Monday, November 4, 2024
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याकूब समर्थक आयशा और जिहाद का ऐलान करने वाली लदीदा: पहले से तैयार है जामिया का स्क्रिप्ट?

शाहीन अब्दुल्लाह का नाम जान लीजिए। ये वही आदमी है, या फिर छात्र कह लीजिए, जो पुलिस से बचते हुए वहीं जाकर छिपता है जहाँ लदीदा और आयशा रहती है। वह पुलिस से मार खाता है, दोनों युवतियाँ उसे बचाती है। इससे ज्यादा क्या चाहिए किसी आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिला कर सरकार पर दबाव बनाने के लिए? अब्दुल्लाह 'मकतूब मीडिया' के लिए पत्रकार का काम करता है।

जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों का विरोध प्रदर्शन हिंसा और आक्रामकता के दौर से ऐसा गुजरा कि कई बसों में आग लगा दी गई और 100 से अधिक वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। जामिया कैम्पस में पुलिस को घुसना पड़ा और उपद्रवियों को नियंत्रित किया गया। जामिया के छात्रों ने पुलिस पर बर्बरता से पेश आने का आरोप लगा। पुलिस ने बताया कि उपद्रवियों को खदेड़ने के लिए लाठीचार्ज और आँसू गैस के गोले छोड़ने पड़े। जामिया के कई छात्रों ने वीडियो शेयर कर यह दिखाने का प्रयास किया कि पुलिस उन्हें पीट रही है और क्रूरता से पेश आ रही है।हालाँकि, कई फोटोज में कुछ कॉमन भी था।

एक युवती है, जो जामिया की छात्रा है। वो कई फोटो में दिख रही है। विरोध प्रदर्शन करते हुए। पुलिस की लाठी से साथियों को कथित रूप से बचाते हुए। मोदी और भाजपा के ख़िलाफ़ नारेबाजी करते हुए। मीडिया के गिरोह विशेष ने जिस छात्रा को नायिका बना रखा है, उसका नाम है- आयशा रेना। आयेशा की एक फोटो एनडीटीवी की पूर्व पत्रकार बरखा दत्त के साथ भी वायरल हुई है। आख़िर वो हर फोटो में क्यों दिख रही है और क्या उसे आंदोलन का चेहरा बना कर पेश किए जाने की कोशिश हो रही है, यह सवाल जायज है।

क्या आयशा को एक ‘वीर, बहादुर और साहसी’ युवती की तरह पेश किया जा रहा है, जो हिजाब लपेटे हुए भारत सरकार की ‘दमनकारी नीतियों’ के ख़िलाफ़ एक चेहरा बन कर उभरे और उपद्रवियों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल हों? शक होना लाजिमी है क्योंकि आयशा आतंकवादियों की समर्थक है। याकूब मेमन की समर्थक है। वो भारत को एक फ़ासिस्ट देश मानती है आयशा की नज़र में सरकार नहीं, मोदी नहीं बल्कि ये पूरा का पूरा देश ही फासिस्ट है। याकूब कौन है? ये वही आतंकी है, जिसका 1993 में हुए मुंबई बम धमाकों में हाथ था। यानी, 317 लोगों की हत्या का एक गुनहगार। उसे 30 जुलाई 2015 को फाँसी पर लटका दिया गया।

एक आतंकी को सज़ा-ए-मौत दिया जाना आयशा को पसंद नहीं आया और उसने देश को फासिस्ट बताते हुए कहा कि माफ़ करना याकूब, हम तुम्हें बचा नहीं पाए। एक आतंकवादी, जिसका हाथ सवा 300 लोगों के ख़ून से रंगा हुआ है, उसका समर्थन करने वाली युवती आज मोदी सरकार के ख़िलाफ़ चल रहे विरोध प्रदर्शन का मुख्य चेहरा बन कर उभर रही है, या फिर जबरन उभारी जा रही है।

