ममता बनर्जी चक्रवात फोनी के प्रदेश की दहलीज पर होने के बाद भी देश के प्रधानमंत्री का फ़ोन नहीं उठातीं, प्रदेश के डॉक्टरों के हड़ताल में जलने के बाद भी राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी के फ़ोन का जवाब नहीं देतीं। क्या यह उनका घमंडी होना नहीं है?
अपने काफ़िले से निकल कर लोगों के सामान्य से अभिवादन ‘जय श्री राम‘ पर भड़क उठतीं हैं। डॉक्टरों को चार घंटे में हड़ताल खत्म कर न लौटने की सूरत में वह ‘परिणाम भुगतने’ की चेतावनी देतीं हैं। क्या यह फ़ासीवादी होने की निशानी नहीं है?
हिन्दुओं के साथ नकारात्मक और समुदाय विशेष के साथ ममता बनर्जी सकारात्मक भेदभाव करतीं हैं। इंद्रधनुष के लिए बंगाली शब्द ‘रामधोनु’ को वह किताबों में ‘रोंगधोनु’ करवा देतीं हैं, और मुहर्रम के दिन दुर्गा पूजा के मूर्ति विसर्जन में बाधा उत्पन्न करतीं हैं। क्या यह सांप्रदायिक होना नहीं दिखाता है?
विपक्ष के कद्दावर नेताओं, योगी आदित्यनाथ से लेकर अमित शाह तक को वह बंगाल में कदम तक रखने से रोकने की कोशिश करतीं हैं। भाजपा के पोस्टर फड़वा देतीं हैं, और उनके रिश्तेदारों को हवाई अड्डे पर रोकने की हिमाकत करने वाले पुलिस वालों पर कार्रवाई करतीं हैं। ऐसा करने वाला शासक स्वेच्छाचारी हुआ या नहीं?
पश्चिम बंगाल की सड़कों पर विरोधियों की खुलेआम, बेधड़क ‘लिंचिंग’ होती है। हिंसा इतनी ज्यादा है कि एक-तिहाई से ज्यादा पंचायती सीटों पर तृणमूल के प्रत्याशियों के खिलाफ कोई खड़ा ही नहीं होता। क्या यह इस बात का सबूत नहीं कि ममता बनर्जी की राजनीति हिंसक है?
लोगों को मीम के लिए जेल भेजा जा रहा है, प्रोफेसरों पर मंदिर में (वह भी प्रदेश के बाहर) पूजा करती अपनी माँ की तस्वीर डालने पर साम्प्रदायिक हिंसा का मामला दर्ज हो रहा है। अगर ममता बनर्जी असंवैधानिक और लोकतंत्र-विरोधी न होतीं तो वह ऐसा क्यों करतीं?
इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि बंगाल में ममता का शासन तानाशाह का है। नौकरशाही उनके पैरों तले है, पुलिस उनके राजनीतिक बलप्रयोग का ही विस्तार है, और उसे वह बदले में केंद्रीय जाँच एजेंसियों से भी महफूज़ रखतीं हैं। डॉक्टरों की हड़ताल का इस हद तक खिंचना उनकी तानाशाही का ही एक और उदाहरण है।
नारदा, सारधा, रोज़ वैली के घोटाले में उनका नाम आता है। भ्रष्टाचार ने उनकी पार्टी को लील लिया है। यह ममता के भ्रष्ट होने का नाकाफ़ी सबूत है?
पश्चिम बंगाल में जिहादियों और दहशतगर्दो के नेटवर्क फल-फूल रहे हैं। जमात-उल-मुजाहिदीन ने राज्य में जड़ें जमा लीं हैं। वर्धमान जैसे जिलों के मदरसे कट्टरपंथ पढ़ा रहे हैं। इस्लामिक स्टेट से जुड़े संगठन ने बंगाल के लिए बाकायदा ‘अमीर’ नियुक्त किया है, जो बंगाल में जिहाद करेगा और नए लोगों की भर्ती देखेगा। ममता बनर्जी में और एक अलगाववादी में क्या अंतर है?
