#राजनीति की प्रयोगशाला कहलाने वाले बिहार में चुनावों का दौर फिर से शुरू हो चुका है। ऐसे में चुनावी अटकलें लगेंगी, आंकलन होंगे, जातियों के आधार पर वोट बैंक के बनने और बिगड़ने की भी बातें होंगी। जो एक बात नहीं होगी, वो होगी मुहम्मडेन राजनीति की चर्चा!
ऐसा इसलिए है क्योंकि आम तौर पर मुहम्मडेनों को एक संगठित वोट बैंक मानकर ही आंकलन किए जाते हैं। बदलते चुनावी परिदृश्य ने एक बार फिर से इस सिस्टम को चुनौती दे दी थी। अफ़सोस कि अभी भी तथाकथित चुनावी विश्लेषक इस एम-फैक्टर पर ध्यान नहीं देते।
जब पिछले लोकसभा चुनावों में असदउद्दीन ओवैसी की हैदराबाद के हिंसक, मजहबी कट्टरपंथी रजाकारों से जन्मी एआईएमआईएम ने बिहार चुनावों में पैर जमाने शुरू किए थे, तभी से इस बदलाव की आहट सुनाई देने लगी थी।
बंगाल और नेपाल की सीमाओं से सटे, बिहार के किशनगंज जिले की ख़ास बात यह है कि ये बिहार का इकलौता मुहम्मडेन बहुल (करीब 68 प्रतिशत) इलाका है। लोक सभा सीट के लिहाज से देखें तो यहाँ से कभी जनसंघ या भाजपा नहीं जीती है। 1952 से ही यहाँ तथाकथित “सेक्युलर” पार्टियों के उम्मीदवार जीतते रहे हैं। इस सीट से 8 बार कॉन्ग्रेस, 3 बार समाजवादी, एक बार जनता दल और 3 बार राजद के अलावा केवल एक बार एक निर्दलीय ने जीत दर्ज की थी।
पिछले उप-चुनावों में जब यहाँ से कॉन्ग्रेस के विधायक मोहम्मद जावेद के लोकसभा जाने की वजह से कॉन्ग्रेस ने जावेद की अम्मा सईदा बानू को उतारा तो उसे लग रहा था कि वही जीतेगी। इस बार उनका मुकाबला असदउद्दीन ओवैसी के उतारे कमरुल होदा से भी था। जब देश का ध्यान महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों पर था, तभी यहाँ से करीब 70000 वोट के साथ एआईएमआईएम के उम्मीदवार ने फतह पाई। कॉन्ग्रेस को केवल 25000 के लगभग वोट मिले थे।
अगर केवल आबादी के लिहाज से देखें तो ओवैसी की सांप्रदायिक पार्टी के लिए यहाँ उपजाऊ जमीन है। किशनगंज (करीब 68%), कटिहार (करीब 45%), अररिया (करीब 43%) और पुर्णिया (करीब 39%) में कम से कम 20 सीटें ऐसी हैं, जहाँ से ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार जीत सकते हैं।
ओवैसी की पार्टी अगर छोटी पार्टियों से गठबंधन करे और अपना दलित-मुस्लिम कार्ड हमेशा की तरह खेले तो उसके उम्मीदवार इन क्षेत्रों में कम से कम 40 सीटों पर स्थापित क्षेत्रीय/राष्ट्रीय पार्टियों को कड़ी टक्कर देंगे। भाजपा के गिरिराज सिंह जैसे नेताओं के बयानों पर खेल कर उसे और भी फायदा हो सकता है।
अगर हम इसके साथ जोड़कर आबादियों के बढ़ने का तुलनात्मक अध्ययन करें तो एक चीज़ बहुत स्पष्ट हो जाती है। हिन्दुओं की आबादी बढ़ने की (दशक में) रफ़्तार जहाँ 2001 में 19.92% और 2011 में 16.76% थी, वहीं मुस्लिम आबादी के बढ़ने की रफ़्तार 2001 में 29.52% और 2011 में 24.6% रही।
आबादी के बढ़ने के क्रम में इस बदलाव से युवा वोटरों की संख्या में जो बदलाव हुए होंगे, संभवतः चुनावी विश्लेषक जमातों ने इसका कोई अंदाजा नहीं लगाया। ऐसा भी हो सकता है कि सेकुलरिज्म का झंडा उठाने के लिए इस तथ्य को दबा दिया गया हो। पक्का कहा नहीं जा सकता।
अंततः इन बदलावों का असर सामाजिक संरचना पर पड़ा, और फिर साथ ही साथ इसका असर स्थानीय राजनीति में भी नजर आने लगा। जो स्थानीय मुद्दे थे, वो धीरे-धीरे बदलने लगे। प्रतिनिधित्व का सवाल भी बदलने लगा।
बदलाव की शुरुआत देखें तो इसके लिए थोड़ा पीछे के भागलपुर दंगों (1989) का दौर देखना होगा। इन दंगों के वक्त बिहार में कॉन्ग्रेस की सत्येन्द्र नारायण सिन्हा की सरकार थी और भागलपुर से भी कॉन्ग्रेस जीतती थी। इन दंगों के बाद पच्चीस साल तक कॉन्ग्रेस यहाँ से जीत नहीं पाई। आज की तारीख में भी स्थिति बहुत बदली नहीं है। करीब एक पीढ़ी गुजर जाने के बाद भी लोगों को वो दंगे याद हैं।
दंगों के गुजर जाने के काफी वक्त बाद 2006 में नीतीश कुमार की सरकार ने भागलपुर दंगों की जाँच के लिए जस्टिस एनएन सिंह इन्क्वायरी कमीशन का गठन किया। करीब दस साल बाद जब इस कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी तो दंगों में नाकाम होने का पूरा दोष सत्येन्द्र नारायण सिन्हा की कॉन्ग्रेसी सरकार और स्थानीय प्रशासन की विफलता पर डाला गया। जाहिर है इससे आम लोगों में कोई संतोष की लहर तो नहीं ही दौड़ी।
पिछले चुनावों में बिहार की विधानसभा में कुल 23 मुहम्मडेन विधायक चुनकर पहुँचे थे। अगर आबादी के हिस्से के लिहाज से देखें तो ऐसे ही ये गिनती कम है। ऊपर से बिहार के करीब 56% मुहम्मडेन मतदाता ओबीसी समुदाय के हैं और जीतने वालों में एक बड़ी गिनती (9) शेख, और कुल्हैया (5) की थी।
जाहिर है ऐसे हाल में बिहार का मुहम्मडेन, प्रतिनिधित्व के लिए बाहर की तरफ देखना भी शुरू कर सकता है। ओवैसी का बिहार आना राजनीति की प्रयोगशाला के लिए एक नया प्रयोग होगा।