आयशा, याकूब मेमन की समर्थक है

बरखा दत्त ने तो रेना की तारीफों के पुल बाँधे। उसके अलावा बरखा दत्त ने लदीदा फरज़ाना का भी नाम लिया, जो इस्लाम और कुरान को लेकर वीडियो बनाती है। जामिया मिलिया इस्लामिया की 3 छात्राओं की प्रोफाइल कई मीडिया हाउस ने पहले ही तैयार कर ली थी, जैसे आउटलुक में उसके बारे में कुछ दिन पहले ही काफ़ी कुछ छप गया था। आख़िर यह सब किसके इशारे पर हुआ? मीडिया में कुछ लोग तो हैं ऐसे जो एजेंडा सेट कर रहे हैं, उसके लीडर तय कर रहे हैं और पहले से तैयारी कर के नैरेटिव सेट कर रहे हैं? बरखा दत्त का नाम आते ही स्थिति और भी संदेहास्पद हो जाती है।

ऐसा हम कोई मज़ाक में नहीं कह रहे। ‘आउटलुक’ जैसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थान ने तो जामिया के दंगाइयों की तुलना ‘अरब स्प्रिंग’ से भी कर दी। वो ये भूल गए कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जबकि अरब में आंदोलन तानाशाही के ख़िलाफ़ हुआ था। लदीदा अरबी की ही छात्र है। वो जामिया में प्रथम वर्ष की छात्रा है। लदीदा 2 सालों से भाषण वगैरह दे रही है। वो तैयार हो रही थी, किसी बड़े आंदोलन के लिए। आंदोलन नहीं, इसे उपद्रव कह लीजिए। तैयार की जा रही थी। कुछ लोग थे, जिन्हें पता था कि ऐसी युवतियों का समय आने पर इस्तेमाल किया जा सकता है और अभी ऐसा ही हो रहा है।

सूडान में ‘आला सलाह’ नामक एक युवती के कुछ वीडियो वायरल हुए थे। वो गाने गाकर विरोध करती थी। ‘आउटलुक’ ने लदीदा की तुलना उससे ही की। मीडिया का एक बड़ा वर्ग दुनियाभर के बड़े प्रदर्शनों की तरह, उन विरोध प्रदर्शन में शामिल नायक-नायिकाओं की तरह, कुछ लोगों को यहाँ भी उसी तर्ज पर उभारना चाहता था और लदीदा का फेसबुक वाल देख कर सब साफ़ हो जाता है। वो बद्र, उहद और कर्बला का जिक्र करती हैं। ये सभी वो लड़ाइयाँ हैं, जो इस्लामी समाज ने शुरुआत में लड़ी थी। वो लड़ाई, जो काफिरों के ख़िलाफ़ लड़ी गई थी। याद रखिए, इस्लाम में हिन्दुओं को भी अरसे से काफिरों के रूप में पहचाना गया है। क्या जामिया का आंदोलन या दंगा भी उसकी ही एक चिंगारी है, जिसे ‘काफिरों के खात्मे’ के लिए शुरू किया गया है।

काफिरों के ख़िलाफ़ जिहाद का ऐलान करती लदीदा

लदीना सोशल मीडिया में जिहाद की बातें करती हुई दिखती हैं। वो ‘ला इलाहा इल्लल्लाह मोहम्मद रसूल अल्लाह’ का नारा लगाते हुए दिखती हैं। इन चीजों से उनकी मंशा साफ़ हो जाती है। लदीदा का जिहाद अहिंसा का पाठ तो नहीं है, इतना स्पष्ट है। ये जो भी है, उसकी बानगी हमें देखने को मिल चुकी है- बंगाल में, जामिया नगर में। लदीदा भारत से नफरत करने वाली युवती है। वो भारत को ‘मिडिल फिंगर’ दिखाती है। कठुआ रेपकांड के बाद उसने भारत को ‘मिडिल फिंगर’ दिखाते हुए इमोजी पोस्ट की थी। देश से नफरत करने वाली इस युवती को मसीहा बना कर उभारने का प्रयास जारी है, उसी देश में।

