इस बात में कोई दोराय नहीं कि नरेन्द्र मोदी के मुकाबले में आज कोई राष्ट्रीय रूप से पहचाने जा सकने वाला नेता है तो वह कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ही हैं। हालाँकि इसमें उनकी खुद की मेहनत शायद ही है। मेहनत अगर किसी का है तो वो उनके खानदान का है और उससे भी ज्यादा योगदान कुलीनतंत्र यानि Oligarchy की मलाई काटने के आदी हो चुके मीडिया के समुदाय विशेष का।
मोदी के सामने राहुल गाँधी की न तो उपलब्धियों की कोई ऐसी गंभीर फेहरिस्त है, न ही कोई ऐसी ‘गेम-चेंजिंग’ वैकल्पिक विचारधारा या योजना। बावजूद इसके, मीडिया के एक धड़े ने 5 साल तक यह उम्मीद नहीं छोड़ी कि कभी तो राहुल गाँधी उनके तारणहार बनेंगे! राहुल 2.0, 2.5, चिर-युवा- कोई ‘रूप’ नहीं बचा, जिसका आह्वाहन नहीं किया।
और अब जबकि इस सारी मेहनत के बाद अंततः लोगों ने राहुल गाँधी को थोड़ा-बहुत गंभीरता से लेना शुरू किया, लगा कि चलो 5 साल की मेहनत बर्बाद नहीं होगी- गठबंधन के कंधे पर सवार होकर राहुल गाँधी किसी तरह सरकार शायद बना लेंगे, और इतने ‘इन्वेस्टमेंट’ पर कुछ तो ‘रिटर्न’ बन ही जाएगा! पर राहुल गाँधी हैं कि गठबंधन पक्का करने में देर किए जा रहे हैं, और मोदी-शाह इस देरी का फायदा ले रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है कि मीडिया के एक धड़े में कॉन्ग्रेस की संभावित हार को लेकर अफरा-तफरी का माहौल है।
Congress is not prepared to contest these polls!
— Rohini Singh (@rohini_sgh) March 19, 2019
Mostly same in Maharashtra also. Two states with 88 seats. https://t.co/vDdz6cIWAQ
— Mahesh Langa (@LangaMahesh) March 19, 2019
निष्पक्षता का अब आवरण भी नहीं
नीचे इन ट्वीट्स में जो चिंता है, वह किसी नेता या घोषित आग्रह वाले व्यक्ति की हो तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। पर निष्पक्षता का छद्म आवरण ओढ़कर पत्रकारिता के नाम पर राजनीति करने वालों को कम-से-कम आवरण का तो लिहाज करना चाहिए था।
Every single non Congress opposition leader I’ve spoken to in recent days is befuddled, exasperated and angry at the Congress Party refusal to close alliances. Advantage Modi. https://t.co/1u932zppHi
— barkha dutt (@BDUTT) March 17, 2019
पर शायद राहुल गाँधी की जीत और मोदी की हार पर इन्होंने इतना कुछ ‘दाँव’ पर लगा दिया है कि अब खुलकर अपनी असलियत दिख जाने की कीमत पर भी भाजपा को हराने की हिमायत करना इनकी मजबूरी है।
NDA to announce Bihar candidates tomorrow but UPA still a divided house there. Tejashwi’s veiled attack on Congress says the same thing as other allies have been saying: Congress is not fighting to defeat Modi. https://t.co/dwZtngOb90
— Shivam Vij (@DilliDurAst) March 17, 2019
इस वार्तालाप का तो आधार ही मोदी को हराने की दिशा में क्या सही हो रहा है और कहाँ और ‘मेहनत’ करनी होगी, इस पर चर्चा है। (Click कर के पूरा वार्तालाप पढ़िए, और खुद तय करिए)
Need for nuance on Congress alliances:
