अयोध्या में राम जन्मभूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट का पिछले दिनों एक बड़ा फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अयोध्या मसले का समाधान मध्यस्थता से निकाला जाए। मध्यस्थता के लिए पूर्व जस्टिस कलीफुल्ला की अध्यक्षता में एक पैनल बनाया जाएगा। इस पैनल में श्री श्री रविशंकर, वरिष्ठ वकील श्रीराम पांचू होंगे। मध्यस्थता की प्रक्रिया फैज़ाबाद में होगी और यह पूरी तरह से गोपनीय होगी।
इस फैसले के क्या परिणाम होंगे? कुछ कहा नहीं जा सकता। अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। हालाँकि, अयोध्या मामले के इतिहास पर नज़र डाले तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला घड़ी को उल्टी दिशा में घुमाकर 30 साल पीछे ले जाता दिखता है। क्योंकि, इससे पहले ऐसी ही कोशिश 1990 में की गई थी। अंतर बस इतना है कि उस समय यह पहल केंद्र सरकार ने की थी और इस बार इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है।
सबसे पहले इस तरह की मध्यस्थता और बातचीत के पहल की शुरुआत 1986 में हुई थी। उस समय के काँची के शंकराचार्य और आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के प्रेसिडेंट मौलाना अबुल हसन नदवी ने नेगोशिएशन की शुरुआत की थी। पर मामला बन नहीं पाया।
इसके बाद एक बार फिर, 1990 में तब के प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने कोर्ट के बाहर कुछ अधिकारियों के साथ मिलकर इस मामले को सुलझाने का प्रयास किया था। इससे पहले कि वो कुछ कर पाते, उनकी सरकार गिर गई और चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने।
1991 में चंद्रशेखर ने भी, चंद्रास्वामी को मध्यस्थ बनाकर ऐसा ही प्रयास किया। उस समय चंद्रास्वामी ने दोनों पक्षों के साथ कई मीटिंग की, पर नतीजा शून्य रहा। उसके बाद गृह राज्य मंत्री सुबोध कान्त सहाय ने तीन मुख्यमंत्रियों मुलायम सिंह यादव, शरद पवार, भैरों सिंह शेखावत के नेतृत्व में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। लेकिन यह समिति इससे पहले कि अपना कोई प्रभाव छोड़ पाती उससे पहले ही संसद भंग हो गई।
कालांतर में, 1992 में पी वी नरसिम्हा राव ने फिर बात आगे बढाई। चंद्रास्वामी को फिर से कमान सौपी गई। इससे पहले कि बातचीत पटरी पर आती। विश्व हिन्दू परिषद् ने कार सेवा की अपील कर दी, जिसकी परिणति बाबरी विध्वंश के रूप में हुई। इसके बाद तो लम्बे समय तक दोनों पक्ष अपने-अपने दावों पर डटे रहें।
लम्बे अंतराल के बाद, एक बार फिर 2000-02 के बीच अटल बिहारी बाजपेयी ने पीएमओ में अलग से अयोध्या सेल बनाकर बात आगे बढ़ाई। विश्व हिन्दू परिषद् और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच कई दौर की बातचीत चली। इस बातचीत को आगे बढ़ने में एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी कुणाल किशोर की बड़ी भूमिका थी। लेकिन यह प्रयास भी विफल रहा।
इसके बाद आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को फिर से बातचीत के लिए 2002-2003 में अप्रोच किया काँची कामकोटी पीठ के नए शंकराचार्य ने। काँची के शंकराचार्य अपने प्रस्ताव के साथ लखनऊ में दारुल उलूम के साथ कई दौर की बातचीत की पहल की। प्रस्ताव के कई पॉइंट्स AIMPLB ने ख़ारिज कर दिए, फलस्वरूप वार्ता एक बार फिर बेपटरी हो गई।
इसके बाद मनमोहन सिंह सरकार अयोध्या के मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई। हालाँकि इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज पुलक बसु ने 2010 में एक सिग्नेचर अभियान चलाया और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मध्यस्थता अयोध्या के स्थानीय लोगों पर छोड़ देनी चाहिए।
तो कुल मिलाकर, जब भी अयोध्या के मुद्दे को वार्ता या मध्यस्थता से सुलझाने की कोशिश की गई नतीजा कोई खास उत्साहवर्धक नहीं रहा। खैर, इस बार मध्यस्थता की कमान ख़ुद सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में संभाली गई है। अब देखना यह है कि इस मध्यस्थता के क्या परिणाम सामने आते हैं?