झूठ, प्रोपेगंडा और मौक़ापरस्ती को आधार बना कर पत्रकारिता के सारे मानदंडों को धता बताने वाली कारवाँ पत्रिका ने अब भारतीय सेना को बदनाम करने का बीड़ा उठाया है। पुलवामा जैसे त्रासद आतंकी हमले में जाति और मज़हब को लाकर एजाज़ अशरफ़ ने लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर थूक दिया है। दरअसल, कारवाँ में लिखे एक लेख में अशरफ़ ने पुलवामा आतंकी हमले में वीरगति को प्राप्त हुए 40 जवानों की जाति का जिक्र कर यह साबित करने की घिनौनी कोशिश की है कि इनमें ‘उच्च जाति’ वालों की कोई भागीदारी नहीं है। इस लेख में ऐसी दलीलें हैं जिसे पढ़ने के बाद आपको इनकी वास्तविकता पता चल जाएगी। इसने हमारे 40 वीर जवानों के शवों को अपने हथकंडे के घेरे में ले लिया है।
बाकी संस्थानों को छोड़िए, यहाँ तक कि आज तक किसी ने क्रिकेट टीम के खिलाड़ियों से नहीं पूछा कि वे किस जाति के हैं। सचिन तेंदुलकर का बल्ला बोलता था, उनकी जाति नहीं। हरभजन सिंह की कलाइयों में जादू था, उनके धर्म में नहीं। मोहम्मद कैफ़ की फील्डिंग में ताक़त थी, वह धर्म के बल पर टीम में नहीं आए थे, धोनी विकेट के पीछे अपनी चपलता के कारण जाने जाते हैं, अपनी जाति की वजह से नहीं। इन सभी के करोड़ों फैंस हैं- आम आदमी इनकी योग्यता देखता है, जाति नहीं।
नीचता की भी हद होती है
स्वयं को स्वतंत्र मीडिया का ठेकेदार मानने वाले इन संस्थानों ने आज तक इसी बात का फ़ायदा उठाया है कि इनसे सवाल नहीं पूछे जाते थे। अब सोशल मीडिया और आधुनिकता के युग में जब परत दर परत इनकी पोल खुलती जा रही है, ये और भी नीचे गिरती जा रहे हैं। रीडरशिप और सब्सक्रिप्शन के इस दौर में ख़ुद का वजूद बचाने के लिए इन्होने लाशों पर प्रोपेगंडा का नंगा नाच करने की ठान ली है। यहाँ हम कारवाँ के लेख में कही गई बेतुकी और बेढंगी बातों का जिक्र करने के साथ ही आपके सामने उनकी असली सच्चाई लाएँगे ताकि भविष्य में आप भी ऐसे ज़हरीले कीड़ों से सावधान रहें।
सबसे पहले इस लेख के हैडिंग की बात करते हैं। इसने टाइटल में ही अपना एजेंडा साफ़ ज़ाहिर कर दिया है। इसने लिखा- ‘पुलवामा में मारे गए जवानों में हिंदुत्व राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने वाले शहरी उच्च-जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व बहुत कम है।’ कारवाँ क्या यह परिभाषित करेगा कि हिंदुत्व क्या है? राष्ट्रवाद क्या है? और अव्वल तो यह कि ये हिंदुत्व राष्ट्रवाद क्या है? और हाँ, कारवाँ के पास इस बात के क्या सबूत हैं कि जिस कथित हिंदुत्व राष्ट्रवाद की बात वह कर रहा है, उसके कर्ता-धर्ता शहरी उच्च जाति के लोग हैं? ना आँकड़ा और ना कोई सबूत, सीधा घटिया सा एक निष्कर्ष। कभी किसी गाँव के महावीरी झंडे वाले मेले में जाओ, तुम्हे भगवा ध्वज थामे दलित और पिछड़ी जाति के लोग ही दिखाई पड़ेंगे। क्या इसी को तुम हिंदुत्व कह कर इसे डरावने रूप में पेश करने की कोशिश करते हो?
Urban upper-castes driving Hindutva nationalism have little representation among Pulwama’s slain jawans.
