हाल ही में मैं 6 मार्च, 2022 को मेरे पति (जो कि किसी भी तरह से राजनीतिक नहीं हैं) और मैं विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ की विशेष स्क्रीनिंग के लिए गए थे। मैं झूठ नहीं बता रही, रास्ते में मैं यूँ ही अपने पति से इस बात पर चर्चा करने लगी कि कहीं इस फिल्म में भी कश्मीरी हिन्दुओं पर हुई क्रूरता को कमतर कर के तो नहीं दिखाया जाएगा? ठीक वैसे है, जैसा अन्य फिल्मों में किया जाता है।। मेरे मन में ये सवाल था कि क्या वे इस्लामी नारों ‘रालिव, त्सालिव, गैलिव (इस्लाम अपनाओ, भाग जाओ या मरने के लिए तैयार रहो) को दिखाएँगे?
मेरे मन में सवाल थे कि क्या वो मुस्लिम बहुल कश्मीर में काफिरों के खिलाफ नारेबाजी को दिखाएँगे? क्या महिलाओं भारतीय तिरंगे को फाड़ने वाले, हिन्दू महिलाओं का बलात्कार करने वाले और बच्चों की हत्या करने वाले इस्लामी कट्टरपंथियों की सच्ची को इस फिल्म में दिखाया जाएगा? क्या वो इस तथ्य को अपनी फिल्म में दिखाएँगे कि क्रूर इस्लामी कट्टरवादी कश्मीर को हिंदू मुक्त करना चाहते थे। लेकिन, वो चाहते थे कि हिन्दू महिलाएँ वही रह जाएँ, ताकि वो उन्हें अपना गुलाम बना सकें।
मेरा दिमाग इन सब चीजों को लेकर घूम ही रहा था कि हम सिनेमाघर में पहुँच गए। दरअसल, बंगाल छोड़ने के बाद मैं दिल्ली में नई हूँ। पिछले साल 2021 में वहाँ हुए विधानसभा चुनावों के राज्य में राजनीतिक हिंसा के बीच ममता बनर्जी ने सीआईडी के मामले में मुझे फँसाने की कोशिश की थी। इसके बाद ही मैं दिल्ली आ गई थी। इसलिए अभी भी मुझे इस शहर के यातायात के बारे में बहुत अधिक पता नहीं है। सिनेमा में हम आगे की सीट पर बैठे थे। मैंने फिल्म में कश्मीर की आजादी पर बात करते हुए बेहद अभिनेत्री एक्ट्रेस पल्लवी जोशी को देखा, जो अपने किरदार में बिल्कुल अरुंधती रॉय की तरह प्रतीत हो रही थीं।
‘द कश्मीर फाइल्स’ में एक्टर दर्शन कुमार एक युवा कश्मीरी छात्र की भूमिका निभा रहे होते हैं। वो इस फिल्म में एक वामपंथी प्रोफेसर (जिसका किरदार पल्लवी जोशी ने निभाया है) की प्रोपेगंडा भरी बातों से प्रभावित होते हैं, लेकिन अंततः उन्हें अपने लोगों के नरसंहार के इतिहास का पता चलता है।
सच कहूँ तो जब मैंने ऑपइंडिया ज्वाइन किया था, तब मेरा काम लिखना था और आज हम जो भी कर रहे हैं, वो हमारे कार्यों का ही परिणाम है, जिसके बारे में हमने सोचा भी नहीं था। जीवन को बनाए रखने के लिए हल्के मानसिक उन्माद के साथ-साथ थोड़ा क्रोध भी आवश्यक होता है। झूठ फैलाए जाने पर गुस्सा आता है। हिंदुओं के शवों पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता है। कट्टरपंथी इस्लामवादियों की हिंसा के सामने देश घुटने टेकने लगा है। वो लोग सड़कों पर उतरकर चिल्लाते हैं कि ‘गुस्ताख ए रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा’। हाँ, इसके लिए अंग्रेजी का ज्ञान, सच को जानने की भूख और जुनून होना चाहिए। इन सबसे बढ़कर गुस्सा होना चाहिए। ये वो गुस्सा है, जो हिन्दू धर्म और देश के प्रति आपके प्यार से निकला है और इस कार्य में आगे बढ़ने की प्रेरणा देते रहता है।
अगर इन कामों को करने में अगले कुछ सालों में मुझे लगे कि मेरा गुस्सा कम हो रहा है तो ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस गुस्से के लिए टॉप-अप का काम करेगा, जो कि इस आग को अगले कुछ और सालों तक जलाएगा। ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नहीं है, बल्कि वकालत करने वाले मेरे एक मित्र का भी यही विचार था। असल में ‘द कश्मीर फाइल्स’ देखने के कुछ दिनों बाद जब हम मिले तो वास्तव में इसने हमारे जुनून को ‘क्रोध का टॉप-अप’ किया।
