बड़े-बुजुर्गों ने लिखा था, ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’। मुझे पक्का लग रहा है चुनाव आयोग में किसी ने यह नहीं पढ़ा होगा। चुनावों में गलत आचरण रोकने के आदरणीय, सम्माननीय कार्य से आगे बढ़कर चुनाव आयोग वह लक्ष्मण रेखा पार कर चुका है जहाँ से वह लोगों के निजी जीवन और संविधान-प्रदत्त स्वतंत्रता में बाधक बन गया है। और अब शनैः-शनैः लोगों की सहन-क्षमता चुक रही है।
मोदी की बायोपिक पर रोक लगा दी जबकि वह एक विशुद्ध कमर्शियल सिनेमा है; योगी पर तब रोक लगा दी जब उन्होंने यह कहा कि वह खुद बजरंग बली के भरोसे हैं, यह नहीं कि लोगों को उन्हें वोट इसलिए देना चाहिए; दो किताबों के बारे में विमर्श पर केवल इसलिए रोक लगा दी क्योंकि एक चुनाव अधिकारी को ‘आभास’ हुआ (बिना एक कतरे सबूत के) कि यह कार्यक्रम मोदी के समर्थन का है। अब मोदी के जीवन पर आधारित वेब सीरीज़ का प्रसारण रोकने का नोटिस भेजा है।
Election Commission to Eros Now: It was brought to our notice that a web series “Modi-Journey of a Common Man, having 5 episodes is available on your platform. You’re directed to stop forthwith the online streaming & remove all connected content of the series till further orders pic.twitter.com/ofs0neJMc3
— ANI (@ANI) April 20, 2019
आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए होती है
शायद वह समय आ गया है कि चुनाव आयोग को खुद अपनी आचार संहिता खोल कर पढ़ ही लेनी चाहिए। उसमें उम्मीदवार (candidate) का जिक्र 28 बार है, दलों (party/parties) का 53 दफा, नेता (leader) 2 बार, और कार्यकर्ता (worker) की बात 6 बार की गई है। महज़ 1 बार नागरिक (citizen) का उल्लेख है, वह भी संविधान के सन्दर्भ में, न कि नागरिक को कोई दिशा-निर्देश देते हुए।
मतलब साफ है कि खुद आचार संहिता केवल नेताओं, पार्टियों, उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं के लिए होती है, न कि आम नागरिकों के लिए। पर इन चुनावों में तो ऐसा लग रहा है कि चुनाव आयोग पार्टियों और नेताओं से ज्यादा लोगों का मुँह दबाने में मुस्तैद है; उनकी जीविका तक को निशाना बनाने में नहीं हिचकिचा रहा। दो नागरिकों मानोशी सिन्हा और आभास मालदहियार की किताबों का विमोचन रोक दिया चुनाव आयोग ने, अभिनेता विवेक ओबरॉय की जीविका फिल्म-एक्टिंग पर रोक लगाई, सुप्रीम कोर्ट को बीच-बचाव करना पड़ा, और अब अपेक्षाकृत कम जाने-पहचाने कलाकारों को लेकर बनी कम बजट की और महज दस एपिसोड की वेब सीरीज ‘मोदी- जर्नी ऑफ़ अ कॉमन मैन’ पर रोक लगाई है।
क्यों भई? क्या मानोशी सिन्हा को अपनी किताब बेचने का हक़ नहीं है? उन्होंने न जाने कितने महीनों (या सालों) मेहनत की होगी किताब के लिए शोध में- उनकी किताब ‘Saffron Swords’ तो भारत के इतिहास के बारे में है, उस समय के बारे में है जब आज के राजनीतिक परिदृश्य के खिलाड़ी मोदी और राहुल गाँधी के लकड़दादा भी पैदा नहीं हुए होंगे।
आभास की किताब #Modi Again का नाम भले मोदी पर है पर किताब के पिछले कवर के ‘ब्लर्ब’ से साफ़ है कि किताब मोदी पर नहीं, आभास की खुद की यात्रा पर है- मार्क्सवाद से मोहभंग की उनकी यात्रा, जिसकी कहानी अपनी मर्जी के माध्यम से, अपनी मर्जी की सार्वजानिक जगह पर, अपनी मर्जी के समय पर सुनाना उनका पूरा हक है।
शक के आधार पर लगेगी रोक?
