इस साल की शुरुआत में सूरत नगर निगम चुनावों में 27 सीटें जीतकर उत्साहित आम आदमी पार्टी की निगाहें अब दिसंबर 2022 में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों पर हैं। फरवरी 2021 में हुए सूरत नगर निगम चुनावों में भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें (120 में से 93) मिलीं। वहीं ‘आप’ 27 सीटें जीतकर विपक्षी दल की भूमिका में है। हालाँकि, कॉन्ग्रेस इस चुनाव में अपना खाता भी नहीं खोल पाई थी।
इसलिए अब ‘आप’ को भरोसा है कि वह दिल्ली की तरह उद्यमी गुजरातियों को मुफ्त उपहार, स्कीम का झाँसा देकर लुभा सकती है। ‘आप’ सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार के निरंकुश शासन के बावजूद सूरत के प्रसिद्ध हीरा व्यवसायी महेश सवानी आम आदमी पार्टी में शामिल हुए। ‘आप’ ने मनीबैग रियाल्टार महेश सवानी, जिस पर अपहरण व जबरन वसूली का आरोप है और एक गुजराती पत्रकार इसुदान गढ़वी को अपनी पार्टी में शामिल किया है। ताकि वह हिंदू समाज के लोगों का विरोध झेल रहे गोपाल इटालिया जैसे नेताओं की भरपाई कर सकें।
गुजरात परंपरागत रूप से दो दलों वाला राज्य रहा है। यहाँ लोग या तो भाजपा (हाल के दिनों में मोदी) के वफादार हैं या कॉन्ग्रेस के वफादार हैं। इनके बीच में कोई भी नहीं है। यही कारण है कि कोई भी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल यहाँ अपनी जगह नहीं बना पाया है। इसके अलावा, 1998 के बाद से जब से केशुभाई पटेल ने भाजपा को जीत दिलाई, गुजरात में हमेशा भाजपा ही सत्ता में रही है। एक पूरी पीढ़ी सिर्फ बीजेपी शासनकाल में पली-बढ़ी है। ऐसे में ‘आप’ द्वारा गुजरात के चुनावी मैदान में कूदने को लेकर हम यहाँ क्या उम्मीद कर सकते हैं?
जाति की राजनीति का घिनौना सच
केजरीवाल ने वादा किया है कि वह यहाँ कि राजनीति बदल देंगे, लेकिन उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा कि वह यहाँ इससे बेहतर माहौल बनाएँगे। इसलिए यहाँ केवल जाति की राजनीति की जा रही है। आप देखिए, गुजरात में कॉन्ग्रेस जाति की राजनीति की अग्रदूत थी। पूर्व मुख्यमंत्री और कॉन्ग्रेस के बड़े नेता माधवसिंह सोलंकी वोट बैंक की राजनीति के लिए KHAM (Kshatriya, Harijan, Adivasi, Muslim) सिद्धांत लेकर आए थे।
‘आप’ सिर्फ इसे आगे बढ़ा रही है। 2017 के गुजरात विधानसभा चुनावों से पहले आम आदमी पार्टी ने पाटीदार समुदाय का समर्थन किया था, जहाँ अब कॉन्ग्रेस नेता हार्दिक पटेल ओबीसी समुदाय के रूप में आरक्षण के लिए आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। इटालिया एक ऐसे पाटीदार नेता हैं, जो हार्दिक पटेल के करीबी सहयोगी थे और अब गुजरात में आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष हैं।
सूरत में आरएसएस (RSS) के एक नेता ने ऑपइंडिया से बात करते हुए कहा कि आम आदमी पार्टी ने पाटीदार और मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट करने की कोशिश की है। पाटीदार भाजपा से असंतुष्ट हैं और मुसलमान कॉन्ग्रेस के लिए पारंपरिक वोट बैंक रहे हैं। उन्होंने कहा, “आम आदमी पार्टी एक सीधा खतरा नहीं है, लेकिन यह निश्चित रूप से एक सेंध लगाएगी। ऐसे में भाजपा को सत्ता में बने रहने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी होगी। यह एक अभूतपूर्व 25 साल की सत्ता विरोधी लहर है, जिसका भाजपा सामना कर रही है। गुजराती शायद ‘आप’ को एक मौका देना चाहते हैं।”
क्या आप गुजरात में सरकार बना सकती है?
