NASA ने अपने एक प्रोग्राम fall NASA इंटर्नशिप के लिए आवेदन आमंत्रित करते हुए ट्वीट क्या किया हिन्दू घृणा की बाढ़ सी आ गई। उसमें एक आवेदन भारतीय छात्रा प्रतिमा रॉय का भी था। प्रतिमा की जो फोटो NASA ने अपने ट्वीट के साथ लगाई उसमें प्रतिमा के टेबल पर हिन्दू देवियों की मूर्तियां थीं। इस पर अलग-अलग जगह से हिन्दू घृणा वाले ट्वीट आये। किसी ने इसे विज्ञान का नाश बताया तो किसी ने यह सवाल उठाया कि हिन्दू बच्चों को देवी-देवताओं के साथ इतना लगाव क्यों है? क्या उनके बिना ये बच्चे कुछ नहीं कर सकते? कोई कल्पनाशील महापुरुष अपनी प्रतिक्रिया में श्रीराम और पुष्पक विमान को भी ले आया तो किसी ने ट्वीट के जवाब में दिए अपने उत्तर में ‘संघियों’ को घसीट लिया। विरोध के जितने स्वर और प्रतिक्रिया, उनके उतने ही प्रकार।
Today’s the day: applications for fall NASA internships are due!
— NASA (@NASA) July 9, 2021
Are you ready? Visit @NASAInterns and apply at: https://t.co/s69uwyR1LJ pic.twitter.com/CVwFJGYbms
यह बहस (भले ही एक निरर्थक बहस) का विषय हो सकता है कि धर्म और विज्ञान एक साथ रह सकते हैं या नहीं? यह बहस भी निरर्थक ही होगी कि धर्म के रहते विज्ञान प्रगति कर सकता है या नहीं, क्योंकि विश्व भर में आजतक विज्ञान की जो प्रगति हमने देखी, सुनी या पढ़ी है वह धर्म के रहते ही हुई है। विज्ञान के आने से धर्म विश्व से विलुप्त नहीं हो गया। यदि भारतीय इतिहास को देखें तो पाएंगे कि सनातन धर्म ने शायद ही कभी विज्ञान का विरोध किया हो। दरअसल देखा जाए तो सनातन धर्म निज रूप में विज्ञान सम्मत धर्म रहा है।
फिर प्रश्न यह उठता है कि एक धार्मिक व्यक्ति वैज्ञानिक हो सकता है या नहीं? इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जिनमें धर्म में आस्था रखने वाले लोग वैज्ञानिक ही नहीं बड़े वैज्ञानिक या गणितज्ञ हुए हैं। भारत में तो हमारे ऋषियों और मुनियों ने ही विज्ञान की लगभग हर शाखा पर काम किया या अपने सिद्धांत प्रतिपादित किये। उन्होंने चिकित्सा विज्ञान से लेकर अणु विज्ञान और गणित से लेकर खगोल विज्ञान तक, विज्ञान की लगभग हर शाखा को प्रभावित किया। हाल के इतिहास पर दृष्टि डालें तो सबसे बड़ा उदाहरण गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन का है, जिन्होंने धर्म में निज आस्था और गणित के अपने समीकरणों के लिए किसी अलौकिक शक्ति से प्रेरणा और सहायता की बात की थी।
धर्म और विज्ञान के एक साथ एक समय में विकसित होने की बात केवल भारत तक सीमित नहीं है। धर्म और दर्शन के प्रति आइजक न्यूटन के विचार जगजाहिर हैं। केवल NASA में ही नहीं, और स्पेस एजेंसी में काम करने वालों ने अपनी अंतरिक्ष यात्राओं से पहले अपनी चर्च यात्रा और प्रार्थना की बात कही और लिखी है। हाल के सबसे चर्चित शोधों में एक हिग्ग्स बोसोन (गॉड पार्टिकल) प्रयोग स्विट्जरलैंड के CERN लैब में हुआ, जहाँ भगवान शिव नटराज के रूप में विराजमान हैं। ऐसे में यह कहना कि हिन्दू धर्म विज्ञान के विरोध में खड़ा होता है, एक छिछला विचार है और इसका मूल शायद हिन्दू या हिंदुत्व के प्रति घृणा में है न कि विज्ञान के प्रति समर्थन में।
