सबसे पहले तो यह बात साफ कर देना आवश्यक है कि वेश्यावृति से मुझे कोई समस्या नहीं रही। लोगों के सामने ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं, या वो उनमें ढकेल दिए जाते हैं कि उन्हें वो भी करना पड़ता है जो वो करना नहीं चाहते। कुछ के लिए बेहतर विकल्प के अभाव में ऐसा करना उचित जान पड़ता है, कुछ के पास कोई भी विकल्प होता ही नहीं, कुछ लोग (कई देशों में) शायद थोड़े समय में कुछ पैसों के लिए ऐसा करना चाहते हैं। ये मजबूरी हो सकती, विकल्पहीनता हो सकती है, चुनाव हो सकती है।
कारण जो भी हो, उसकी परिणति जैसी भी रही हो, लेकिन जब आप वेश्यालय की ओर रुख़ करते हैं तो आपको पता होता है कि आपको वहाँ क्या मिलेगा। वेश्यालय ईमानदारी से चलता है कि आप वहाँ जो करने जा रहे हैं, वही होगा, न कि आपको जबरदस्ती टूथपेस्ट बेच दिया जाएगा।
ज़्याँ जेने एक फ्रान्सिसी नाटककार हैं जिन्होंने एक नाटक लिखा था ‘ले बालकन’ या ‘द बालकनी’। फ़्रान्स में ‘बालकनी’ शब्द का प्रयोग वेश्यालयों के लिए भी होता है। यह नाटक वेश्यालयों पर आधारित है, लेकिन ये थोड़ा अलग क़िस्म का वेश्यालय है। यहाँ कई तरह के लोग, पावरफुल व्यक्ति आते हैं और अपनी कुंठा को मिटाते हैं। कुंठा कैसे मिटाते हैं? कोई जज बन कर एक चोर को सजा देता है, कोई सेनाधीश बन जाता है, कोई पादरी आदि। ये एक तरह से रोल-प्ले होता है जिसमें आप भीतरी इच्छाओं को नाटकीयता के ज़रिए बाहर निकालते हैं। इसके दूसरे हिस्से में कुछ और होता रहता है, जिससे नाटक के और भी मायने निकल कर आते हैं, लेकिन बीबीसी के कुकृत्यों के लिए इतना ही जानना ज़रूरी है।
बीबीसी, या Big BC, ज़्याँ जेने की इसी बालकनी में फँसा हुआ एक चरित्र सदृश हो गया है। यह मीडिया संस्थान कुंठित है, और यह कुंठा शायद इनके मालिकों द्वारा भारत को अभी भी ग़ुलाम की ही तरह समझने की अभिजात्यता से विकसित होती है। इन्हें लगता है कि ये तो ब्रिटिश ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन हैं जिनकी मोनेपॉली ऐसी थी कि जो ये लिखते थे, वही सत्य हुआ करता था, तो अब भी जो भी BC या BS करेंगे, वो लोग कान में रेडियो सटा कर सुनेंगे और कहेंगे ‘आह बीबीसी, वाह बीबीसी’।
खैर, भारत में जब से सत्ता परिवर्तन हुआ है, तब से अपनी ज़हर और घृणा को इन्होंने और तेज कर दिया है। हाल ही में इन्होंने एक फर्जी रिसर्च जारी किया था जिसे हमारी टीम ने तथ्यों और तर्कों से इतना बींध दिया कि उन्हें वो पूरी तथाकथित रिसर्च हटानी पड़ी थी। उसके बाद, हमारी टीम ने उनके द्वारा फैलाए गए फेक न्यूज की लिस्ट जारी की तो वो इतनी लम्बी हो गई कि हमने सोचा कि जो फेक न्यूज ही छाप रहा हो, कितने हिस्सों में उसके कुकर्मों को गिनाते रहें! हमने कुछ आर्टिकल लिख कर छोड़ दिया।
साथ ही, बीबीसी की स्थिति अब ऐसी है, खास कर हिन्दी की, कि ये किसी को भी पत्रकार बना देते हैं। योग्यता के लिए पत्रकारिता का अनुभव या ज्ञान नहीं, ‘आप मोदी या भारत से कितना घृणा करते हैं’, का जवाब आपके पास होना चाहिए। यही कारण है कि इन्होंने एक के बाद एक घटिया खबरें लिखीं, बेशर्मी से उसे चलाया और झूठ साबित होने पर माफ़ी नहीं माँगी। इसीलिए, इसे अब Big BC भी कहा जाता है क्योंकि वहाँ खबरें नहीं, BC ही चल रही हैं।
कल आईपीएल फ़ाइनल में मुंबई इंडियन्स की टीम ने चेन्नई को एक रन से हरा दिया। जिसने भी मैच देखा वो जानता है कि ये मैच दोनों में से कोई भी टीम जीत सकती थी, और अधिकतर बार ऐसा लगा कि चेन्नई जीतेगी।