— The Caravan (@thecaravanindia) February 21, 2019
Ajaz Ashraf reports: https://t.co/mqFV6PgnKt pic.twitter.com/UZeyHchynz
लेख की शुरुआत होते-होते यह नैरेटिव और ज़हरीला हो जाता है। जैसे-जैसे लेख आगे बढ़ता है, कथित हिंदुत्व राष्ट्रवाद का सारा दोष शहरी उच्च-जाति की बजाय शहरी मध्यम वर्ग के चरित्र-हनन पर उतर आते हैं और फिर बिना आँकड़ों व सबूत के दावा ठोकते हैं कि उच्च-जाति में अधिकतर शहरी मध्यम वर्ग के लोग हैं। ऐसा किस जनगणना में लिखा है? जब मध्यम वर्ग द्वारा झेली जा रही परेशानियों की बात होनी चाहिए, उनकी समस्याओं पर बात होने चाहिए, उनके लिए सरकार द्वारा लाई गई योजनाओं पर बात होनी चाहिए तब कारवाँ के अशरफ़ उनके चरित्र-हनन में मशग़ूल हैं।
मौलाना अशरफ़ साहब, जब कोई युवा सेना में भर्ती होने के लिए जाता है तो उसकी जाति नहीं देखी जाती। देखा जाता है तो उनका शारीरिक गठन, उनका हौसला और देखी जाती है उनकी योग्यता। वो सब के सब भारतीय होते हैं। अगर कोई पिछड़ी जाति से आता है तो उसे नियमानुसार कई सुरक्षा बलों में कुछ राहत ही मिलती है, दिक्कतें नहीं आतीं। इससे उसे फ़ायदा ही होता है, नुक़सान नहीं। जाति नेताओं और पत्रकारों की खोजिए, सेना के जवानों की नहीं। आप अपना हथकंडा राजनीति और मीडिया तक सीमित रखिए, इसे देश की सुरक्षा व्यवस्था में मत घुसाइए। सेना के जवान अपने जज़्बे, साहस और देशप्रेम के लिए लड़ते हैं, जाति-धर्म के लिए नहीं। वे मातृभूमि की सुरक्षा के लिए वीरगति को प्राप्त होते हैं। वे किसी आम नागरिक की रक्षा करते समय उससे उसकी जाति नहीं पूछते।
जरा उन जवानों की जगह स्वयं को रख कर देखिए
अशरफ़ और कारवाँ ने इन जवानों की जाति का पता लगाने के लिए जिस नीचता का परिचय दिया, उसे जान कर आप कारवाँ मैगज़ीन के पन्नों का टॉयलेट पेपर की तरह प्रयोग करने से भी हिचकेंगे। जैसा कि उसने बेशर्मीपूर्वक अपने लेख में ही बताया है, उसने वीरगति को प्राप्त जवानों की जाति जानने के लिए उनके परिजनों को कॉल किया। यह मानवीय नैतिकता को तार-तार करने वाला आचरण है। इसे अशरफ़ को समझना पड़ेगा। कल यदि ख़ुदा-न-ख़ास्ता अगर अशरफ की ही मृत्यु हो जाए और खुदा न करे उनकी विधवा, बच्चों व माता-पिता से मृत अशरफ़ की जाति पूछने के लिए फोन पर फोन आने लगे, तो परिजनों पर कैसा असर पड़ेगा?
अरे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर टांग उठा के पेशाब करने वालों, बजाय इसके कि तुम वीरगति को प्राप्त जवानों की आवाज सरकार तक पहुँचाओ, तुम उन्हें परेशान करने में लगे हो? बजाय इसके कि तुम उन जवानों के परिजनों को सरकारी सहायताएँ दिलाने में मदद करो, तुम उनकी पीड़ा को बढ़ाने का कार्य कर रहे हो? हद है असंवेदनशीलता की। अगर ऐसे पत्रकारों की चले तो ये लोग किसी भी मृतक के श्राद्धकर्म में सम्मिलित होकर शोक-संतप्त परिजनों का दुःख बाँटने की बजाय फोन कर के जाति पूछने लगें। मान लीजिए कि खुदा न करे अशरफ़ की मृत्यु के बाद अगर उनकी जैसी ही गन्दी मानसिकता वाले पत्रकार और मीडिया संस्थान उनकी विधवा से फोन पर ये पूछने लग जाएँ कि वह शिया हैं या सुन्नी, पठान हैं या सैयद या क़ुरैशी- तो उन पर क्या असर पड़ेगा?
The CRPF jawans who were killed in the #PulwamaAttack were predominantly lower-caste. Only five out of 40 jawans, or 12.5 percent, came from Hindu upper-caste families.