विवेक ओबरॉय की फिल्म को प्रतिबंधित करने को लेकर चुनाव आयोग ने दलील दी कि फिल्म में दिखाए गए राजनैतिक दृश्य सोशल मीडिया में प्रचारित हो रही चीज़ों को सच मानने का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं। कर सकते हैं। एक बार फिर से पढ़िए, ताकि समझ में आ जाए कि जोर क्यों दिया जा रहा है। कर सकते हैं।
यानि कोई तथ्य, कोई सबूत नहीं कि फिल्म में भ्रामक सामग्री है ही, केवल एक शक है। शक के आधार पर किसी की आजीविका पर लात मारने का अधिकार कहाँ से आया चुनाव आयोग के पास आया? शक के आधार पर पुलिस आज देशद्रोह के मामले तक में गिरफ़्तारी करने से हिचकिचा रही है, और चुनाव आयोग को शक के आधार पर लोगों की सालों की मेहनत, न जाने कितने लोगों की उससे जुड़ी आजीविका, और संविधान-प्रदत्त अधिकारों को कुचलने का हक़ मिल गया है?
उसके संवैधानिक दर्जे का सम्मान देश करता है, पर क्या चुनाव आयोग खुद नागरिकों को संविधान में दिए गए बोलने की आजादी के हक का सम्मान कर रहा है? सुप्रीम कोर्ट अनेकों बार ‘संविधान के मूल ढाँचे’ को हर कानून से बड़ा मान चुका है। क्या मानोशी-आभास का अपनी बात अपनी मर्जी के समय पर कहने का अधिकार, विवेक ओबरॉय और वेब सीरीज के प्रोड्यूसरों का बाजार की माँग के हिसाब से अपने व्यवसाय का पालन करने का हक संविधान के मूल ढाँचे वाले आदेश के दायरे में नहीं हैं? या चुनाव आयोग के आदेश पर संविधान के उपरोक्त अनुच्छेद और सुप्रीम कोर्ट के ‘मूल ढाँचे’ से जुड़े आदेश लागू ही नहीं होते हैं?
कानूनी आधार भी है कमजोर
कानून के जानकारों के अनुसार चुनाव आयोग अपने इस तरह के आदेशों के लिए सहारा लेता है आचार संहिता के एक अस्पष्ट नियम का। उसकी आचार संहिता का एक नियम सत्तारूढ़ राजनीतिक दल द्वारा सार्वजनिक धन के प्रयोग से किसी एक राजनीतिक के पक्ष में प्रचार में विज्ञापन चलाने पर रोक लगाता है। और आज आयोग आज हर किताब और फिल्म को विज्ञापन मान रहा है।
क्या आयोग को किताब और विज्ञापन में अंतर नहीं पता? विज्ञापन देखने वाले को उसे देखने का पैसा नहीं देना पड़ता, जबकि फिल्म और किताब का उपभोग करने वाले अपनी जेब से पैसा खर्च कर के उन्हें देखते और पढ़ते हैं। आम प्रचलन की इतनी मूलभूत चीजों की परिभाषा से छेड़छाड़ किस आधार पर हो रही है?
और अगर मान भी लें कि चुनाव आयोग को हर माध्यम को हर तरफ से ‘विज्ञापन’ मानने का हक़ भी है, तो भी चुनाव आयोग का यह नियम, खुद उसकी वेबसाइट के मुताबिक:
- (केवल??) राजनीतिक दलों के लिए है- यानि यह नियम तो उम्मीदवारों पर भी लगाना प्रश्नवाचक होगा, प्राइवेट नागरिकों की तो बात ही अलग है
- सार्वजनिक धन का एक राजनीतिक पार्टी के पक्ष में व्यय रोकने के लिए है- यह प्राइवेट नागरिकों के धन से बनी वेब सीरीज़ और छपी किताबों पर किस आधार पर लागू होगा?
चुनाव आयोग को कुछ असहज करते प्रश्नों का जवाब देने की जरूरत है। नहीं तो वह जनता का भरोसा खो देगा। और यह लोकतंत्र के लिए कतई शुभ नहीं होगा।