— Aditya Menon (@AdityaMenon22) March 19, 2019
1 Jharkhand, Kar, TN: Deal Done
2 UP: Neither side really wanted it
3 AP, WB: Alliance wont help much
4 Bihar, Maha, J&K: old alliances which should’ve been sealed by now
5 Delhi: Alliance can help, party seems confused
4&5 are main problem
पुराना है ये नापाक हो चुका याराना
पत्रकारों का अपने काम की परिभाषा, यानि हो रही घटनाओं को यथास्थिति पत्रांकित करने, से आगे जाकर राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप आज का नहीं है। इसकी जड़ें शायद सत्ता और पत्रकारिता जितनी ही पुरानी होंगी। फिर कई सारे महान नेताओं ने भी अपने राजनितिक करियर की शुरुआत पत्रकारिता से की थी- वाजपेयी, प्रणब मुखर्जी, भगत सिंह, बोस, आडवाणी, और पत्रकारिता के gold-standard गणेश शंकर विद्यार्थी।
पर इन सभी ने तो अपने राजनीतिक आग्रह कभी छिपाए नहीं, खुल कर एजेण्डा अखबारों में एजेण्डा पत्रकारिता की। कई अन्य पत्रकारों ने यथासंभव निष्पक्ष पत्रकरिता करते हुए भी अपनी निजी पसंद-नापसंद भी बता दी ताकि उनके पाठक उनसे प्रभावित हुए बगैर तथ्यों के आधार पर निर्णय करें।
लेकिन नहीं! पत्रकारिता का यह समुदाय विशेष इन लोगों के ठीक उलट है। यह पत्रकारिता को तो केवल जरिये के तौर पर इस्तेमाल करता है- असली मकसद होता है पहले पाठकों के बीच अपना एक प्रभाव-क्षेत्र कायम करना, और फिर उस प्रभाव क्षेत्र का प्रयोग कर उन नेताओं का एजेण्डा आगे बढ़ाना, जो इस प्रभाव-मण्डल की कीमत दे सके।
हमारी बात पर यकीन न हो तो कॉन्ग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड में छपे इस लेख को देख लीजिए जिसमें कैसे इस कैंसर की कहानी सुनाई गई है।
मोदी ने इस पर रोक लगा दी थी- इसी का दुःख है जो छलक-छलक कर बाहर आ रहा है।
अब न तो कोई खबर चलाने के पैसे आ रहे थे, न दबाने के। यहाँ तक कि कैबिनेट नोटों की जिस ‘सप्लाई’ के ज़रिए ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ की सनसनीबाजी चलती थी, मोदी उस छेद को भी अगर बंद नहीं कर पाए तो बहुत छोटा जरूर कर दिया। राजदीप सरदेसाई का वो दर्द याद है कि अब प्रधानमंत्री के विशेष विमान में वीआईपी बनकर चलने नहीं मिलता??
तीसरी मलाई जो पहले कटती थी और अब बंद हो गई, वो है सत्ता की दलाली यानि ‘पावर-ब्रोकिंग’ की। सरकारें बनवाने, गिरवाने, और बचाने में नेताओं के करीबी पत्रकारों की भूमिका पर कई लोगों ने काफी कुछ लिखा है। दिल्ली प्रेस क्लब ही ‘लुटियंस ज़ोन’ शब्द के नकारात्मक हो जाने के पीछे सबसे बड़ा कारक है। अर्णब गोस्वामी ने तो यहाँ तक कहा था कि भारत में मीडिया हाउसों को मुख्यालय दिल्ली के बाहर कर देना चाहिए- चाहे वे मुंबई या बंगलौर से चलें, चाहे बिहार या दक्षिण भारत के गाँवों से, पर सत्ता से पत्रकारों की करीबी टूटनी चाहिए।
2G घोटाले में भी इसी समुदाय विशेष की विशेष सदस्या द्रमुक और कॉन्ग्रेस के बीच संवाद-सेतु का काम करते पकड़ीं गईं थीं।
राहुल गाँधी को वापिस लाने के लिए यह बेचैनी शायद इसी ‘पावर-ब्रोकिंग’ संस्कृति को वापिस लाने की जद्दोजहद है।