फिल्मों की समीक्षा बहुत ही कठिन कार्य होती है। आप अपने पाठकों को इसके बारे में बताना तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें सब कुछ नहीं बताते हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की कहानी बहुत ही आसान है। इसमें कश्मीरी हिंदुओं की उस व्यथा को बताया गया है, जो कि उन्हें इस्लामी आतंकियों ने दिया था। यही उनका सच है। इसमें कश्मीरी हिंदुओं की खून से लथपथ कहानियों को कैम्पस की राजनीति से जोड़कर दिखाया गया है, जो आज हम देखते हैं। फिल्म में हिंदुओं के साथ हुई बर्बरता को काल्पनिक तौर पर चित्रित किया गया है। फिल्म में इस बात को बड़े ही जीवंत तरीके से दिखाया गया है कि किस तरह की चालाकी और धूर्तता के साथ युवा पुरुषों और महिलाओं ब्रेनवॉश कर उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि कश्मीर में किसी भी तरह का नरसंहार हुआ ही नहीं था। ऐसे ही बिना किसी कारण के हिंदू ये जगह छोड़कर चले गए। बीते 30 सालों से इसी कहानी को राजनेताओं के द्वारा दोहराया जा रहा है।
कश्मीरियों के साथ हुई बर्बरता की कहानी को फ्लैशबैक में समझाया गया है। जब आप सिनेमा में ‘द कश्मीर फाइल्स’ को देखेंगे तो आपको ऐसा महसूस होगा कि आप हिंदुओं के साथ हुए नरसंहार के साक्षी हैं। विवेक अग्निहोत्री ने एक दृश्य जम्मू-कश्मीर में पुलवामा जिले के शोपियाँ के पास नदीमर्ग गाँव का दिखाया गया है, जहाँ कट्टरपंथी इस्लामी आतंकी हिंदुओं को एक-एक कर प्वाइंट-ब्लैंक रेंज से गोली मार देते हैं। उस सीन के दौरान थिएटर में पिन-ड्रॉप साइलेंस होता है, एक-एक गोली चलने पर मैं अपनी सीट पर सिहर जाती थी। साल 2003 की वो कयामत की रात थी जब सेना की वर्दी में आए आतंकियों ने 24 हिंदुओं की बेरहमी से हत्या कर दी थी। एक आतंकी कहता है, ‘ये कर्णवुं चुप’ (बच्चे को चुप कराओ) और शिशु को गोली मार दी। ऐसे में मेरी बेटी की तस्वीर सहज ही मेरी आँखों के सामने आ गई और मैं फूट-फूट कर रोने लगी।
फिल्म में ऐसे ही एक और विजुअल्स आता है, जिसमें एक महिला को जबरदस्ती उसके पति के खून में सना चावल खाने को मजबूर किया जाता है। यह घटना साल 1990 की है, आतंकी बीके गंजू को तलाश करते हुए आए, लेकिन वो चावल की बोरी में छिप गए। इस्लामिक आतंकियों ने उन्हें कई गोलियाँ मारी और खून से सने उस चावल को उनकी पत्नी को खाने पर मजबूर किया। इसी तरह से गिरिजा टिक्कू की दिल दहला देने वाली कहानी को भी चित्रित किया गया है, जहाँ उनकी हत्या करने पहले बर्बर आतंकवादी कई दिनों तक गिरिजा टिक्कू का गैंगरेप करते हैं, उन्हें निर्वस्त्र करते हुए दिखाया जाता है।
फिल्म समाप्त हो गई, लेकिन करीब तीन मिनट तक हर व्यक्ति जैसे के तैसे बैठे रहे, वहाँ पर एकदम शांति छाई हुई थी। ऐसा इसलिए नहीं कि लोग टेक्नीशियन को उनके नामों को पढ़ने का सम्मान दे रहे थे। यह इसलिए हुआ क्योंकि इतने भयावह हालात देखने के बाद सभी को संभलने के लिए कम से कम 3 मिनट का समय चाहिए था और इन लोगों में से एक मैं भी थी।
इसके बाद जैसे ही दर्शक बाहर निकलने लगे तो हड़कंप मच गया। किसी को आश्चर्य हुआ होगा कि आखिर फिल्म क्रिटिक अनुपमा चोपड़ा ऐसी किस चीज से प्रेरित हुईं कि उन्होंने इसकी इतनी नीरस समीक्षा की। उन्होंने 1990 में हुए नरसंहार को भी नकार दिया।
अनुपमा चोपड़ा द्वारा की गई कश्मीर फाइल्स की समीक्षा