चूँकि ये बीबीसी वाले हैं, और हिन्दी में खबरें बेचने पर उतरे हुए हैं जहाँ इन्हें भारतीय समाचार पोर्टलों से लगातार कम्पटीशन मिल रहा है, तो क्या करेंगे? ऐसे में अपने चमन चिंटुओं पर विश्वास दिखाना जरूरी हो जाता है। फिर, एक खेल के मैच रिपोर्ट की ख़बर इस तरीके से आती है जिसमें किसी भी तरह से मोदी को खींच लिया जाता है।
पत्रकारिता में हेडलाइन से बहुत खेला जाता है। ‘सिंगल कोट्स’ का प्रयोग करते हुए, आप टेक्निकली बच जाते हैं यह कह कर कि आपने जो हेडलाइन लगाया है, वो आपके संस्थान के विचार नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के हैं। फिर आप ट्विटर पर जाते हैं, और जहाँ आपके मतलब का ट्वीट दिखता है, जो आपके पूर्वग्रहों पर सटीक बैठता हो, उस चुटकुले को आप हेडलाइन में डाल कर बेच लेते हैं।
किसी अनजान व्यक्ति का ट्वीट, बिना किसी टिप्पणी के लगाना, जो उस आर्टिकल के साथ शेयरिंग के वक्त दिया जाता है, बताता है कि आपकी मंशा क्या है। एक आईपीएल के मैच की रिपोर्ट में मोदी और अम्बानी को घुसाना बताता है कि एडिटर की जगह कोई निहायत ही बेशर्म चिरकुट व्यक्ति बैठा हुआ है जिसे मैच से कुछ नहीं, सस्ती लोकप्रियता से ज़्यादा लेना-देना है।
इस हेडलाइन को बाद में बदल दिया गया, क्योंकि लिंक पर क्लिक करने पर आपको दूसरी हेडलाइन दिखेगी (नीचे तस्वीर में देखें) जो मैच रिपोर्ट जैसी है। लेकिन ट्विटर पर ऐसे शेयर किया है जैसे ये एक रिपोर्ट नहीं, बीबीसी के विचार हों जहाँ यह बताया जा रहा है कि मैच में खिलाड़ियों और टीम का योगदान नहीं था, बल्कि टीम अम्बानी की थी, और राहुल गाँधी कहते हैं कि अम्बानी मोदी का दोस्त है, तो मोदी के कार्यकाल में आखिर अम्बानी की टीम नहीं जीतेगी तो कौन जीतेगा!
और, अब तो इन्होंने वो ट्वीट ही डिलीट कर दिया! लेकिन, सोशल मीडिया या इंटरनेट पर जो एक बार लग गया, सो लग गया। ये अब माफ़ी भी नहीं माँगेंगे क्योंकि भारत के ग़ुलाम लोगों की भाषा में ब्रिटेन की किसी बड़ी संस्था ने कुछ लिखा, और गलत लिखा, तो भी क्या! इसके लिए ग़ुलामों से माफ़ी थोड़े माँगेंगे! अरे श्वेत चमड़ी वालों की संस्था है!
ये पत्रकारिता नहीं, ये दोगलापन कहा जा सकता है। मेरे शब्दों के चुनाव पर आपको आपत्ति हो सकती है लेकिन इससे बेहतर शब्द मेरे पास नहीं हैं। ये मेरे निजी विचार हैं जो बीबीसी जैसे घटिया न्यूज पोर्टलों के कारण पूरी पत्रकरिता को ‘प्रेश्या’ या ‘प्रेस्टीट्यूट’ जैसे संबोधनों का शिकार बनाने के कारण उपजे हैं।
बीबीसी को चाहिए कि वो ‘बालकनी’ ही खोल ले। जब पत्रकारिता की जगह ‘रोलप्ले’ ही करना है, तो फिर इतनी टायपिंग की क्या ज़रूरत है। ट्वीट घुसाकर, विचारों जैसे हेडलाइन के साथ, ट्विटर रिएक्शन्स वाली पत्रकारिता ही करनी है, तो वेश्यावृति या सॉफ़्ट पोर्न वाली हेडलाइन से करें, उसमें ज़्यादा हिट्स मिलेंगे।
लेकिन कैसे करेंगे! व्हाइट मेन्स बर्डन है, व्हाइट सुप्रीमैसिज्म का अलग रूप है इनके भीतर। पत्रकारिता के बीकन लाइट हैं ये, पोर्न कैसे बेचेंगे! लेकिन हिट्स भी तो चाहिए। फिर, धूर्त आदमी क्रिकेट की खबरों में मोदी को ले आता है क्योंकि मोदी इनकी दुकान चला देगा।
बीबीसी हिन्दी वालो, विकल्प है तुम्हारे पास: वेश्यावृति की ईमानदारी या पत्रकारिता के नाम पर वैचारिक दोगलापन, चुन लो। प्लीज!