Saturday, April 27, 2024
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सेकुलर नेत्रों ने माफिया में भी देखा ‘पीड़ित मुस्लिम’, इसलिए जो विक्टिम कार्ड कभी था राजनीति में तुरुप का पत्ता अब जोकर बनकर रह गया

जो धूमकेतु की तरह आते हैं, उनकी चमक एक क्षण के लिए आकाश में सबको लुभाती है लेकिन वे शीघ्र ही सदा के लिए अंधकार में खो भी जाते हैं। केवल समय की बात है कि कौन कब डूबता है!

2012 में प्रयागराज में मुझे अतीक अहमद के घर जाने का अवसर मिला था। जनवरी-फरवरी में 55 दिन तक मैं उत्तर प्रदेश में था। मुलायम सिंह यादव ने अपने चिरंजीव अखिलेश यादव को सपा की राजनीतिक रियासत का उत्तराधिकारी बनाकर उतारा था। उत्तर प्रदेश मूल के अपने सीनियर शरद गुप्ता के नेतृत्व में मैं भी जातियों के जंगल में चुनाव यात्रा पर था। शरदजी लखनऊ के ही हैं और चुनावी कवरेज का मेरा रूट प्लान उन्होंने ही बनाया था। इस रूट पर इलाहाबाद आया तो एक राजनीतिक हस्ती के रूप में अतीक भी आ गए।

मेरी गाड़ी का ड्राइवर इम्तियाज झाँसी का था, जो मुझे उसके घर तक लेकर गया। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते अतीक के घर का मुखमंडल बुरी तरह बिगाड़ दिया था। बुलडोजर नहीं चला था, लेकिन चेहरे पर खरोंचें चुनावी वातावरण तक ठीक नहीं की गई थीं। प्रांगण में अतीक के समर्थक और कार्यकर्ताओं की भीड़ थी। वे कहीं से किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता नहीं दिख रहे थे। वह किसी नेता का आवास कम और किसी अड्‌डे जैसा दिखाई दे रहा था।

मैंने उन्हीं में एक से पूछा था कि मुस्लिम समाज सलमान खुर्शीद या आरिफ मोहम्मद खान जैसे पढ़े-लिखे, सुसभ्य छवि वाले महानुभावों को अपना लीडर क्यों नहीं बनाता? मैंने यूपी के ही अतीक जैसे ही आपराधिक आभामंडल वाले मुख्तार अंसारी का भी जिक्र किया, जिनके सत्ता केंद्र मऊ से होकर आया था।

वह कार्यकर्ता कम और पुरानी फिल्मों में अजीत के आसपास बुरी नजर से घूरते रहने वाले शेट्‌टी जैसा अधिक लग रहा था। जवाब में उसने सलमान खुर्शीद को इन शब्दों में निरस्त किया था- उनका क्या दीन-ईमान है? अपने घर की बहन-बेटियों से रिश्ते के लिए उन्हें दीगर धर्मों में जाना पड़ा? मुझे नहीं पता कि वह किस आधार पर खुर्शीद के बारे में ऐसा कह रहा था। मगर पक्के दीन-ईमान वाला अतीक उसके लिए मजहबी शान का प्रतीक था और उसके आपराधिक प्रकरणों से उसे कोई आपत्ति नहीं थी। उसकी नजर में एफआईआर, पुलिस और कोर्ट तो राजनीतिक खेल का हिस्सा थे।

लौटते हुए इम्तियाज का प्रश्न था-‘सर, आप इन जैसों के यहाँ जाते ही क्यों हैं? सबको ज्ञात है कि अतीक किस प्रकार नेता बना और उसका रिकॉर्ड क्या है? क्या आप जैसे लोग भी अतीक जैसों को बड़ा नहीं बनाते?’

