पिछले कुछ दिनों में राष्ट्रीय राजधानी में वायु प्रदूषण का स्तर काफ़ी बढ़ गया है। लगातार इस बढ़ते प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह पंजाब और आसपास के राज्यों में जलाई जाने वाली पराली है। दिल्ली में प्रदूषण का स्तर बढ़ने के मद्देनज़र दिल्ली सरकार ने स्कूलों और मोहल्ला क्लिनिकों में मुफ़्त मास्क बाँटने की घोषणा भी की।
दिल्ली-NCR में इस दम घोंटू वातावरण में ख़तरनाक स्तर पर पहुँचे प्रदूषण की वजह से वजह से दिल्ली में लगभग स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति है। पराली का धुआँ और धूल के महीन कणों की वजह से दिल्ली-NCR की हवा इस क़दर ज़हरीली हो गई है कि साँस लेना तक दूभर हो गया है।
हैरान कर देने वाले हैं हवा में घुले ज़हर के मामले
पंजाब में इस साल 23 सितंबर से 27 अक्टूबर के बीच पराली जलाने के 12,027 मामले रिकॉर्ड किए गए हैं, जो पिछले साल इसी दौरान पराली जलाने की घटनाओं से 2,427 ज्यादा हैं। वहीं, हरियाणा की बात करें तो इस साल 3,705 पराली जलाने के मामले रिकॉर्ड किए गए, जो पिछले साल 3,705 थे। इतना ही नहीं, पिछले 24 घंटे में ही पराली जलाने के 2,577 मामले रिकॉर्ड किए जा चुके हैं। इससे एक दिन पहले पराली जलाने के 1,654 मामले सामने आए थे। हालाँकि, अधिकारियों का कहना है कि धान की रोपाई जल्दी होने के कारण वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी हुई है। बता दें कि पराली जलाना भारतीय दंड संहिता और वायु प्रदूषण नियंत्रक क़ानून, 1981 के तहत एक अपराध है। बावजूद इसके पंजाब और हरियाणा में किसान पराली जलाने में पीछे नहीं हैं।
यह सारी दिक्कतें केवल इसलिए है क्योंकि हरियाणा और पंजाब जैसे समृद्ध राज्य फ़सलों की कटाई के बाद पराली जला देते हैं। बता दें कि इन समृद्ध राज्यों में फ़सलों की कटाई मशीनों से की जाती है। अब चूँकि फ़सलों की कटाई मशीन से की जाती है इसलिए फ़सल कटाई के दौरान मशीन बाली को ज़मीन से नहीं बल्कि ऊपर से काटती है। इससे होता यह है कि बाक़ी का हिस्सा खेत में ही बच जाता है, जिसे बाद में व्यर्थ हिस्से के रूप में जला दिया जाता है और फिर इसका परिणाम होता है यह दम घोंटू प्रदूषण।
बिहार में पराली जलाने की नौबत ही नहीं आती
इन सब बातों में ग़ौर करने वाली बात यह है कि एक ओर जहाँ यूपी, हरियाणा और पंजाब में पराली जलाने से प्रदूषण की समस्या सामने आती है, वहीं बिहार, झारखंड, असम, ओडिशा जैसे राज्य में पराली नहीं जलाई जाती। वहाँ के किसान अभी भी पुरानी पद्धति से ही फ़सलों की कटाई करते हैं। मतलब यह है कि फ़सल को काटते समय किसान फ़सल की बाली को ज़मीन से काटते हैं और इसलिए व्यर्थ हिस्से के रूप में कुछ बचता ही नहीं है। दूसरी अहम बात यह है कि बिहार में किसान वर्ग पराली का उपयोग मवेशियों के लिए चारे के रूप में भी करते हैं, इसलिए वहाँ पराली जलाने की नौबत ही नहीं आती।
Here comes the cattle part… previously, left over was consumed by cattle, reused as manure but coz of fertilizer presence, it sadly has lead to being out of that cycle(can’t poison cattle with fertilizer laced stubble)
— Lutyens’ Rasputin™ (@hujodaddy1) November 3, 2019
दरअसल, छोटे किसान हमेशा पौधे के हर हिस्से का उपयोग करते हैं क्योंकि यह उनके लिए किफ़ायती साबित होता है। बड़े खेतों के मालिकों के लिए किफ़ायती विकल्प कोई मायने नहीं रखते। लेकिन बिहार के किसान छोटी-छोटे विकल्पों का भी पूरा ध्यान रखते हैं। चारे के रूप में उपयोग किया जाने वाला भूसा उनके मवेशियों के लिए प्रमुख भोजन है।
मशीनीकरण इस जानलेवा धुएँ का कारण?
यह सच है कि मशीनों से फ़सलों की कटाई के दौरान ठूँठ से कहीं अधिक आकार का हिस्सा छूट जाता है, जिसे जलाना पड़ता है। वहीं, एक और बात ग़ौर करने वाली है कि अगर मशीनों से कटाई न भी हो तो हरियाणा और पंजाब में किसान गाय-भैंस कम पालते (ट्रैक्टर आधारित खेती) हैं, ऐसे में पराली के इस्तेमाल को कोई विकल्प नहीं रह जाता। इस वजह से वो व्यर्थ की वस्तु बनकर रह जाती है जिसे जलाना ही आर्थिक रूप से उनके हित में होता है।
सोशल मीडिया पर भी पराली जलाने का मुद्दा काफ़ी ज़ोर पकड़े हुए है। यहाँ कई यूज़र्स ऐसे हैं जो इस बात से इत्तेफाक़ रखते हैं कि बिहार में फ़सलों की कटाई के लिए आज भी पुरानी पद्धति का ही इस्तेमाल होता है। ट्विटर यूज़र राजू दास ने लिखा कि धान सभी जगह उगाया जाता है, लेकिन हर जगह पराली को जलाया नहीं जाता है। उदाहरण के लिए असम में केवल धान उगाया जाता है, गेहूँ या अन्य अनाज नहीं उगाया जाता। लेकिन, असम में पराली नहीं जलाई जाती।
Paddy is grown all over the country, but don’t thing stubble is burnt everywhere!!! For example only paddy is grown here in Assam, no wheat or other grains, but no burning takes place here!!!
— Raju Das | ৰাজু দাস (@rajudasonline) November 3, 2019
मशीनों के इस्तेमाल से परहेज नहीं, लेकिन हवा घुले ज़हर की रोकथाम पहले
कुल मिलाकर अगर कहा जाए कि दिल्ली-NCR में सफेद चादर के रूप में फैला दम घोंटू धुआँ मशीनी पद्धति की देन है, जिसके इस्तेमाल से आम जनजीवन दूभर बना हुआ है। हालाँकि, इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि हमें तकनीकों से परहेज कर लेना चाहिए।
लेकिन, जब मशीनों का इस्तेमाल जानलेवा बनने लगे तो उस पर गहनता से विचार ज़रूर कर लेना चाहिए। साथ ही यह भी निष्कर्ष निकालने का प्रयास करना चाहिए कि मशीनी युग अगर किसानों को खेती करने के सरलतम उपाय दे रहा है तो उसके उचित उपयोग पर भी ग़ौर कर लेना चाहिए, ताकि हवा में घुले इस ज़हर की रोकथाम की जा सके।