शनिवार (13 जुलाई, 2024) को देश भर में हुए विधानसभा उपचुनावों के नतीजे आए। इसमें उत्तराखंड की दो सीटें भी शामिल थी। एक सीट हरिद्वार जिले की मुस्लिम बहुल मंगलौर सीट थी जबकि दूसरी चमोली सीट की बद्रीनाथ सीट थी। इन दोंनो सीट पर कॉन्ग्रेस ने जीत दर्ज की। इस जीत को राहुल गाँधी की रणनीति का चमत्कार बना कर प्रचारित किया जा रहा है। हालाँकि, इस बीच मंगलौर सीट पर भाजपा की हार मुस्लिमों के विशेष वोटिंग पैटर्न की ओर ध्यान दिलाती है।
2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, मंगलौर लगभग 90% मुस्लिम आबादी वाला शहर है। मंगलौर विधानसभा क्षेत्र में लगबग 45% मुस्लिम मतदाता हैं, जबकि 20% अनुसूचित जाति के मतदाता हैं। इंडिया टुडे के अनुसार, मंगलौर विधानसभा में 52,000 मुस्लिम जबकि 18,000 दलित, 14,000 जाट और 8,000 गुज्जर मतदाता हैं।
यह सीट अक्टूबर, 2023 में इसके BSP विधायक सरवत करीम अंसारी के निधन के बाद खाली हो गई थी। मंगलौर 10वीं शताब्दी की शुरुआत से ही अस्तित्व में रहा है। इसका नाम चौहान वंश के मंगल सिंह के नाम पर पड़ा था, उन्होंने यहाँ एक मंगल किला बनवाया था। अब यह एक मुस्लिम बहुल शहर है।
हालिया उपचुनाव में, इस सीट पर जीतने वाले कॉन्ग्रेस के काजी मोहम्मद निजामुद्दीन को 37.91% वोट मिले। वहीं दूसरे नंबर पर भाजपा के करतार सिंह भड़ाना रहे, उन्हें 37.4% वोट मिले। इस चुनाव में तीसरे नंबर पर BSP के ओबेदुर रहमान थे, उन्हने 23.4% वोट हासिल हुए।
मंगलौर एक मुस्लिम बहुल सीट है। इसलिए काजी मोहम्मद निजामुद्दीन का जीतना कोई विशेष आश्चर्य की बात नहीं है। हालाँकि, अगर यहाँ से सामने आए आँकड़ों पर नजर डाली जाए तो मुस्लिम समुदाय के मतदान पैटर्न के बारे में काफी दिलचस्प जानकारी सामने आती है।
मंगलौर से कभी नहीं हुई गैर मुस्लिम की जीत
2002 से लगातार मंगलौर सीट से कॉन्ग्रेस और बसपा के मुस्लिम उम्मीदवार ही जीतते आ रहे हैं। 2024 में इस सीट से कॉन्ग्रेस के टिकट पर जीत दर्ज करने वाले निजामुदीन 2002 में बसपा के उम्मीदवार थे। 2002 में भी काजी निजामुद्दीन ने 40% वोट पाकर जीत दर्ज की थी।
इस चुनाव में दूसरे नम्बर पर कॉन्ग्रेस के सरवत करीम अंसारी रहे थे। उन्हें 27.5% वोट मिले थे। 2007 में भी यही सिलसिला दोहराया गया था और निजामुद्दीन ने अंसारी को पटखनी दी थी। इस बार निजामुद्दीन को 37% वोट मिले थे। इस चुनाव में दूसरे नंबर पर रालोद के कुलवीर सिंह रहे थे।
2012 में काजी निजामुद्दीन ने बसपा छोड़ दी और कॉन्ग्रेस में शामिल हो गए। इसी सरवत करीम अंसारी बसपा में आ गए और उन्होंने 2012 चुनाव में निजामुद्दीन को पटखनी दे दी। सरवत करीम अंसारी को इस चुनाव में 34.3% वोट मिले जबकि काजी निजामुद्दीन 33.07% वोट के साथ दूसरे नंबर पर रहे।