अब इन सारे ‘बोल्ड’ में लिखे गए विशेषणों को इकठ्ठा करिए: घमंडी, फासीवादी, सांप्रदायिक, स्वेच्छाचारी, हिंसक, असंवैधानिक, लोकतंत्र-विरोधी, तानाशाह, भ्रष्ट, अलगाववादी- यह सारे शब्द ज़रा याद करिए आखिरी बार किस इंसान के लिए सुने थे! नरेंद्र मोदी। और मेरी चुनौती है कि लुटियंस मीडिया के ममता बनर्जी को इनमें से एक भी शब्द कहने का एक भी उदाहरण मुझे दिखा दिया जाए।
इकोसिस्टम क्या है? इकोसिस्टम सत्तासीन सरकार नहीं होता। इकोसिस्टम राजनीतिज्ञों, मीडिया, बुद्धिजीवियों, वकीलों, नौकरशाहों, संस्थानों के अध्यक्षों, सांस्कृतिक ‘नवाबों’ आदि का झुण्ड होता है, जो एक ही एजेंडा चलाने के लिए इकट्ठे होते हैं।
राजनीतिज्ञों (राहुल गाँधी, महबूबा मुफ़्ती, उमर अब्दुल्ला, अखिलेश यादव, मायावती आदि), पत्रकारों (शेखर गुप्ता, राजदीप सरदेसाई, सागरिका घोष, बरखा दत्त आदि), वकील (प्रशांत भूषण आदि), बौद्धिक (राम चंद्र गुहा, फैज़ान मुस्तफा, राजमोहन गाँधी इत्यादि), संस्थानिक अध्यक्ष (पूर्व चुनाव आयुक्त, पुलिस आयुक्त, कॉलम लिखने वाले पूर्व मुख्य न्यायाधीश), सांस्कृतिक ‘नवाब’ (जावेद अख्तर, कमल हासन आदि) की ट्विटर टाइमलाइन देखिए। देखिए कि उन्होंने ममता पर कभी साम्प्रदायिक, स्वेच्छाचारी, भ्रष्ट होने या लिंचिंग को बढ़ावा देने का आरोप लगाया हो। ऐसा कैसे है कि ममता बनर्जी के बारे में इन लोगों की राय उसके बिलकुल विपरीत है, जो ममता के बारे में देश के लगभग हर तबके में आमराय होगी?
यह इकोसिस्टम सवालों से बचने के लिए पलट कर प्रतिप्रश्न के बहाने कुतर्क (whataboutery) में उस्ताद है। बंगाल की हर हिंसा में तृणमूल के साथ बराबर का भागीदार भाजपा को बना देता है। सांप्रदायिकता में भी यही रवैया अपनाता है।
लेकिन इस बार इकोसिस्टम फँस गया है। डॉक्टरों का आक्रोश भाजपा के माथे नहीं मढ़ा जा सकता। राज्य की आम जनता ही ममता के खिलाफ उतर आई है। भाजपा और संघ के खिलाफ सांप्रदायिकता और लिंचिंग के नाम पर चाहे जितना प्रोपेगैंडा कर लिया जाए, आप लाखों लोगों का आक्रोश कैसे झेलोगे? हाल ही में हुए लोकसभा निर्वाचन में वह आम जनता ही थी जो इकोसिस्टम के खिलाफ उठ खड़ी हुई और उसे आईना दिखा दिया। और एक बार फिर यह आम जनता ही है जो इस गिरोह को बेपर्दा कर रही है।
जैसा कि एक कहावत में कहा गया है, कुछ लोगों को हर समय बेवकूफ बनाया जा सकता है, लेकिन सभी लोगों को हर समय बेवकूफ़ नहीं बनाया जा सकता।
(आशीष शुक्ला के मूल लेख का हिंदी में अनुवाद किया है मृणाल प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव ने)