पत्रकार तवलीन सिंह ने हमारे रविवार को बोरिंग होने से बचा लिया। आज उन्होंने नसीरुद्दीन शाह और उन इस्लामवादियों का ‘बचाव’ करने का जिम्मा उठाया है जिन्होंने ‘हिंदुत्व ट्रोल्स’ पर उन्हें गाली देने का आरोप लगाते हुए उन्हें खारिज कर दिया था। बॉलीवुड अभिनेता नसीरुद्दीन शाह द्वारा अफगानिस्तान में तालिबान की जीत का जश्न मनाने के लिए भारतीय मुसलमानों की आलोचना करने के बाद से तमाम भारतीय मुस्लिम, तथाकथित लिबरल-वामपंथी पत्रकारों सहित कट्टरपंथी मुस्लिमों की लॉबी पुरस्कार विजेता अभिनेता को गाली देने और लताड़ने के लिए खुलेआम सोशल मीडिया पर नंगई पर उतर आई।
बता दें कि नसीरुद्दीन शाह ने एक वीडियो जारी कर हिन्दुस्तानी मुसलमानों से शांति और अहिंसा का पालन करने और कट्टरपंथी बहशी इस्लामी समूह का समर्थन नहीं करने के लिए कहा था। तवलीन सिंह ने नसीरुद्दीन शाह पर अपने कॉलम में पाँच बिल्कुल बकवास बातें कही हैं।
नसीरुद्दीन शाह पर ‘दाढ़ी वाले मुल्लाओं’ ने किया हमला
तवलीन के दावों के विपरीत, ‘लिबरल’ और खुद को ‘मोडरेट’ बताने वाले भारतीय मुस्लिम नसीरुद्दीन शाह द्वारा तालिबान का पक्ष लेने के खिलाफ सलाह देने से काफी नाखुश थे।
वह अपने कॉलम में दावा करती है, “दाढ़ी वाले मुल्लाओं द्वारा एक साथ हमला कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।” ऊपर के ट्वीट के स्क्रीनशॉट में आप देख सकते हैं कि तथाकथित पत्रकार सबा नकवी और AAP समर्थक ब्लॉग जनता का रिपोर्टर के संपादक रिफत जवैत शायद ही ‘दाढ़ी वाले मुल्ला हैं जिनके माथे पर नमाज के निशान हैं।’
अविश्वसनीय रूप से द वायर की पत्रकार, जो शाह द्वारा युवा भारतीय मुसलमानों को तालिबान का महिमामंडन करने के खिलाफ चेतावनी देने से नाराज थी, वह भी एक ‘दाढ़ी वाला मुल्ला’ है।
तो आप देखिए, नसीरुद्दीन शाह की टिप्पणियों से नाखुश दाढ़ी वाले, रूढ़िवादी और मजहबी उन्मादी व्यक्ति नहीं थे। तालिबान पर नसीरुद्दीन शाह की टिप्पणियों से न केवल दाढ़ी वाले, रूढ़िवादी और अत्यधिक मजहबी लोग परेशान थे, बल्कि शिक्षित मुसलमान, जिनमें से कई पत्रकार हैं, वो भी शाह की टिप्पणियों से नाखुश थे। तवलीन सिंह ने इस हिस्से को छोड़ दिया। इससे पता चलता है कि कैसे वह सिर्फ इस मुद्दे को उलझाना चाहती थी और दोष ‘हिंदुत्व ट्रोल्स’ पर डालना चाहती थी।
‘हिंदुत्व ट्रोल्स ने नसीरुद्दीन शाह का मजाक उड़ाया’
तवलीन सिंह को लगता है कि पिछले साल भारत के मुसलमानों के लिए असुरक्षित होने का दावा करने के लिए नसीरुद्दीन शाह से सवाल करना और उनका ‘मजाक’ उड़ाना, शाह द्वारा तालिबान का महिमामंडन न करने के लिए कहने पर भारतीय मुसलमानों द्वारा शाह पर किया गया हमला बड़ा अपराध था। उनका दावा है कि भारत में मुस्लिम होना आसान नहीं है। वह कथित ‘हेट क्राइम’ के मामलों के बारे में बात करती हैं, जहाँ ‘जय श्री राम’ का नारा नहीं लगाने पर मुस्लिम युवकों को पीटा जाता है। वह इसका जिक्र करते हुए भूल जाती हैं कि अधिकतर मामलों में यह फर्जी ही निकला।
14 जून को ऑल्ट न्यूज के सह संस्थापक मोहम्मद जुबैर ने पीड़ित बुजुर्ग का वीडियो ट्वीट किया (जो वह अब डिलीट कर चुका है)। इसके साथ उसने लिखा, “एक बुजुर्ग आदमी, सूफी अब्दुल समद सैफी पर गाजियाबाद के लोनी में 5 गुंडों ने हमला किया। उन्हें बंदूक की नोंक पर मारा गया, प्रताड़ित किया गया और जबरदस्ती उनकी दाढ़ी काट दी गई।”
इसके बाद पीड़ित का पक्ष रखते हुए जुबैर ने एक और वीडियो डाली और साथ ही पीड़ित पक्ष के नाम पर ये लिखा, “ये अब्दुल समद सैफी की घटना को बयान करते हुए पूरी वीडियो है। उनका दावा है कि उनसे जबरदस्ती जय श्रीराम का नारा बुलवाया गया।”