फिर से थोड़ा पीछे चलिए। शाहीन अब्दुल्लाह का नाम जान लीजिए। ये वही आदमी है, या फिर छात्र कह लीजिए, जो पुलिस से बचते हुए वहीं जाकर छिपता है जहाँ लदीदा और आयशा रहती है। वह पुलिस से मार खाता है, दोनों युवतियाँ उसे बचाती है। एक परफेक्ट फुटेज तैयार हो जाता है। एक पीड़ित छात्र, एक ‘लोकतान्त्रिक छात्र आंदोलन’, दो ‘साहसी’ महिलाएँ और बर्बर ‘भारत देश की पुलिस’। इससे ज्यादा क्या चाहिए किसी आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिला कर सरकार पर दबाव बनाने के लिए? अब्दुल्लाह ‘मकतूब मीडिया’ के लिए पत्रकार का काम करता है।

‘मकदूब मीडिया’ केरल से चलता है। लदीदा भी केरल की ही है। इस तरह से सारी कड़ियाँ जुड़ती हुई चली जाती हैं। आखिर केरल के इस पत्रकार को पुलिस क्यों खदेड़ रही थी? क्या पुलिस के साथ कुछ ऐसी हरकत की गई थी, जिससे पुलिस ने मज़बूरी में शाहीन अब्दुल्लाह को खदेड़ा और फिर वह वहीं जाकर छिपा जहाँ पर लदीदा और आयशा थी? क्या यह सब स्क्रिप्ट पहले से तैयार कर लिया गया था, जिसमें पुलिस को वहाँ पर लाया गया, जहाँ जिहाद का ऐलान करने वाले लोग चाहते थे? उस वीडियो को आप गौर से देखिए। पता चलता है कि वीडियो को किसी हाई क्वालिटी कैमरे से शूट किया गया है, एकदम सटीक एंगल के साथ।

लदीना का वो फोटो देखिए, जिसमें वो दीवार पर खड़ी हुई दिख रही है। सूडान की सलाहा भी कुछ इसी तरह खड़ी हुई थी, कार पर। उससे एक क़दम और आगे जाते हुए लदीदा और अन्य युवतियाँ दीवार पर खड़ी हुई। सूडान के आंदोलन को नक़ल करने की पूरी कोशिश। ‘फर्स्टपोस्ट’ में 8 बजे लदीदा का एक लेख आता है, उसकी बाइलाइन। उसके एक घण्टे बाद ही उसका वीडियो आता है, ‘फर्स्टपोस्ट’ में उसके बारे में ख़बर प्रकाशित होती है। यह 16 नवंबर की शाम की बात है। आप भी कहेंगे- इस साज़िश के सूत्रधारों ने क्या होमवर्क किया था! वाह!

छात्रों का इस्तेमाल कर के मोदी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन कर अपना उल्लू सीधा किया जा रहा है। ऐसा करने वाले लोग मीडिया के बड़े चेहरे हैं, जो अल्पसंख्यक युवतियों के जरिए मोदी सरकार के ख़िलाफ़ माहौल बनाते हैं। शेहला रशीद भी उसी कड़ी का एक हिस्सा भर थी। अब लदीदा है। आयशा है। कल को किसी और यूनिवर्सिटी में छात्रों को दंगाई बना दिया जाएगा। किसी और देश के आंदोलन को कॉपी किया जाएगा। कोई नया ‘हीरो’ या ‘Shero’ निकल कर आएगा या आएगी। सावधान रहिए, मासूम चेहरों का मास्क बना कर भेड़ियें खेल रहे हैं। काफिरों के ख़िलाफ़ जिहाद का ऐलान करने वाले ‘लोकतंत्र की हत्या’ का नैरेटिव चलाने वालों से जा मिले हैं। आगे ये क्रम और भी हिंसक होगा।

नोट: इस लेख को लिखने में ट्विटर हैंडल Be’Havin!(@WrongDoc·2h) के एक थ्रेड की मदद ली गई है। उनका रिसर्च काबिले तारीफ है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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