गुजरात के एक वरिष्ठ पत्रकार ने ऑपइंडिया से बात करते हुए कहा कि यह कल्पना से परे है कि ‘आप’ वास्तव में गुजरात में सरकार बनाएगी। उन्होंने कहा, “आप महौल बनाकर असंतुष्ट भाजपा समर्थकों को अपनी पार्टी में शामिल कर रही है। केजरीवाल पाटीदार आंदोलन के दौरान पटेल वोट बैंक का फायदा उठाना चाहते थे। पटेलों में एक तरह का असंतोष है, जहाँ वे खुद नेता बनना चाहते हैं, जैसे हार्दिक पटेल, जिन्होंने नेता के रूप में उभरने के लिए जाति का कार्ड खेला। पटेल समुदाय उनकी बयानबाजी से प्रभावित हो गया, लेकिन जब वह कॉन्ग्रेस में शामिल हुए तो उनका मोहभंग हो गया।”
उन्होंने आगे कहा कि 2017 के चुनावों में पाटीदार समुदाय ने बीजेपी की बजाए कॉन्ग्रेस को वोट दिया था। हालाँकि, इस बार वे ‘आप’ को वोट दे सकते हैं, जिससे कॉन्ग्रेस को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ सकता है। उन्होंने कहा कि ‘आप’ 25 साल की सत्ता विरोधी लहर पर भरोसा कर रही है। केजरीवाल को लगता है कि इतने सालों से गुजरात में बीजेपी की सत्ता से लोग ऊब चुके हैं। 2017 में पहली बार वोट शेयर में मामूली वृद्धि के बावजूद बीजेपी सीट की संख्या 100 से नीचे चली गई थी। उन्होंने कहा कि जहाँ AAP को कुछ सीटें मिल सकती हैं, वहीं कॉन्ग्रेस 10-15 अपनी पारंपरिक सीटें जीत सकती हैं।
सूरत के एक आरएसएस नेता ने कहा, “गुजरात में कॉन्ग्रेस के पुनरुत्थान का कोई संकेत नहीं है।” हालाँकि, उन्होंने आशंका व्यक्त की कि ‘आप’ और कॉन्ग्रेस गुजरात में अपने दम पर सरकार नहीं बना सकते हैं। अगर भाजपा बहुमत के आँकड़े को पार करने में विफल रहती है, तो दोनों दल गठबंधन कर सकते हैं और सत्ता में आ सकते हैं। उन्होंने कहा, “अगर कॉन्ग्रेस महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन कर सकती है, तो उसे ‘आप’ के साथ हाथ मिलाने से कौन रोक सकता है।”
भाजपा ‘आप’ को इतना भी महत्वपूर्ण नहीं मानती कि उसे गंभीरता से ले
हालाँकि, गुजरात में भाजपा आम आदमी पार्टी के शोर-शराबे से बेफिक्र है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने ऑपइंडिया को बताया, “हम उन्हें गंभीरता से नहीं लेते हैं। वे हमारे लिए इतने महत्वहीन हैं कि उन्हें वास्तविक खतरा भी नहीं माना जा सकता।” उन्होंने कहा कि उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए, क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और अगर वे सीटें जीतते हैं, तो उनके लिए अच्छा है। मजबूत लोकतंत्र जरूरी है, लेकिन गुजराती तार्किक और मेहनती लोग हैं। मुफ्त बिजली के ये वादे, जिसमें वोल्टेज में उतार-चढ़ाव अन्य मुद्दे हैं, गुजरातियों के लिए अच्छा नहीं होगा।
गुजरात दो दलों वाला राज्य है
गुजरात परंपरागत रूप से दो दलों वाला राज्य रहा है। 1995 में केशुभाई पटेल के राज्य में पहली बार भाजपा की सरकार बनने तक, गुजरात में केवल एक गैर-कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्री थे। जनता पार्टी के बाबूभाई पटेल, जो 1975 में इंदिरा गाँधी के दौरान एक साल से भी कम समय के लिए बने मुख्यमंत्री थे और 1977 में फिर से लगभग तीन साल तक के लिए आपातकाल लगाया था।
साल 1996 में भाजपा के पूर्व नेता शंकरसिंह वाघेला ने पार्टी छोड़ दी थी और राष्ट्रीय जनता पार्टी के नाम से अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाई थी। कॉन्ग्रेस के बाहरी समर्थन से वे गुजरात के दूसरे गैर-कॉन्ग्रेसी मुख्यमंत्री बने। कॉन्ग्रेस द्वारा समर्थन वापस लेने की धमकी और एक अन्य राजपा (RJP) नेता दिलीप पारिख के सीएम बनने के बाद उन्हें यह पद छोड़ना पड़ा था। बाद में पार्टी का कॉन्ग्रेस में विलय हो गया था।
साल 2007 में गोरधन जदाफिया, जो 2002 के गुजरात दंगों के समय गुजरात के गृह मंत्री थे, उन्होंने भी ‘महागुजरात जनता पार्टी’ के नाम से अपनी खुद की राजनीतिक पार्टी बनाई। 2012 में राज्य विधानसभा चुनावों से पहले केशुभाई पटेल ने एक राजनीतिक दल ‘गुजरात परिवर्तन पार्टी’ का गठन किया। जदाफिया ने बाद में अपनी पार्टी का गुजरात परिवर्तन पार्टी में विलय कर दिया, जो अंततः भाजपा में शामिल हो गई।
मार्च 1998 के बाद से गुजरात में केवल भाजपा का मुख्यमंत्री रहा है। हालाँकि, गुजरात में कौन चुनाव जीतेगा, इसकी भविष्यवाणी अभी से करना जल्दबाजी होगी, लेकिन एक बात तो पक्की है कि कॉन्ग्रेस को गर्त में धकेला जा सकता है, क्योंकि भाजपा को ‘आप’ के प्रवेश से लाभ मिल सकता है।