आज के जाने-माने अदाकार नवाजुद्दीन सिद्दिकी का शुरुआती दौर याद है क्या? मुन्ना भाई एमबीबीएस में वो एक जेबकतरे की छोटी सी भूमिका में दिखते हैं। नायक के पिता का किरदार निभा रहे सुनील दत्त जैसे ही मुम्बई में रेलगाड़ी से उतरते हैं, वो उनकी जेब काटने की कोशिश करता है, मगर पकड़ा जाता है। भीड़ इकट्ठा होती है, लोग चोर को मारने पर आमादा होते हैं। उसे पकड़े हुए सुनील दत्त कहते हैं, कर दूँ इस भीड़ के हवाले?
यहाँ कोई अपने ऑफिस से बॉस की डाँट खाकर आया है, कोई बीवी से तो कोई बच्चों से, कोई पड़ोसियों से झगड़ के नाराज है। हरेक के पास अपनी अपनी नाराजगी है, सब गुस्सा निकालना चाहते हैं। सुनील दत्त उस वक्त चोर बने नवाजुद्दीन को बचा लेते हैं। लोगों को याद आ जाता है कि नाराजगी तो किसी और बात की है और वो उसे कहीं और निकालने जा रहे थे। हर बार भीड़ को समझाने की कोशिश करता कोई नहीं मिलता। हर बार भीड़ मानती भी नहीं।
ऐसी ही भीड़ की पिटाई को मॉब-लिंचिंग कहते हैं। एक समुदाय विशेष जब इस भीड़ की पिटाई का शिकार होकर मारा जाता है तो उस पर कीमत देकर खरीदे जाने वाले अख़बारों और टीवी चैनलों में खूब शोर होता है। मारा जाने वाला कोई डॉ. नारंग या दिल्ली का ई-रिक्शा वाला रविन्द्र हो, तो कोई पूछने नहीं जाता। हाँ ये जरूर है कि ऐसी घटनाओं को एक धर्म के रंग में रंगने की हर संभव कोशिश किराये की कलमों ने की है। ये वही किराये की कलमें हैं जो आम तौर पर कहती हैं कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता।
भारत की धीमी न्याय व्यवस्था ने लोगों की सोच जरूर बदली है। इसमें हिन्दी फिल्मों की खासी भूमिका रही है। अपराधी को सजा न मिलने पर बाद में पीड़ित परिवार का बेटा हथियार उठा ले, इस कहानी को लेकर अनगिनत फ़िल्में बनी हैं। किसी दौर में मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों में बहन का किरदार होता ही इसलिए था ताकि खलनायक उसका बलात्कार कर सके और बाद में नायक उसका हिंसक प्रतिशोध ले। इनके असर से धीरे-धीरे लोगों के लिए नैतिकता के मायने बदले।
आज आम लोग संस्था की कानूनी प्रक्रिया की प्रतीक्षा किए बिना त्वरित न्याय कर डालना चाहते हैं। चोर के पकड़े जाने, या किसी युवती के साथ अश्लील व्यवहार के इल्जाम पर जो भीड़ की पिटाई है, वो इसी का नतीजा है। थाने जाकर मुश्किल से लिखाई जा सकने वाली रिपोर्ट और जो कहीं रिपोर्ट लिखवा भी ली तो लम्बी अदालती करवाई का इन्तजार कौन करे? व्यवस्था की कमियों का नतीजा कई बार निर्दोष भी भुगतते हैं। गिद्ध ऐसी ही घटनाओं के इन्तजार में बैठे होते हैं।
फर्जी ख़बरों यानि #FakeNews की फैक्ट्री और व्हाट्स-एप्प यूनिवर्सिटी चलाने वालों के हाथ अभी हाल में हरियाणा का एक मामला आ गया। अचानक शोर मच गया कि एक समुदाय विशेष को भारत के तथाकथित बहुसंख्यक जीने नहीं दे रहे! मामूली जाँच में ही पोल खुल गई कि विवाद क्रिकेट को लेकर हुआ था और मार-पीट बढ़ गई थी। झूठ का पर्दाफाश होने के बाद भी ये उम्मीद मत रखिए कि दिल्ली के ठग और #बेगुसरायकाबकैत अपनी बेशर्मी के लिए कोई माफ़ी माँगेंगे। ये वो लोग हैं जो अपने गिरोह के लोगों या खुद की की हुई यौन शोषण, बलात्कार जैसी हरकतों पर भी चुप्पी साधते हैं।
मॉब-लिंचिग को याद ही करना है तो पत्रकारिता का वो दौर याद कीजिए जब ‘प्रताप’ जैसे पत्र थे और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकार। गाँधीवादी गणेश शंकर विद्यार्थी के समय तक एमके गाँधी ने कॉन्ग्रेस छोड़ी नहीं थी (वो 1936 में कॉन्ग्रेस से अलग हुए थे)। इसके वाबजूद वो सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के समर्थक थे। 1931 में कॉन्ग्रेस ने जब जुलूस निकाला था तो गणेश शंकर विद्यार्थी एक बैठक से लौट ही रहे थे। उस समय तक कानपूर में दंगा भड़क चुका था। ऐसे ही उपद्रवियों की एक भीड़ को समझाने की कोशिश कर रहे गणेश शंकर विद्यार्थी को आज ही के दिन, 25 मार्च 1931 को तेज धार वाले हथियारों से काट डाला गया।
बाकी भीड़ कौन से मजहब की थी ये सोचना बेमानी है, जाहिर है भीड़ का मजहब नहीं होता। हाँ भारत की पत्रकारिता और विशेष तौर पर हिन्दी पत्रकारिता ने गणेश शंकर विद्यार्थी को कितना याद रखा है, ये उनके लिखे में आज भी देखा जा सकता है।