2017 में काजी निजामुद्दीन ने अपनी जीत का सिलसिला जारी रखा। इस बार उन्हें 38.5% वोट मिले जबकि उनके प्रतिद्वंदी सरवत करीम अंसारी 35.2% के साथ दूसरे नम्बर पर रहे। 2022 में सरवत करीम अंसारी ने जोरदार वापसी की और निजामुद्दीन को पटखनी दे दी। लेकिन 2023 में अंसारी का निधन हो गया और यह सीट खाली हो गई।
इसके बाद हुए 2024 उपचुनाव में भाजपा ने यहाँ से करतार सिंह भड़ाना को जबकि कॉन्ग्रेस ने निजामुद्दीन को उतारा। बसपा ने इस सीट से उबैदुर रहमान को टिकट दिया। इस चुनाव में निजामुद्दीन को 37.9% जबकि भडाना को 37.4% वोट मिले। यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो यहाँ से आज तक गैर मुस्लिम उम्मीदवार नहीं जीत पाया।
कॉन्ग्रेस को मिली जीत, भाजपा को बढ़त
मुस्लिम वोटर की बहुलता वाली इस सीट पर ऐतिहासिल रूप से हमेशा मुस्लिम उम्मीदवार ही जीते हैं। लेकिन इस बार एक बड़ा बदलाव यहाँ देखने को मिल रहा है। भाजपा ने इस बार के उपचुनाव में यहाँ हिंदू उम्मीदवार करतार सिंह भड़ाना को मैदान में उतारा था, जो काजी मोहम्मद निजामुद्दीन से केवल 422 वोटों से हारे।
वहीं BSP के से मैदान में उतारे गए ओबेदुर रहमान को 23.37% वोट मिले। इस प्रकार 2022 के मुकाबले 2024 में BSP वोट प्रतिशत में 13.8% की गिरावट हुई। वहीं दूसरी ओर, भाजपा का वोट प्रतिशत 16.04% बढ़ा। वोटों के इस हस्तांतरण से यह प्रतीत हो सकता है कि BSP का वोट भाजपा को ट्रांसफर हुआ।
इससे पहले मंगलौर में BSP के मतदाता पार्टी के मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट दे रहे थे, इस बार BSP का हिन्दू वोटबैंक भाजपा में ट्रांसफर हुआ। इस वोटबैंक में जाट, गुज्जर और SC जातियाँ शामिल थी। 2024 में ऐसा दूसरी बार हुआ है जब कोई हिन्दू उम्मीदवार दूसरे स्थान पर आया है और उसे अच्छे प्रतिशत में वोट मिले हैं।
इससे पहले किसी हिंदू उम्मीदवार को विधानसभा क्षेत्र में काफी वोट 2007 में मिले थे। 2007 में RLD के चौधरी कुलवीर सिंह को 32.01% वोट मिले थे और वह दूसरे नम्बर पर रहे थे। फिर भी सिंह का वोट प्रतिशत 2024 में भाजपा प्रत्याशी को मिले वोट की तुलना में कम था। भाजपा प्रत्याशी को इस बार जिन्हें 37.4% वोट मिले हैं।
2007 चुनाव में, RLD के कुलवीर सिंह 3393 वोटों से हार गए थे, जबकि 2024 में, भाजपा के हिंदू उम्मीदवार केवल 422 वोटों के अंतर से हारे। वोट प्रतिशत में यह बदलावमंगलौर विधानसभा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बदलाव का संकेत देता है। स्पष्ट है कि यहाँ हिंदू वोट 2007 के बाद पहली बार एकत्रित हो पाया है।
भाजपा ने भी उतारा था मुस्लिम उम्मीदवार, हुई थी करारी हार
मंगलौर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा ने सिर्फ एक बार ही मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में उतारा है। 2012 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कलीम को अपना उम्मीदवार बनाया था। 2012 के इस विधानसभा चुनाव में, भाजपा उम्मीदवार कलीम को केवल 2,061 वोट मिले थे।