अपनी समीक्षा के दौरान अनुपमा चोपड़ा द्वारा फिल्म कश्मीर फाइल्स की 6 पैराग्राफ में समीक्षा रिपोर्ट को प्रकाशित किया, लेकिन उन्होंने इस बात को नकार दिया कि कश्मीर में कभी हिंदुओं का नरसंहार हुआ भी था। हिंदुओ के नरसंहार को सिरे से खारिज करते हुए अनुपमा फिल्म को प्रोपेगेंडा या इससे भी बदतर ‘संशोधित ड्रामा’ करार दिया। इसमें कहा गया, “फिल्म में बड़े पैमाने पर नरसंहार और पलायन को दिखाया गया है, जहाँ हर हिंदू एक दुःखी यहूदी है और हर मुस्लिम एक हत्यारा नाजी है।’ इसमें कहा गया है कि उत्पीड़न और प्रताड़ना की कहानी का नाटकीकरण करना कोई बड़ी समस्या नहीं है। इसे उकसाने और आज की असुरक्षा को देखते हुए डिजाइन करना बड़ी समस्या है। इसमें शिक्षा कम है और एक डिफेंसिव राजनीतिक बयान व फिल्म के तौर पर कमरे के अंदर की जाने वाली बहस अधिक है।”
फिल्म की समीक्षा में आगे लिखा गया है, “अगर मैं फिल्म के बारे में कही जा रही बातों को मान भी लूँ तो भी फिल्म निर्माण के दौरान वर्तमान माहौल से लाभ उठाने वाला कारनामा तो किया ही गया है – विस्थापित पीड़ितों के साथ सहानुभूति के बजाय हिंदू राष्ट्रवाद की वर्तमान लहर के साथ इसे जोड़ा गया है। वास्तविक जगह की समझ या जिज्ञासा को त्याग कर इस सिनेमा का लेखन केवल दो चरम तरीके से किया गया – शब्दों का जाल बुन कर और टॉर्चर पॉर्न (जहाँ घोर यातना ही कहानी का मूल हो) के जरिए।”
अनुमपा अपनी समीक्षा में कहती हैं कि उन्हें इस बात का यकीन ही नहीं होता है कि इस फिल्म से मुस्लिमों (जिन्हें खलनायक बनाया गया) को अधिक नाराज होना चाहिए या फिर हिंदुओं को जो ‘सांस्कृतिक शवों के रूप में खत्म हो गए’। फिल्म समीक्षक दावा करते हैं कि यह फिल्म निर्माता की ‘कलात्मक थ्योरी’ पर आधारित है।
समीक्षा को देखने से यह भी पता चलता है कि अनुपमा बड़ी ही चालाकी से इस्लामिक आतंकियों को विद्रोही साबित करना चाहती हैं। लेकिन मजबूरी में वो उन्हें आतंकी कहती हैं, ताकि उन्हें खारिज न किया जाय।
कश्मीर में हिंदुओं के अतीत के वैभव पर भाषण देकर जेएनयू के छात्रों का दिल जीतने वाले कैरेक्टर कृष्णा के बारे में लिखते हुए लेखिका लिखती हैं कि यह सच नहीं था, क्योंकि जेएनयू के छात्रों को 6 मिनट में हिंदुओं के नरसंहार के बारे में अहसास ही नहीं हो सकता था। औसत बुद्धिमता वाले जेएनयू छात्र के प्रवेश की लंबी प्रक्रिया है, लेकिन इस पर हम बाद में बात करेंगे।
अनुपमा चोपड़ा की कचरा समीक्षा को खारिज किया
समीक्षक ने इस बात का खुलासा किया है कि उनका उद्देश्य ये नहीं है कि 6 मिनट में जेएनयू के छात्र अपने विचारों को बदल दें। लेकिन इसका तथ्य यह है कि फिल्म में विवेक अग्निहोत्री ने 1990 में हुए केवल नरसंहार को ही नहीं, बल्कि पलायन को भी दिखाया है।
इतने घटिया तरीके से फिल्म की समीक्षा करने वाले एंटरटेनमेंट पत्रकारों के उज्वल भविष्य की कामना नहीं कर सकती। लेकिन शायद लेखक संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, लेखक को नरसंहार की परिभाषा को देखना चाहिए था।
नरसंहार को अनुच्छे 2 में परिभाषित किया गया है
जब कोई कार्य किसी राष्ट्रीय, जातीय, नस्लीय या धार्मिक समूह को पूरी तरह या आँशिक रूप से खत्म करने के इरादे से किया गया हो तो वो नरसंहार होता है। जैसे:
A: किसी समूह के सदस्यों की हत्या
B : समूह के सदस्यों को गंभीर शारीरिक या मानसिक क्षति पहुँचाना
C : जीवन की सामूहिक स्थितियों पर जानबूझकर थोपना, जो इसके पूर्ण या आंशिक रूप से भौतिक विनाश लाने के लिए गणना की गई है
D : समूह के भीतर जन्म को रोकने के उद्देश्य से उपाय करना
E : समूह के बच्चों को जबरन दूसरे समूह में स्थानांतरित करना।
अब सवाल है कि क्या यह लेखक का तर्क है यह था कि कश्मीरी आतंकवादी धार्मिक समूह के तौर पर कश्मीरी हिंदुओं को नष्ट करना चाहते थे?
