Sunday, September 8, 2024
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क्रूस चौक, चर्च, साहेब का कोना, ईसाइयों का मेला… जब ‘हिंसक हिंदू’ अल्पसंख्यक हो जाएँगे तो भारत का हर गाँव होगा खड़कोना, रमेश राम बोल भी नहीं पाएँगे

देश के जिस भी हिस्से (गाँव/शहर/प्रांत) में हिंदू अल्पसंख्यक हुए हैं, वहाँ न केवल उनका जीवन दूभर हुआ है, बल्कि उनके प्रतीक तक मिटा दिए गए हैं। उन्हें न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, न अपने धार्मिक आयोजन और परंपराओं का निवर्हन करने की।

आपने शायद खड़कोना या कोरकोटोली का नाम न सुना हो। ये छत्तीसगढ़ राज्य के जशपुर जिले के दो गाँव हैं। मैं यहाँ गया हूँ। आप पूछ सकते हैं कि जिस देश में करीब 6.5 लाख गाँव हैं, उनमें से किन्हीं दो का नाम लेकर मैं क्या बताना चाहता हूँ? आप ये भी पूछ सकते हैं कि इन दोनों गाँवों के बारे में आपको क्यों जानना चाहिए?

पिछले दिनों इलाहबाद हाई कोर्ट ने हिंदुओं का धर्मांतरण रोकने को कहते हुए कहा है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन बहुसंख्यक (हिंदू) अल्पसंख्यक हो जाएँगे। हाई कोर्ट उन्हीं हिंदुओं पर आए खतरे से सचेत कर रहा है, जिन्हें लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष राहुल गाँधी ने सदन के भीतर ‘हिंसक’ बताया है। हाई कोर्ट ने जिस मामले में यह टिप्पणी की उसमें कैलाश नाम का एक व्यक्ति अपने गाँव के लोगों को दिल्ली की ‘कल्याण सभा’ में ले गया था। यह सभा असल में हिंदुओं को लालच देकर उन्हें ईसाई बनाने का एक उपक्रम था।

खड़कोना या कोरकोटोली बताते हैं कि कैसे इसी तरह के उपक्रम से पहले हिंदुओं को धर्मांतरित किया जाता है। फिर जब धर्मांतरित लोग अपने गाँव में बहुसंख्यक हो जाते हैं तो उनके गाँव की पहचान बदली जाती है और अल्पसंख्यक हो चुके हिंदुओं का जीवन कठिन बना दिया जाता है।

पहाड़ और जंगलों से घिरे खड़कोना और कोरकोटोली में मैं सितंबर 2022 में गया था। खड़कोना में आज 39 घर हैं। इनमें से हिंदुओं के केवल 5 घर ही बचे हैं। वहीं कोरकोटोली में 35 घर हैं। इनमें से केवल 7 परिवार अब हिंदू है। इन गाँवों की डेमोग्राफी बदलने का सिलसिला 1906 में ही शुरू हो गया था। खड़कोना के चर्च परिसर में लगा एक शिलापट्ट बताता है कि इन दोनों गाँवों के लोगों का पहली बार धर्मांतरण 21 नवंबर 1906 को हुआ था। उस तारीख को जिन 56 लोगों का बपतिस्मा हुआ था, उन सभी के नाम इस शिलापट्ट पर अंकित हैं। यह ​शिलापट्ट हिंदुओं के धर्मांतरण के 100 साल पूरे होने पर लगाया गया था।

खड़कोना और कोरकोटोली में हिंदुओं को अल्पसंख्यक बनाने की यात्रा ईसाई मिशनरियों ने तब भी पूरी कर ली है, जब पहली बार उन्हें इस जगह से खदेड़ दिया गया था। जिनलोगों को उस समय धर्मांतरित किया गया था, उनकी घर वापसी करवा दी गई थी। लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पहली बार धर्मांतरण कराने के लिए इस गाँव में आया पादरी जिस जगह से जान बचाकर भागा था, वह जगह अब ईसाइयों के लिए ‘तीर्थ स्थल’ बन चुका है। इसे ‘साहेब का कोना’ कहते हैं। हर साल 29 नवंबर को यहाँ एक विशाल आयोजन होता है, जिसमें एक-डेढ़ लाख ईसाई जुटते हैं।

इसी ‘साहेब का कोना’ के पास हमें 65 वर्षीय कलाबेल मिले थे। कलाबेल के पूर्वज भी धर्मांतरित हुए थे। उनके अनुसार ईसाई मिशनरियों से उनके पूर्वजों को फायदा हुआ था, लेकिन उनलोगों को अब कोई लाभ नहीं मिल रहा। बावजूद वे बड़े गर्व से हमें ‘साहेब का कोना’ की कहानी सुना रहे थे। उन्होंने कहा, “साहेब लोग पहाड़ के रास्ते उधर से (आज के झारखंड से) आते थे। इसी जगह पर डेरा लगाते थे। गाँव के लोगों को यहीं बुलाते थे। पहले यहाँ पूरा जंगल था। अब हर साल यहाँ तीर्थ यात्रा लगता है।”

आपको यह जानकर भी आश्चर्य होगा कि इस जगह से हमें भागना पड़ा था, क्योंकि हम धर्मांतरण को लेकर बात कर रहे थे। वैसे खड़कोना की बदली डेमोग्राफी की मुनादी इस गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर आपकी गाड़ी के मुड़ते ही होने लगती है। मुख्य सड़क से खड़कोना जाने का रास्ता 7.3 किलोमीटर लंबा है। खेतों और जंगल से घिरा है। दूर पहाड़ नजर आता है। रास्ते में ही सड़क किनारे चर्च बनी है। पूरे रास्ते जगह-जगह सड़क किनारे लकड़ी के बड़े-बड़े क्रॉस गड़े हैं। खड़कोना में प्रवेश करते ही ‘क्रुस चौक’ है। इसी चौक के करीब एक चर्च बना हुआ है जिसके परिसर में वह शिलापट्ट लगा है जिस पर पहली बार धर्मांतरित हुए लोगों के नाम का उल्लेख है।

इन गाँवों में रहने वाले हिंदुओं को अभिव्यक्ति की आजादी तक नहीं है। 25 साल के रमेश राम खड़कोना के बचे खुदे हिंदू लोगों में से एक हैं। वे अपनी परेशानियों के बारे में हमसे बात कर रहे थे, तभी धर्म बदल चुके ग्रामीण वहाँ जुट गए। उन्होंने हमें रमेश से बात नहीं करने दी। उलटे हमसे सवाल-जवाब करने लगे।

खड़कोना या कोरकोटोली केवल गाँव नहीं हैं। ये वो सच्चाई हैं जिससे हिंदू शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छिपा बच नहीं सकता है। देश के जिस भी हिस्से (गाँव/शहर/प्रांत) में हिंदू अल्पसंख्यक हुए हैं, वहाँ न केवल उनका जीवन दूभर हुआ है, बल्कि उनके प्रतीक तक मिटा दिए गए हैं। उन्हें न तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, न अपने धार्मिक आयोजन और परंपराओं का निवर्हन करने की। इस वीभत्स कल से हिंदू अपनी पीढ़ियों को कल्कि अवतार की प्रतीक्षा कर नहीं बचा सकते। उन्हें खुद इसका प्रतिरोध करना होगा ताकि कोई कैलाश किसी रामकली के भाई को बहला-फुसलाकर किसी ‘कल्याण सभा’ में न ले जाए।

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अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

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