अतीक ने अपने स्वर्णिम समय में जिस व्यवस्था का खुलकर मजाक बनाया, उसी व्यवस्था ने उसका भी मजाक खुलकर ही बनाया। यह किसी ऑटोमेटिक मोड पर हिसाब के बराबर होने की कथा है, जिसमें योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा पर पहली आँच केवल इस कारण से है कि प्रहरियोंं के बीच तीन उचक्के आए और दो अपराधी भाइयों को मारकर हाथ ऊँचे करते हुए पुलिस के आश्रय में स्वयं सुरक्षित हो गए। लाभ-हानि का गणित पुलिस लगाए। उसे तो पुराने दो के बदले ऑन स्पॉट तीन नए मिल गए!

अनेक अवसरों पर अपनी गरिमा को पहले ही अच्छी तरह मिट्‌टी में मिला चुके टीवी मीडिया ने जीवित अतीक और अशरफ के उर्स का आयोजन किया, जो उसे कब्र में लिटाकर भी नहीं लौटा है। विद्रूपता के इस उत्सव में मनमोहन देसाई की मसाला मूवी के कव्वाली दृश्य की भाँति तीन नकली कव्वाल मीडिया के वेश में उचककर आए और मीडिया का मर्सिया रचकर फिल्म फेयर ले उड़े!

मैं 25 साल पत्रकारिता में रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि मुँह उठाकर घटनाओं के पीछे भागने की इस विक्षिप्त अवस्था पर टीवी वालों को विचार करना चाहिए। यह पत्रकारिता नहीं है। मैं अपने कॅरिअर के मध्यांतर में ढाई वर्ष एक चैनल में भी रहा। वह काम मुझे रास नहीं आया। ग्लैमर और पैसे के बावजूद मैंने उसे तत्काल छोड़ने का निर्णय लिया था। नोएडा में बैठी इनपुट-आउटपुट की अर्द्धविक्षिप्त आत्माओं ने फील्ड में काम कर रहे रिपोर्टरों को कठपुतली बना दिया है, जो कैमरा-माइक की तगारी उठाकर हर दिन समाचारों की मनरेगा के श्रमिक बने हुए हैं। प्रेतों की तरह टूटे पड़े रहना समाचार कवरेज नहीं है। ऐसे समाचारों की किसे 24 घंटे तक आवश्यकता है?

अतीक के बात करने का अंदाज भी एक नेता का नहीं था। वह एक तांगा चलाने वाले का बेटा था और अपराध जगत में डर का साम्राज्य बनाकर सपा के सहारे राजनीतिक पथ पर अपनी शोभायात्राएँ धूमधाम से ले गया था। मुझे किसी ने बताया कि इलाहाबाद के किसी भी विषय में नेताजी सबसे कहा करते थे- ‘अतीक भाई से मिल लीजिए। उनसे ही बात कीजिए।’ वह एक समय इलाहाबाद का मुख्यमंत्री ही था। एक ऐसे व्यक्ति का सत्ता के शीर्ष पर पहुँचना, बहुत से ऐसे ही लोगों को आकर्षित करता है। यह प्रकोप चेन रिएक्शन जैसा बढ़ता है! सपा में इनके लिए सर्वाधिक अनुकूल मौसम और मिट्‌टी था। नेताजी पद्मविभूषण हो गए, अतीक-अशरफ समारोहपूर्वक सुपुर्दे-खाक!

वह सर्वश्रेष्ठ छटा हुआ था इसलिए संसद के लिए फूलपुर से चुना हुआ था और उसके पास सब के सब निचले स्तर के छटे हुए थे। पुलिस उसकी ऊपर की जेब में थी। उसने सरगना से सियासी सर्वेसर्वा बनने तक की सफल यात्रा की थी। मीडियावालों को कभी इलाहाबाद में उसके पीड़ितों की आवाजें सुनना और सुनाना चाहिए, जिनकी सुनने वाला कभी कोई नहीं था! तब अतीक के ही सिक्के चलते थे, क्योंकि लखनऊ में टकसालें चलाने वाले आका हुजूर उसके ही थे।

जो धूमकेतु की तरह आते हैं, उनकी चमक एक क्षण के लिए आकाश में सबको लुभाती है लेकिन वे शीघ्र ही सदा के लिए अंधकार में खो भी जाते हैं। केवल समय की बात है कि कौन कब डूबता है!

