तारीख थी 31 जनवरी 1969। पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में एक द्वीप पर बसे हिंदू शरणार्थियों पर पुलिस ने फायरिंग की। इस घटना को हम मरीचझापी नरसंहार (Marichjhapi Massacre) के नाम से जानते हैं। आजाद भारत के इस सबसे भीषण नरसंहार में मार डाले गए हिंदू शरणार्थियों की संख्या को लेकर यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। इस नरसंहार की याद में बंगाल बीजेपी की ओर से मार्च किया गया है। मकसद उन असहाय शरणार्थियों को याद करना है जो वामपंथी शासनकाल में मार डाले गए।
মরিচঝাঁপি দিবসে নিহত সকল হিন্দুদের স্মরনে কুমিরমারীতে ‘মরিচঝাঁপি চলো’ জনসভাতে উপস্থিত আছেন রাজ্য সাধারণ সম্পাদিকা @paulagnimitra1, এসসি মোর্চার রাজ্য সভাপতি ডঃ সুদীপ দাস সহ বিজেপি বিধায়ক এবং কর্মীবৃন্দরা। pic.twitter.com/WLeBLZPWSM
— BJP Bengal (@BJP4Bengal) January 31, 2022
मरीचझापी में मार डाले गए हिंदू शरणार्थियों की संख्या सरकारी फाइलों में 10 बताई जाती है। अलग-अलग आकलनों में यह संख्या 10 हजार तक पहुँचती है। जो मारे गए उनमें ज्यादातर दलित (नामशूद्र) थे। जिनकी शह पर नरसंहार हुआ, वह दलितों के वोट से बंगाल में दशकों तक राज करने वाले वामपंथी थे। नरसंहार और उसे इतिहास के पन्नों से मिटा देने की साजिश को जिसकी मौन सहमति हासिल थी, वह कॉन्ग्रेस थी।
बंगाल में अपने तीन दशक के शासनकाल में वामपंथियों ने जो खूनी खौफ कायम किया था, उसका ही असर है कि करीब चार दशक पुरानी इस घटना का ज्यादा ब्यौरा नहीं मिलता। अमिताव घोष की किताब ‘द हंग्री टाइड्स’ की पृष्ठभूमि यही नरसंहार है। इसके अलावा आनंद बाजार पत्रिका और स्टेट्समैन जैसे उस समय के अखबारों में इस घटना का एकाध विवरण मिलता है। इसका सबसे खौफनाक और प्रमाणिक विवरण पत्रकार दीप हालदार की किताब ‘ब्लड आइलैंड (Blood Island: An Oral History of the Marichjhapi Massacre)’ में है। दीप ने इस नरसंहार में जीवित बच गए लोगों और इससे जुड़े अन्य किरदारों के मार्फत उस खौफनाक घटना का विवरण पेश किया है।
आप जानकर हैरत में रह जाएँगे कि वाम मोर्चे की सरकार ने जिनलोगों की हत्याएँ की उन्हें यहाँ बसने के लिए भी उसने ही प्रोत्साहित किया था। यह तब की बात है जब वामपंथी सत्ता में नहीं आए थे और हिंदू नामशूद्र शरणार्थी उन्हें अपना शुभेच्छु मानते थे। वामदलों की शह पर खासकर, राम चटर्जी जैसे नेताओं के कहने पर ये नामशूद्र शरणार्थी दंडकारण्य से आकर दलदली सुंदरबन डेल्टा के मरीचझापी द्वीप पर बसे। अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी सरकारी मदद के इस निर्जन द्वीप को रहने लायक बनाया। खेती शुरू की। मछली पकड़ने लगे। स्कूल, क्लीनिक तक खोल लिए।
नामशूद्र दलित हिंदुओं का यह समूह उस पलायन का एक छोटा सा हिस्सा था, जो बांग्लादेश में प्रताड़ित होने के बाद भारत के अलग-अलग हिस्सों में बसे। लेकिन, सत्ता में लौटने के बाद वामपंथियों को ये बोझ लगने लगे। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 1979 में मरीचझापी द्वीप पर बांग्लादेश से आए करीब 40,000 शरणार्थी थे। वन्य कानूनों का हवाला दे वामपंथी सरकार ने उन्हें खदेड़ने का कुचक्र रचा। 26 जनवरी को मरीचझापी में धारा 144 लागू कर दी गई। टापू को 100 मोटर बोटों ने घेर लिया। दवाई, खाद्यान्न सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी गई। पीने के पानी के एकमात्र स्रोत में जहर मिला दिया गया। पाँच दिन बाद 31 जनवरी 1979 को पुलिस फायरिंग में शरणार्थियों का बेरहमी से नरसंहार हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों का अनुमान है कि इस दौरान 1000 से ज्यादा लोग मारे गए। लेकिन, सरकारी फाइल में केवल दो मौत दर्ज की गई।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार उच्च न्यायालय के आदेश पर 15 दिन बाद रसद आपूर्ति की अनुमति लेकर एक टीम यहाँ गई थी। इसमें जाने-माने कवि ज्योतिर्मय दत्त भी थे। दत्त के अनुसार उन्होंने भूख से मरे 17 व्यक्तियों की लाशें देखीं। 31 जनवरी की फायरिंग के बाद भी करीब 30,000 शरणार्थी मरीचझापी में बचे हुए थे। मई 1979 में इन्हें खदेड़ने पुलिस के साथ वामपंथी कैडर भी पहुॅंचे। 14-16 मई के बीच जनवरी से भी भीषण कत्लेआम का दौर चला। ‘ब्लड आइलैंड’ में इस घटना का बेहद दर्दनाक विवरण दिया गया है। मकान और दुकानें जलाई गईं, महिलाओं के बलात्कार हुए, सैंकड़ों हत्याएँ कर लाशों को पानी में फेंक दिया गया। जो बच गए उन्हें ट्रकों में जबरन भर दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया।
किताब में एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से कहा गया है, “14-16 मई 1979 के बीच आजाद भारत में मानवाधिकारों का सबसे खौफनाक उल्लंघन किया गया। पश्चिम बंगाल की सरकार ने जबरन 10 हजार से ज्यादा लोगों को द्वीप से खदेड़ दिया। बलात्कार, हत्याएँ और यहाँ तक की जहर देकर लोगों को मारा गया। समंदर में लाशें दफन कर दी गईं। कम से कम 7000 हजार मर्द, महिलाएँ और बच्चे मारे गए।” इस किताब में मनोरंजन व्यापारी के हवाले से बताया गया है कि लाशें जंगल के भीतरी इलाकों में भी फेंके गए और सुंदरबन के बाघों को इंसानी गोश्त की लत गई। दलित लेखक व्यापारी फिलहाल उस तृणमूल कॉन्ग्रेस से विधायक हैं, जिसके समर्थकों पर बंगाल में विधानसभा चुनाव के बाद विरोधियों खासकर बीजेपी समर्थकों को निशाना बनाने के आरोप हैं।