बाद में पुलिस ने मामले की सच्चाई बताते हुए किसी भी तरह से सांप्रदायिक एंगल होने से इनकार किया। 14 जून को ही पुलिस ने पूरे मामले के संबंध में अपनी जाँच के बाद पक्ष रखा। बताया गया ये घटना जून 5, 2021 की है, जिसके बारे में पुलिस के समक्ष 2 दिन बाद रिपोर्ट दर्ज कराई गई। पुलिस ने जाँच की तो पाया कि पीड़ित अब्दुल समद बुलंदशहर से लोनी बॉर्डर स्थित बेहटा आया था। वो एक अन्य व्यक्ति के साथ मुख्य आरोपित परवेश गुज्जर के घर बंथना गया था। वहीं पर कल्लू, पोली, आरिफ, आदिल और मुशाहिद आ गए।
वहाँ पर बुजुर्ग के साथ मारपीट शुरू कर दी गई। अब्दुल समद ताबीज बनाने का काम करता था। आरोपितों का कहना था उसके ताबीज से उनके परिवार पर बुरा असर पड़ा। अब्दुल समद गाँव में कई लोगों को ताबीज दे चुका था। आरोपित उसे पहले से ही जानते थे। यहाँ फर्जी ‘हेट क्राइम’ की 20 ऐसी घटनाएँ हैं जहाँ मुस्लिम युवकों ने झूठा दावा किया था कि उन्हें ‘जय श्री राम’ का नारा लगाने के लिए मजबूर किया गया था।
मुशायरा और कव्वाली
तवलीन सिंह भारतीय इस्लाम को इस तरह परिभाषित करती हैं जैसे कि यह मुशायरों, कव्वाली, निहारी और बिरयानी के बारे में है। मानो तालिबान जैसे कट्टरपंथी और इस्लामी गुट मुशायरे और बिरयानी का लुत्फ खुद नहीं उठाते। नसीरुद्दीन शाह ने एक प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक गुलफ़ाम हसन की भूमिका निभाई, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए और दिल्ली में नियमित संगीत कार्यक्रम आयोजित करते हैं। वह फिल्म में पाकिस्तानी खुफिया विभाग के लिए भी काम करते थे और भारत के साथ युद्ध करना चाहते थे। तो स्पष्ट रूप से, मुशायरा और बिरयानी से प्यार करने वाले मुसलमान कट्टरपंथी नहीं हो सकते हैं, यह एक बहुत ही अजीब स्थिति है।
यहाँ तवलीन ‘भारतीय इस्लाम’ के बारे में कहती हैं: “शाह सही कहते हैं जब वे कहते हैं कि भारतीय इस्लाम एक ऐसे धर्म के रूप में विकसित हुआ जो आधुनिकता से अच्छी तरह निपटता है। इसलिए, एक प्राइमटाइम शो में हिंदुत्व की एक प्रमुख घोषणा को सुनकर मुझे झटका लगा कि केवल एक तरह का इस्लाम और एक ही तरह का मुसलमान था। फिर उन्होंने कुरान की आयतों की संख्या का जिक्र किया जो काफिरों और नास्तिकों के खिलाफ हिंसा की सलाह देते हैं।”
यह वास्तव में सच है कि केवल एक ही प्रकार का इस्लाम है जो कुरान में विश्वास करता है और इस्लामी पवित्र पुुस्तक कुरान के अनुसार जो अल्लाह को नहीं मानते हैं, उन काफिरों को मारना और उनका सिर काटना जायज है।
90 के दशक में भारतीय मुसलमानों के लिए चीजें बदलने लगीं
तवलीन सिंह ने बिना स्पष्ट हुए भारतीय मुसलमानों को दोष देने की कोशिश की कि उनकी धार्मिक पहचान अयोध्या में राम जन्मभूमि पर विवादित ढाँचे के विध्वंस का परिणाम है जिसे अक्सर ‘बाबरी मस्जिद’ कहा जाता है। 6 दिसंबर 1992 को संरचना को ध्वस्त कर दिया गया था, जिससे देश में व्यापक सांप्रदायिक दंगे हुए। वह कश्मीर में 90 के दशक के बारे में बात करती है, लेकिन बड़ी धूर्तता से कश्मीरी हिंदू पलायन को नजरअंदाज करती है, जहाँ इस्लामियों और पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवादियों ने हिंदुओं को उनके घरों से भगा दिया।