NASA के ट्वीट और उसके उत्तर-प्रत्युत्तर में समर्थन, घृणा, आलोचना से लेकर तर्क और कुतर्क तक, सब कुछ दिखाई दिया, पर जो बात एक बार फिर से साबित हुई वह है हिन्दुओं और हिंदुत्व के प्रति घृणा, जो सोशल मीडिया में हो या फिर परंपरागत मीडिया में, आजकल मिशन मोड में प्रस्तुत की जाती है। वैसे यह कोई नई प्रवृत्ति नहीं है पर जो बात नई है वह है कि आजकल इस मिशन में धर्मवादी, जातिवादी, बुद्धिवादी, विज्ञानवादी, अज्ञानवादी, बुद्धिजीवी, आन्दोलनजीवी, तथाकथित समाज सुधारक, आस्तिक प्रचारक और नास्तिक विचारक, सब अंशदान करते हैं। इस सोच के पीछे कारण शायद यह है कि हिंदुत्व के विरुद्ध जितने अधिक मोर्चे रहेंगे उतना अच्छा। ऐसे में जो विरोध पहले धर्मवादियों या वामपंथियों तक सीमित था, उसकी कई और शाखाएँ खुल गई हैं। सूचना युग में आक्रमण के समय अलग-अलग गुटों के बीच समन्वय वैसे भी पहले जितना कठिन नहीं रहा, इसलिए मिशन के रूप में यह काम आसान हो जाता है।
ऐसा नहीं कि हिन्दू या हिंदुत्व के प्रति घृणा कोई नई बात है। यह पुरानी बात है। हाँ, हाल के वर्षों में जो नई बात सामने आई है वह घृणा से नहीं, बल्कि उसके प्रदर्शन से संबंधित है। पहले हिन्दू विरोधियों को घृणा के प्रदर्शन की आवश्यकता बहुत कम पड़ती थी, क्योंकि तब राजनीतिक सत्ता के साथ-साथ राजनीतिक और सामाजिक विमर्श की शक्ति इनके अधीन थी। तब ये इस बात से आश्वस्त थे कि न केवल हिन्दू बल्कि हिंदुत्व भी इनके नियंत्रण में है। ऐसे में ये हिन्दुओं से घृणा करते तो थे, पर दुनियाँ के सामने ऐसा करते हुए दिखना नहीं चाहते थे। अब इन्हें घृणा के प्रदर्शन की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है, क्योंकि ये शक्ति इनके हाथ से निकलती जा रही हैं।
आज जो दिखाई दे रहा है वह राजनीतिक सत्ता तथा राजनीतिक और सामाजिक विमर्श के हाथ से निकलते हुए महसूस करने की कसमसाहट है। यह शायद इसलिए भी है क्योंकि इनके पास ऐसी स्थिति के लिए कोई योजना नहीं थी, जो हिन्दुओं या हिंदुत्व पर इनके नियंत्रण के चले जाने के बाद बनी है। या फिर इन्होंने ऐसी किसी स्थिति की कल्पना ही नहीं की थी।
हिन्दुओं और हिंदुत्व के प्रति घृणा का जो प्रदर्शन आजकल जगह-जगह किया जाता है, उसे करने वालों ने हिन्दू घृणा के स्वरूपों को इतनी परिभाषाएँ दे रखी हैं कि उनके लिए सब कुछ सुविधाजनक और लचीला हो गया है। आवश्यकता पड़ने पर ये ब्राह्मण से घृणा को ही हिन्दू धर्म से घृणा बता सकते हैं और हिन्दू धर्म से घृणा को ब्राह्मणों से घृणा बता सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर संघ और मोदी के प्रति घृणा को हिन्दुओं और हिंदुत्व के प्रति घृणा बना सकते हैं और हिन्दुओं और हिंदुत्व के प्रति घृणा को संघ और मोदी के प्रति घृणा बना सकते हैं। यही कारण है कि अपनी इस घृणा को न्यायसंगत सिद्ध करने के लिए आज इन्हें अब एक या दो से अधिक मुखौटों की आवश्यकता पड़ती है। इसीलिए आज घृणा के इस प्रदर्शन में हर तरह के लोग शामिल हैं।
घृणा का यह प्रदर्शन भविष्य में और तीव्र होगा। पिछले कुछ वर्षों में हिंदुत्व के प्रति देसी घृणा को विदेशी घृणा का समर्थन मिला है। अब तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाएँ और व्यक्ति खुलकर इसका हिस्सा बनते हुए नजर आते हैं। ऐसे में अब कुछ भी ढँका या छिपा हुआ नहीं रहता। NASA के ट्वीट के उत्तर में प्रतिमा रॉय और हिन्दू देवी देवताओं पर आई प्रतिक्रियाएँ भी इस बात को ही उजागर करती हैं कि विरोध करनेवालों का सरोकार विज्ञान के समर्थन में नहीं है। उनकी घृणा केवल हिंदुत्व के प्रति है, जिसे विज्ञान के समर्थन का मास्क पहना दिया गया है।