यहाँ हम कुछ उन नारों के बारे में बताते हैं, जो कि 1990 में हिंदुओं की हत्या करते वक्त इस्लामिक आतंकियों ने लगाए थे:
- ‘ज़ालिमो, ओ काफिरों, हमारा कश्मीर छोड़ दो।’
- ‘कश्मीर में रहना है, अल्लाह-हो-अकबर कहना होगा।’
- ‘ला शर्किया ला घरबिया, इस्लामिया! इस्लामिया!’ (पूर्व से पश्चिम तक सिर्फ इस्लाम रहेगा)
- ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान’
- ‘पाकिस्तान से क्या रिश्ता? ला इलाहा-इल्लिल्लाह।’ (इस्लाम पाकिस्तान के साथ हमारे संबंधों को परिभाषित करता है)
- ‘कश्मीर बनावों पाकिस्तान, बटाव वारे, बटनेव सान।’
- (हम कश्मीरी पंडित महिलाओं के साथ कश्मीर को पाकिस्तान बना देंगे, लेकिन उनके पुरुषों नहीं)
अब सवाल ये है क्या लेखक अपने अंत:करण से यह कह सकती हैं कि ये मजहबी नारे कश्मीर के धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं थे? हिन्दू महिलाओं का रेप नरसंहार का हिस्सा नहीं है? एक पत्नी को उसके पति के खून से लथपथ चावल खिलाना उतना भयावह नहीं है? ये सब नरसंहार की श्रेणी में नहीं आता?
तैमूर के ‘गंदे डायपर पारखी’ के हिसाब से नरसंहार के लिए कोई खास बेंचमार्क है क्या? शायद उन नकली घृणा अपराधों में से एक जहाँ मुस्लिमों पुरुषों को ‘जय श्री राम’ कहने के लिए मजबूर किया गया? हम यह कभी नहीं जान पाएँगे।
अनुपमा, विधु विनोद चोपड़ा की पत्नी हैं औऱ खुद भी एक कश्मीरी हिंदू हैं। संभवतया चोपड़ा इस बात से नाराज हों कि कश्मीरी हिंदुओं पर आधारित उनके पति की प्रोपेगेंडा फिल्म ‘शिकारा’ बुरी तरह पिट गई, जिसमें इस्लामिक आतंकवाद और हिंदुओं के नरसंहार को व्हाइटवॉश करने की कोशिश की गई थी। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 30 साल पहले कश्मीर में हिंदू समुदाय के खिलाफ बर्बर इस्लामियों द्वारा की गई नग्न क्रूरता को दिखाती है। लेखक को लगता है कि यह मुस्लिम समुदाय को खलनायक मानता है, वह इस कदर घिसा-पिटा है कि वह शायद प्रतिक्रिया के लायक भी नहीं है।
‘द कश्मीर फाइल्स’ की इतनी घटिया समीक्षा करके अनुपमा चोपड़ा ने इस्लामिक आतंकवादियों के द्वारा हिंदुओं के बहाए गए खून आनंद लेना चुना है।
कश्मीर फाइल्स को देखने से यह पता चलता है कि स्वतंत्र फिल्म निर्माताओं के लिए यह बहुत ही बड़ा कदम है कि भले ही व्यवस्था आपके खिलाफ हो, लेकिन आप ऐसी फिल्में बना सकते हैं, जो मायने रखती हैं। खास बात यह है कि शायद यह मुख्यधारा की पहली कोशिश है, जिसमें कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार के साथ हुई बर्बरता के बारे में ईमानदारी से बताया है। यह फिल्म निर्माताओं को हिंदुओं के खिलाफ हुई बर्बरता को उजागर करने की हिम्मत प्रदान करेगा। मानव पीड़ा, नरसंहार या यातना और धर्मांतरण की अंतहीन कहानियों को फिल्मों के जरिए बताना चाहिए, क्योंकि लिखित शब्द दृश्य संकेतों से मेल नहीं खाता है। द कश्मीर फाइल्स एक ऐसा कदम है जो हमारी यादों में सदा के अंकित हो गया है। फिल्मी स्टार्स के बेबी के डायपर और अभिनेत्रियों के जिम फोटो की सैंपलिंग करने वालों से कुछ नहीं होता।