कानपुर के विकास दुबे का एनकाउंटर जब हुआ तब किसी हिंदू को उसमें हिंदू नहीं दिखा, केवल दो कौड़ी का एक अपराधी दिखा। किसी ब्राह्मण को उसमें ब्राह्मण कहीं से नहीं दिखा, केवल एक घृणित अपराधी दिखा, जो धरती पर बोझ था? अतीक के सुपुत्र असद के एनकाउंटर पर सेक्युलर सजल नेत्रों को एक पीड़ित मुसलमान दिखा। अखिलेश को भी, औवेसी को भी। यह मानसिकता का अंतर है। यह घिसपिट चुका विक्टिम कार्ड है, जो राजनीति के बावन पत्तों में कभी तुरुप का था, अब केवल एक जोकर रह गया है। किंतु जोकरों की जमातों को उसे जीवनपर्यंत चलाते रहने का सेक्युलर अभिशाप है!

असद के एनकाउंटर पर उसके अंकल अशरफ का एक सत्य वचन सुनाई दिया- ‘अल्लाह की चीज थी। अल्लाह ने वापस ले ली!’ पूरी धरती पर उथलपुथल से भरी अपनी हरियाती दुनिया के धमाकेदार हिसाब में सात आकाशों के ऊपर अत्यंत व्यस्त अल्लाह को भी अपनी गलती का अनुभव हुआ। गलत चीज दे दी थी। वापस ले ली। चार दिन बाद उसने अतीक और अशरफ को भी गलत माल की तरह विनम्रतापूर्वक धरती से वापस ले लिया!

किसी के जीवन का आरंभ कहीं से भी हो सकता है। किंतु समय रहते अपनी भूलों को सुधारकर जीवन में अच्छे मार्गों की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा होनी चाहिए। भारतीय परंपरा में एक रत्नाकर का उदाहरण काफी है, जो अपने जीवन के एक भाग में लूटमार करके अपनी आजीविका चलाता है, किंतु समय रहते उसकी चेतना झंकृत होती है और संसार में वह महर्षि बाल्मीकि के रूप में अमर हो जाता है! यह अवसर हरेक के लिए संभव है। उपलब्ध है। अल्लाह ने अतीक को धन और साधन संपन्न बनाकर एक अवसर दिया था, जो उसने गँवा दिया!

अपराधों की दलदल से निकलकर राजनीति में आने के बाद अतीक अपनी अकूत शक्ति से किसी और का न सही, अपने समुदाय का ही कुछ भला कर सकता था। उसकी सर्वाधिक आवश्यकता उन्हें ही थी। वह एक उज्जवल प्रकाश पुंज बन सकता था। बंटवारे के बाद वोट बैंक बनाकर रखे गए अपने भ्रमित समाज को सही दिशा दिखाने में कोई समस्या नहीं थी। मगर सेक्युलर राजनीति में अपराधों से प्राप्त शक्ति का तात्कालिक लाभ वाला मिश्रण उसे रास आया। दबंग राजनीति में वह हिट भी हुआ। किसी भी कथा का अंतिम सार उसके पात्रों के चरित्र से ही निकलता है। अतीक की कथा का अंत ऐसा ही कुछ होना था!

अंत में, अल्लाह अगर ऐसी ताकत किसी को भी दे तो उसके सदुपयोग की संतुलित बुद्धि और प्रेरणा देने में भी कृपणता न दिखाए ताकि एक दिन भूल सुधार करते हुए उसे अपना ही भेजा गया गलत माल ऐसे तमाशे के बीच वापस लेना पड़े!

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विजय मनोहर तिवारी
विजय मनोहर तिवारी
25 साल मीडिया में रहे। प्रिंट और टीवी दोनों में काम। 11 किताबें प्रकाशित। पांच साल तक भारत की लगातार आठ यात्राएँ की हैं। वर्तमान में भारत में इस्लाम के फैलाव पर शोध और लेखन जारी। गरुड़ प्रकाशन से पहला भाग छपा है।

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