“मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।” जब भी अहमद अली जैसे लोगों की कहानियों से रूबरू होता हूँ तो रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी द्वारा रचित ‘रश्मिरथी’ की ये पंक्तियाँ अनायास ही दिमाग में गूँज उठती हैं। भारत देश का एक सत्य यदि इसकी गरीबी, अशिक्षा और आज़ादी के वर्षों बाद भी अभाव में जीने वाली बड़ी जनसंख्या है, तो असम के रिक्शा चलाने वाले अहमद अली की कहानी भी इसका दूसरा सत्य है।
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि प्रेरणाहीन जीवन पशु के सामान होता है और हम सबके भीतर एक नायक हमेशा विद्यमान होता है, जरुरत बस उसे जगाने की होती है। सुबह उठकर रिक्शा चलाना और शाम को लकड़ियाँ काटना अहमद अली की दिनचर्या थी। लेकिन इस दिनचर्या के बीच ही अहमद अली को एक चिंता थी, जो उन्हें दिन-रात खटकती थी और वो थी बच्चों की पढ़ाई की।
बच्चों की शिक्षा निश्चित रूप से हर माँ-बाप की चिंता हो सकती है, लेकिन मेट्रो शहरों में- सुविधा के बीच बैठे व्यक्ति और असम के एक दूरस्थ इलाके में रहने वाले व्यक्ति की इस चिंता में पीढ़ियों, सदियों से चली आ रही सामजिक उपेक्षा और आर्थिक विपन्नता का फासला होता है। ज़ाहिर सी बात है कि जिस गाँव और कस्बे ने कभी स्कूल ही नहीं देखा और सुना हो, वहाँ का एक रिक्शा चलाने वाला अहमद अली यदि अपनी अगली पीढ़ी की शिक्षा और सम्मान को लेकर चिंतित है, तो वह अवश्य ही समाज के लिए एक बड़ी प्रेरणा का विषय बन जाता है।
अहमद अली के प्रयासों को देशभर में पहचान तब मिली, जब मार्च 2018 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने ‘मन की बात’ रेडियो प्रसारण के 42वें संस्करण के माध्यम से शिक्षा के लिए किए गए उनके योगदान को जनता के सामने रखा। प्रधानमंत्री ने अपने कार्यक्रम में अहमद अली के निःस्वार्थ सेवा भाव को बड़ी ही उत्सुकता के साथ लोगों के सामने पेश किया था।
वर्ष 1970 की बात है, जब अहमद अली को पहली बार अपने बच्चों की शिक्षा और उनके जीवन स्तर को लेकर चिंता हुई। कारण था कि वो नहीं चाहते थे कि उनकी आने वाली पीढ़ी भी उसी तंगी, बदहाली और अशिक्षा के अन्धकार के बीच अपना जीवन गुजार दे। इसलिए उन्होंने अपने प्रयासों से, मेहनत मजदूरी के साथ एक ऐसे सपने की दिशा में अहर्निश प्रयास किए, जिसकी वजह से वो सारे देशवासियों के लिए मिसाल बन गए।
असम के करीमगंज जिले के मधूरबंद गाँव के रहने वाले अहमद अली अपने रिक्शे में स्कूली बच्चों को लाने और ले जाने का काम करते थे। इसी बीच उनके मन में इस विचार ने जन्म लिया कि उनके बच्चे भी ऐसा जीवन जीने का अधिकार रखते हैं, जिसमें शिक्षा हो, शिष्टाचार हो और गरीबी ना हो।
अहमद अली का मानना है कि वो इस काम के लिए प्रधानमंत्री के शुक्रगुजार हैं कि उनके कार्य को आज देशभर में सराहना मिल रही है। पिछले 4 दशकों में अहमद अली ने अपनी कड़ी मेहनत से मधूरबंद और उसके आस-पास के इलाकों में 9 स्कूलों का निमार्ण कराया। जिसमें 3 प्राथमिक स्कूल, 5 माध्यमिक स्कूल और 1 हाई स्कूल शामिल है।
पहला स्कूल बनाने के लिए अहमद अली ने अपनी ही पुस्तैनी जमीन का एक टुकड़ा बेच दिया था और दूसरा हिस्सा स्कूल के लिए दान कर दिया था। स्कूल चलाने के लिए कुछ धन अहमद अली ने अपनी मेहनत, बचत और कुछ चंदे के रूप में जुटाया। अहमद का समर्पण भाव और उनकी लगन देखकर इस काम में बहुत से ऐसे स्थानीय लोग भी उनके साथ जुड़ गए थे, जिन्होंने उनके प्रयासों की सराहना की और जिस तरह से भी वो मदद कर सकते थे उन्होंने की।
