एक ने अपने राजनीतिक जीवन में इतनी बार पाला बदला है कि विरोधी तंज कसते हुए उन्हें ‘पलटू’ बताते हैं। दूसरी की राजनीतिक छवि ऐसी है कि स्वरा भास्कर जैसी पार्ट टाइम अभिनेत्री को आगे आकर कहना पड़ता है कि ‘मैं उनसे मिली हूँ। वे पप्पू नहीं हैं।’ ऐसे ही दो नेता बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और कॉन्ग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी की सोमवार (5 सितंबर 2022) को नई दिल्ली में मुलाकात हुई।
करीब 50 मिनट तक दोनों की बातें हुई। मीडिया में जो बातें आईं वो 2024 से पहले विपक्षी एकता के सुने-सुनाए राग पर केंद्रित थी। हाल ही में बिहार में लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाने वाले नीतीश कुमार इससे पहले तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर से मिल चुके हैं। कर्नाटक वाले कुमारस्वामी से मुलाकात हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलने वाले हैं। आगे और उन क्षेत्रीय क्षत्रपों से मिलने की योजना है, जिनकी राजनीति साँस नरेंद्र मोदी और बीजेपी की फिसलन नहीं देख उखड़ रही है।
Bihar CM Nitish Kumar expressed gratitude to Congress MP Rahul Gandhi, for Cong’s support to the Bihar govt. Strategy for the 2024 polls discussed; concrete discussions to continue. Both leaders discussed the possibility of bringing like-minded parties together: Congress Sources https://t.co/N4R3FVqB1I
— ANI (@ANI) September 5, 2022
चर्चा यह भी है कि चुनाव से पहले ऐसे कुछ दलों का आपस में विलय भी हो सकता है जो जनता परिवार के बिखरने से पैदा हुए हैं। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि अब ऐसे ज्यादातर दलों में दूसरी पीढ़ी का नेतृत्व आ चुका है जो अपने-अपने राज्यों में ही राजनीतिक तलाश रहा है। उनकी राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षाओं में वह टकराहट नहीं है जो उनसे पहले की पीढ़ी में था और जनता परिवार बिखर गया। वैसे कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा भानुमती का कुनबा जोड़ा टाइप की सियासत भारत में कई बार दिखी है। ऐसे प्रयासों को तार्किक बताने के लिए समाजवादियों के पास राम मनोहर लोहिया का एक सूत्र वाक्य भी है जो कहता है- जुड़ो, लड़ो और टूटो…
We have discussed that if the Left parties, regional parties in different states, and Congress come together then it will be a huge matter: Bihar CM Nitish Kumar addresses the media, with CPI(M) leader Sitaram Yechury, in Delhi pic.twitter.com/snUhA3Olvu
— ANI (@ANI) September 6, 2022
एक तरफ कथित समाजवादी 2024 से पहले विपक्षी एकता का झुनझुना बजा रहे हैं, दूसरी ओर राहुल गाँधी 7 सितंबर 2022 से एक यात्रा शुरू करने वाले हैं। इस यात्रा का नाम रखा गया है- भारत जोड़ो यात्रा। दिलचस्प यह है कि इस यात्रा की तुलना भी एक समाजवादी (पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर) की ही यात्रा से हो रही है। लेकिन नाम में ‘भारत’ होने के अलावा न तो इन दो यात्राओं और न उनकी अगुवाई करने वाले में समानता दिखती है।
भारत जोड़ो यात्रा
7 सितंबर 2022 को कन्याकुमारी से यह यात्रा शुरू हो रही है। 150 दिन तक चलने वाली यह यात्रा भारत के 12 राज्यों और 2 केंद्रशासित प्रदेशों से होकर गुजरेगी। करीब 3500 किमी लंबी यह यात्रा जम्मू-कश्मीर में समाप्त होनी है। इसके तीन उद्देश्य बताए गए हैं। पहला, मोदी सरकार में बढ़ी आर्थिक असमानता से लड़ाई। दूसरा, समाज में बढ़ते भेदभाव और अपराध से लड़ाई। तीसरा, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग से लड़ाई।
7 तारीख को राजीव गांधी मेमोरियल में एक घंटे की प्रार्थना सभा होगी, 3 बजे कन्याकुमारी और 4 बजे गांधी मेमोरियल जाएंगे।
— Congress (@INCIndia) September 5, 2022
वहां तमिलनाडु, राजस्थान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहेंगे, जो राहुल गांधी जी को राष्ट्रध्वज सौंपेंगे: श्री @Jairam_Ramesh#MileKadamJudeVatan#BharatJodoYatra pic.twitter.com/s20z82MZaw
भारत जोड़ने की जरूरत क्यों?
