैं पलड़ा उधर झुक जाता है। तीनों अलग-अलग होते हैं तो बीजेपी को लाभ होता है, जैसा 2014 के लोकसभा चुनावों में हुआ था। लेकिन 2015 में जब जदयू और राजद मिल गई तो बीजेपी को हार मिली। 2019 के आम चुनावों में बीजेपी-जदयू साथ थी तो राजद के नेतृत्व वाले गठबंधन को हार मिली। दूसरा, जातीय और धार्मिक विभाजन। ये इतना प्रभावी है कि मतदान का वक़्त आते-आते सभी मुद्दे गौण हो जाते हैं।”
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर के मुताबिक विधानसभा चुनाव में पलायन कोई मुद्दा नहीं होगा, क्योंकि चुनाव एनडीए और लालू के बीच होगा। इस स्थिति में मुद्दा बन जाता है किसी तरह लालू को रोकना। लोगों में यह डर होता है कि लालू आ गए तो फिर 90 का जंगलराज आ जाएगा। इसलिए वे नीतीश सरकार की कमजोरियों को इग्नोर कर देते हैं। आप इसे बिहार के लोगों की मजबूरी भी मान सकते हैं।
ऐसे में बिहार के प्रवासियों के लिए गोस्वामी तुलसीदास का लिखा एक दोहा ही सत्य जान पड़ता है;
एक भरोसो एक बल एक आस बिस्वास।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास।
यानी, एक ही भरोसा है। एक ही बल है। एक ही आशा और एक ही विश्वास है। एक ही राम रूपी श्यामघन (मेघ) के लिए तुलसीदास चातक बना हुआ है।
बिहार की राजनीति पलायन रोकने के मोर्चे पर फिलहाल ऐसा भरोसा पैदा करती नहीं दिख रही। न बदलाव के नाम पर पुष्पम प्रिया जैसे प्रवासी पक्षी वह आशा और विश्वास पैदा कर पाते हैं कि पलायित वर्ग उनके लिए चातक बनने को तैयार हो जाएँ।