ऐसे भी दिन थे जब स्कूल चलाने के लिए आर्थिक कमी के कारण अहमद अली ने दिन में रिक्शा चलाया और रात को लकड़ी बेचने का काम किया। उस पूरे इलाके में एक भी स्कूल नहीं था और जब अहमद अली को पहली संतान हुई तब उन्हें इस कार्य की प्रेरणा भी मिली। कुछ लड़के तो शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाहर के नजदीकी शहर चले भी जाते थे, लेकिन लड़कियाँ फिर भी स्कूल जाने से वंचित रह जाती थीं।
अहमद अली ने दृढ़ संकल्प किया और एक शिक्षा अधिकारी की मदद से वर्ष 1978 में माध्यमिक स्कूल का निर्माण किया। ये वो शिक्षा अधिकारी थे जिन्हें अहमद अली अक्सर अपने रिक्शा में बिठाकर ले जाया करते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब अहमद अली का ज़िक्र अपने ‘मन की बात’ रेडियो प्रसारण के माध्यम से किया, उसके बाद उन्हें समाज में अलग पहचान मिलनी शुरू हुई। नरेंद्र मोदी ने अपने प्रोग्राम में कहा था, “मुझे आपके पत्रों में पढ़ने को मिलता है कि कैसे असम के करीमगंज के एक रिक्शा-चालक अहमद अली ने अपनी इच्छाशक्ति के बल पर ग़रीब बच्चों के लिए 9 स्कूल बनवाए हैं, तब इस देश की अदम्य इच्छाशक्ति के दर्शन होते हैं।”
आज के समय में शिक्षा के लिए किए गए उनके प्रयास प्रेरणा बन चुके हैं। अहमद अली का मानना है कि यद्यपि वो स्वयं अशिक्षित हैं, लेकिन उन्होंने एक शिक्षित अशिक्षित व्यक्ति के बीच के फासले को महसूस किया है और इसी बात ने उन्हें दिशा देने का काम किया। वर्ष 1990 में यह एक हाईस्कूल में तब्दील हो चुका था, जिसमें प्रति वर्ष 100 से ज्यादा छात्र पढ़ रहे थे। लेकिन नई चुनौती अब हाईस्कूल के बाद बच्चों की शिक्षा को जारी रखना है।
82 साल के अहमद अली आज गुवाहाटी से करीब 300 किलोमीटर दूर एक गाँव में रह रहे हैं। आँकड़े चाहे कुछ भी कहें, भारत देश का एक बड़ा वर्ग अभी भी ऐसा है, जो आज भी शिक्षा, गरीबी और सामाजिक पिछड़ेपन में जी रहा है। इसके लिए हम चाहें तो शासन-प्रशासन की इच्छाशक्ति को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। लेकिन भारत देश में अहमद अली जैसी प्रेरणाएँ हैं, जो इस बात का उदाहरण हैं कि इस देश का नागरिक चुनौतियों से लड़ने का हौसला रखता है।
इस रविवार (फरवरी 24, 2019) को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात‘ प्रोग्राम का 53वाँ एपिसोड जारी किया। अपने इस कार्यकाल में नरेंद्र मोदी ने तमाम ऐसी पहल की हैं, जिनके माध्यम से देश के हर तबके को उनसे जुड़ने का मौका मिला। इस प्रोग्राम के माध्यम से जो सबसे बड़ा वर्ग सरकार में विश्वास करने लगा है, वह समाज का वो हिस्सा है, जो हमेशा उपेक्षित महसूस करता आया था।
विगत 5 वर्षों में हमने देखा कि मीडिया गिरोह ने अपनी भूमिका प्राइम टाइम से लेकर नई-पुरानी सड़कों तक, खूब सक्रियता से निभाई। मीडिया गिरोह ने सरकार की योजनाओं को गरीब और जरूरतमंदों तक पहुँचाने से बेहतर सरकार पर आए दिन मनगढंत आरोप लगाना समझा और इस कार्य में ही पूरा दम-खम लगा दिया। कभी असहिष्णुता के ‘हैशटैग’ चर्चा में उछाले गए तो कभी लोकतंत्र की हत्या को हवा देने का प्रयास किया गया। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सफल कार्यकाल का शायद यही सबसे बड़ा कारण है कि वो अपने ध्येय से ध्यान न हटाकर सदैव लोककल्याण के लिए समर्पित रहे।
इस सरकार से पहले तक सत्तापरस्त लोग राजशाही में इतने व्यस्त हुआ करते थे कि उन्हें इस वर्ग पर ध्यान देने की कभी फुर्सत नहीं हो पाई थी। शायद यही कारण है कि जब भी प्रधानमंत्री शोषित और पिछड़े वर्ग को सम्मान और पहचान दिलाने का कार्य करते हैं तो यह मीडिया गिरोह अपने आकाओं के साथ नरेंद्र मोदी पर टूट पड़ता है। चाहे नरेंद्र मोदी को विपक्ष कितना भी घेरने का प्रयास करे लेकिन सच्चाई यह है कि वह आज एक ‘स्टेट्समैन’ और जनता के नेता हैं और भविष्य की सरकारों के लिए, चाहे वो किसी की भी हों, एक मील का पत्थर हैं।