तवलीन, कई ‘लिबरलों’ की तरह यह कहना चाहती हैं कि भारत में कट्टरपंथी इस्लाम के बीज 1990 के दशक में ही बोए गए थे। हालाँकि, सच्चाई इससे कोसो दूर है। हमें आजादी के बाद भारत के विभाजन के रूप में ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है, जब मुस्लिम कट्टरपंथियों ने भारत के एक हिस्से को अलग इस्लामिक देश बना दिया और हम इस बारे में भी बात नहीं करते हैं कि कैसे लाखों बंगाली हिंदुओं का नरसंहार किया गया। या फिर 1921 में केरल में मोपला नरसंहार, जहाँ सिर्फ हिंदू होने के कारण हजारों हिंदू मारे गए थे।
सच्चाई यह है कि भारत में कट्टरपंथी इस्लाम के बीज 70 और 80 के दशक के अंत में बोए गए थे और सऊदी अरब ने सलाफीवाद और वहाबवाद का अंतर्राष्ट्रीय प्रचार शुरू किया था। मुस्लिम और गैर-मुस्लिम बहुसंख्यक वाले देशों में सैकड़ों इस्लामिक कॉलेज, इस्लामिक केंद्र, मस्जिद, मदरसे बनाए गए। कुरान की लाखों प्रतियाँ दुनिया भर में छपी और वितरित की गईं।
लगभग 70 और 80 के दशक में, कई भारतीय, विशेष रूप से मुसलमान काम के लिए सऊदी अरब और अन्य खाड़ी देशों में गए। इस पैसे से भारत में ग्रामीण इलाकों सहित बड़ी मस्जिदें और मदरसे बनाए गए। भारत में मुसलमान अब अपनी पहचान मुसलमानों के रूप में करने लगे थे और अपने धर्म को बिना मिलावट के जानना और अपनाना चाहते थे।
इसके बाद राजीव गाँधी सरकार द्वारा शाह बानो के फैसले को पलट दिया गया। 1986 में, राजीव गाँधी के नेतृत्व वाले भारतीय राज्य ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के लिए एक खतरनाक मिसाल कायम की। मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य मामले एवं 1986 में राजीव गाँधी सरकार द्वारा पारित कानून को अक्सर भारत के राजनीतिक इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण क्षणों में से एक के रूप में याद किया जाता है।
तो, नहीं, तवलीन सिंह, आपने अपने मुशायरों और संगीत कार्यक्रमों से ब्रेक लेने के बाद 90 के दशक में भारत में कट्टरपंथी इस्लाम पर ध्यान दिया होगा, लेकिन कट्टरपंथी तत्व हमेशा आसपास रहे हैं।
भारतीय मुसलमानों ने भारतीय धर्मों से सीखा
तवलीन ने अंत में कहने के लिए बेहतरीन बेतुकी बातों को सहेज कर रखा था। अंत में, सिंह का दावा है कि भारतीय मुसलमानों ने ‘आधुनिक दुनिया के साथ बेहतर व्यवहार’ किया है और उन्होंने भारतीय धर्मों से बहुत कुछ सीखा है। नहीं, तलवीन, कोई भारतीय मुसलमान, यहाँ तक कि एक शिक्षित व्यक्ति भी इसे स्वीकार नहीं करेगा। यह बकवास है।
इसके अलावा, अन्य भारतीय धर्मों के लोगों के साथ भारतीय मुसलमान कितनी अच्छी तरह रहते हैं, इसका प्रदर्शन देखने के लिए, कश्मीर पर एक नज़र डालें, जहाँ हिंदुओं को उनके घरों से निकाल दिया गया था और उन्हें वापस अपने घर जाने के लिए अनुच्छेद 370 को निरस्त होने तक 30 वर्षों तक इंतजार करना पड़ा था। हाल ही में उत्तर प्रदेश के नूरपुर में, हिंदुओं को मुस्लिमों के डर से अपने घरों पर ‘मकान बिकाऊ है’ बोर्ड लगाना पड़ा।
इसके अलावा, पाकिस्तान 1947 में विभाजन तक केवल भारतीय इस्लाम था। आज देखिए पाकिस्तान में अल्पसंख्यक कहाँ खड़े हैं। यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी इस्लामी देशों में धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ उत्पीड़न नहीं होता, तो भारत सरकार को उन लोगों के लिए भारतीय नागरिकता में तेजी लाने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम लाने की आवश्यकता नहीं होती।
सुरक्षित और पॉश जगहों पर रहते हुए तवलीन सिंह जो कहती हैं, वह उनके अच्छे अच्छे शब्द हैं। और अब जबकि उनके जैसे लोगों ने इसे इतनी बार दोहराया है कि वे उनके यूटोपिया पर विश्वास करने लगे हैं।