— The Caravan (@thecaravanindia) February 21, 2019
Ajaz Ashraf reports: https://t.co/usdnEB5gj4
अभी पत्रकारों को बलिदान हुए जवानों के बारे में जनता को बताना चाहिए ताकि पूरा देश उनकी वीरता और बलिदान के बारे में जान सके। अभी पत्रकारों का धर्म होना चाहिए उन जवानों के परिजनों को ढांढस बँधाना ताकि उन्हें ऐसा महसूस हो कि दुःख की इस घड़ी में पूरा देश उनके साथ खड़ा है। लेकिन अशरफ़ जैसे पत्रकार और कारवाँ जैसे मीडिया संस्थान कर क्या रहे हैं? वो मृतकों के परिजनों से हुतात्मा की जाति पूछ रहे हैं। संवेदनाएँ मर गई हैं क्योंकि इनके मन में जवानों के बलिदान के प्रति कोई सम्मान नहीं है।
जिनके ख़ुद के घर काँच के हों…
भारत में क़रीब 15% मुस्लिम हैं। क्या अशरफ बताएँगे कि उनके संस्थान कारवाँ में लोगों को जाति एवं धर्म के आधार पर कितनी हिस्सेदारी मिलती है? भारत में सैकड़ों जातियों और कई धर्मों के लोग रहते हैं। क्या कारवाँ में उन सबका उचित प्रतिनिधित्व है? संस्थान ने कितने पारसियों को नौकरी पर रखा है? वहाँ जैन और बौद्ध पत्रकारों के प्रतिनिधित्व का आँकड़ा क्या है? अगर ऐसा नहीं है, तो सबसे पहले अपना घर दुरुस्त कीजिए और फिर दूसरों को सलाह दीजिए। और अगर जाति-धर्म ही हर संस्थान का मापदंड होगा तो ऐसा संस्थान आपको ही मुबारक हो। सुरक्षा बल भारतीय होते हैं, भारतियों की रक्षा के लिए लड़ते हैं और भारतीय अस्मिता की लाज रखते हैं।
तुम्हें तो यह पता करना चाहिए था कि वीरगति को प्राप्त जवानों के बच्चों को पढ़ाने के लिए परिजनों के पास धन है या नहीं। तुम्हे पता लगाना चाहिए था कि जिन माँ-बाप ने अपनी इकलौती संतान को खो दिया, उनकी ज़िंदगी का कोई अन्य सहारा है या नहीं। तुमने लिखा है कि जवानों के परिजनों को डर है कि उनके बलिदान को लोग भुला देंगे। उनका यह डर वाज़िब है लेकिन उनकी इस संवेदना के साथ तुमने जो प्रीफिक्स लगाया है वह निंदनीय है। “While the fervour of nationalism grips the country” जैसा गन्दा प्रीफिक्स लगा कर तुमने परिजनों के बयानों को मैनिपुलेट किया है, उसके साथ छेड़-छाड़ कर उसमे अपना हथकंडा घुसाया है।
इस लेख में तुम्हारे कथित दलित विशेषज्ञ ने कहा है कि CRPF में आरक्षण है, इसीलिए वीरगति को प्राप्त जवानों में अधिकतर दलित हैं। अगर किसी संस्थान में आरक्षण नहीं हो तो तुम्हारा वही कथित दलित विशेषज्ञ यह बोल रहा होगा कि वहाँ दलितों को नहीं लिया जाता क्योंकि सरकार को उनकी योग्यता पर संदेह है। ऐसे ही देश की सुरक्षा व्यवस्था चलेगी क्या? चित भी कारवाँ की और पट भी कारवाँ की। तुम्हारा ये असंवेदनशील, नीच और घटिया खेल तुम्हे मुबारक।
The low representation of urban upper-caste Hindus among the jawans killed in the #PulwamaAttack bears out a truism—the Hindutva nationalism of the urban middle-class conveniently exploits the sacrifices of the downtrodden.https://t.co/usdnEBmRHE
— The Caravan (@thecaravanindia) February 21, 2019
और हाँ, पुलवामा हमले को लेकर केवल शहरी मध्यम वर्ग ही आक्रोशित नहीं है, पूरा देश आक्रोशित है। कभी गाँवों में जाकर कम से कम वहाँ की किसी चौपाल पर 10 मिनट बैठ कर देखो, ज़मींदार, किसान और मजदूर- सभी एक सुर में आतंकियों की निंदा करते हुए दिखेंगे। कभी किसी कस्बे में जा कर देखों। तुम्हें एक सब्जी वाला उँगलियों पर गिनाता मिल जाएगा कि वीरगति को प्राप्त जवानों में किस राज्य से कितने थे। कभी किसी खेत-खलिहान में जा कर देखो, तुम्हे खर-पतवार इकठ्ठा करती महिलाएँ पाकिस्तान की निंदा करती मिलेंगी। लेकिन नहीं, तुमने अपने AC कमरे में बैठ कर जवानों के परिजनों से बेढंगे सवाल पूछने हैं क्योंकि तुम्हे अपना प्रोपेगंडा चलाना है।
और अंत में, तुम्हे आइना दिखाने के लिए रामधारी सिंह दिनकर की यह कालजयी पंक्तियाँ:
“तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।”
और दिनकर की ये पंक्तियाँ जो भारतीय सुरक्षाबलों पर आज भी फिट बैठती है, ख़ासकर तब, जब कारवाँ जैसे संस्थान अपना घटिया रंग दिखा कर वीरगति को प्राप्त जवानों से उनकी जाति पूछते हैं:
“मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता है रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
‘जाति-जाति’ का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।”