कॉन्ग्रेस के लिए अपने राजनीतिक फायदे के लिए भारत को बदनाम करना नई बात नहीं है। चाहे चीन की सत्ताधारी दल से समझौता हो या, उसके दूतों से गुपचुप मिलना या पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अपनी ही सेना से शौर्य का सबूत माँगना। कॉन्ग्रेस अपने चाल-चरित्र से इसका लगातार प्रदर्शन करती रहती है। एक बार फिर अपने राजनीतिक यात्रा को ‘भारत जोड़ो’ नाम देकर उसने यही मानसिकता दिखाई है।
कोरोना जैसी वैश्विक आपदा के बावजूद हम दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। नक्सली हिंसा में कमी आई है। आतंकी लगातार ढेर किए जा रहे हैं। 26/11 के बाद कोई बड़ा आतंकी हमला नहीं हुआ है। रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो रहे हैं। रसोई गैस हो या शौचालय, आवास हो या स्वच्छ पानी… ग्रामीण इलाकों तक पहुँच रहा है। आम आदमी की पहुँच में हैं। ऐसे में भारत को टूट का खतरा कहाँ से दिखता है जो उसे जोड़ने की बात की जाए। या फिर सिमटते जनाधार से परेशान कॉन्ग्रेस इस यात्रा के जरिए उन ताकतों को हवा देना चाहती है, जिससे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए चुनौतियाँ बढ़े। आंतरिक हालात बिगाड़ने के मकसद से प्रायोजित सीएए विरोधी हिंसा हो या दिल्ली के बॉर्डर पर कथित किसानों का जमावड़ा, इनके पीछे कॉन्ग्रेस और उसके नेताओं की संलिप्तता सार्वजनिक है। तो क्या 2024 से पहले कॉन्ग्रेस इस यात्रा के जरिए वैसे हालात पैदा करना चाहती है, जिससे सरकार को देश के भीतर ही कई मोर्चों पर जूझना पड़े? वैसे भी इस्लामी कट्टरपंथियों के तुष्टिकरण का उसका इतिहास रहा है।
क्या चंद्रशेखर की यात्रा से तुलना उचित?
चंद्रशेखर ने स्वतंत्र भारत की समस्याओं को अपने पैरों से नापने की कोशिश की थी। उन्होंने 6 जनवरी 1983 को कन्याकुमारी के विवेकानंद स्मारक से भारत यात्रा शुरू की। करीब 4200 किमी की यह पदयात्रा 25 जून 1984 को दिल्ली के राजघाट पर समाप्त हुई।
इस यात्रा के दौरान वे कई जगहों पर ठहरे और उनमें से कुछ को भारत यात्रा केंद्र के नाम से विचारों का केंद्र बनाया। इनमें से ही एक है लगभग 600 एकड़ में फैला भोंडसी स्थित भारत यात्रा केंद्र। बाद के वर्षों में सियासत का केंद्र बनने की वजह से भोंडसी आश्रम तो याद रहा, लेकिन वह यात्रा जेहन से मिटा दी गई।
लेकिन उस यात्रा के मर्म में कोई सियासत नहीं थी। केवल पाँच बुनियादी मसले थे,
- सबको पीने का पानी
- कुपोषण से मुक्ति
- हर बच्चे को शिक्षा
- स्वास्थ्य का अधिकार
- सामाजिक समरसता
क्या हासिल होगा?
देश में आपातकाल जैसी कोई असामान्य स्थिति नहीं है कि विपक्षी दल अपने-अपने हितों का त्याग कर किसी छतरी के नीचे आ सकें। नीतीश कुमार जो कोशिश कर रहे हैं, कुछ महीने पहले उसी तरह का प्रयास ममता बनर्जी कर रहीं थीं। 2019 से पहले ऐसी ही हवा चंद्रबाबू नायडू ने बनाई थी। नतीजा सबको पता है।
राजनीतिक यात्राओं से सत्ता पाने का इतिहास में कई उदाहरण हैं। लेकिन उन सभी यात्राओं के पीछे कुछ कॉमन फैक्टर थे। मसलन, सत्ता से आम लोग नाराज थे। यात्रा की अगुआई करने वाले अपने राजनीतिक तेवर के लिए जाने जाते थे या फिर उनके साथ सहानुभूति थी, जैसे जगनमोहन के मामले में देखने को मिला। हाल के तमाम सर्वे बताते हैं कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जस की तस है। भारत की आम जनता की उम्मीदों के नायक आज भी वही हैं। वहीं राहुल गाँधी आज भी इस देश की जनता की नजर में एक गंभीर राजनीतिज्ञ की छवि नहीं बना पाए हैं।
ऐसे में चाहे नीतीश कुमार का प्रयास हो या राहुल गाँधी की यात्रा, एक ऐसे झुनझुने की तरह लगती है जो भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में चुनावों से पहले शोर तो बहुत करता है, लेकिन अपनी कर्कश ध्वनि से लोगों को लुभा नहीं पाती।