इसी चुनाव में BSP के सरवत करीम अंसारी को 24,706 वोट मिले और वह जीत गए, कॉन्ग्रेस के काजी मोहम्मद निजामुद्दीन 24,008 वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रहे। RLD द्वारा मैदान में उतारे गए हिंदू उम्मीदवार गौरीश चौधरी 19,354 वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रहे। इस चुनाव में अकेला हिन्दू उम्मीदवार RLD की तरफ से था लेकिन इस दौरान हिन्दू एकजुटता देखने को नहीं मिली थी जो 2024 में देखने को मिली।
मंगलौर के नतीजे से मुस्लिमों के वोटिंग के तरीके भी स्पष्ट हुए
मंगलौर के इस चुनाव से उन लिबरल आलोचकों के मुंह पर ताला लग जाना चाहिए जो लगातार मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बातें करते हैं। मंगलौर के नतीजों ने यह साफ़ कर दिया है कि जब सीट पर मुस्लिम आबादी 40% के निशान को पार कर जाती है, तो यहाँ से हमेशा लगभग मुस्लिम को ही जीत मिलती है। यह मुस्लिमों के उस वोटिंग पैटर्न को स्पष्ट करता है जिसमें वह अपने समुदाय के उम्मीदवार को जिताने के लिए एकजुट हो जाते हैं।
ऐसे में जब मुस्लिम हमेशा मुस्लिम उम्मीदवार को ही वोट करते हैं तो फिर लिबरल और वामपंथी इस बात पर नहीं रो सकते कि हिन्दू समुदाय मुस्लिमों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं देता। यदि मुस्लिम अपने समुदाय के उम्मीदवार के पीछे इकट्ठा हो सकते हैं, तो हिन्दू भी बिलकुल ऐसा ही कर सकते हैं। इसी मामले में उन पार्टियों पर भी मुस्लिम उम्मीदवार ना उतारने का आरोप नहीं लगाया जा सकता जो वोटबैंक के सामने नतमस्तक ना होती हों।
इसके अलावा लगातार इस बात पर प्रश्न उठते हैं कि भाजपा मुस्लिम उम्मीदवार क्यों नहीं देती। भाजपा ने 2012 में इस सीट से मुस्लिम उम्मीदवार को मौक़ा दिया था लेकिन तब उसकी बुरी गत हुई और मुस्लिमों ने ही अपने समाज के उम्मीदवार को वोट नहीं दिया। ऐसे में इससे साफ़ होता है कि मुस्लिम वोटर केवल अपने समुदाय से उम्मीदवार ही नहीं बल्कि वो उम्मीदवार चाहते हैं जो हमेशा उनके ही पक्ष में बोले। ऐसे में यदि कोई पार्टी बिना तुष्टिकरण की राजनीति के मुस्लिम उम्मीदवार उतारती भी है, तो वह भी हार जाएगा।
यह पैटर्न निश्चित रूप से भाजपा के लिए भी सबक है। उनके 2012 के प्रदर्शन और 2024 के प्रदर्शन में अंतर स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत है कि हिंदू समुदाय से बनाया गया उम्मीदवार उन्हें अच्छे नतीजे दे देगा लेकिन मुस्लिमों को आगे करने से उन्हें कोई फायदा नहीं होने वाला।
भाजपा ने 2012 में मुस्लिम बहुल सीट पर जीत के लिए मुस्लिम वोट बटोरने की सोची। लेकिन इसका नतीजा सामने आ गया। ना उसे मुस्लिम वोट ही मिले और हिन्दू वोट भी उससे छिटक गया। वहीं जब उन्होंने एक हिंदू उम्मीदवार को मैदान में उतारा, तभी सीट पर में भाजपा के पक्ष में हिंदू वोटों का अभूतपूर्व एकीकरण हुआ।
स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि जनसांख्यिकी परिवर्तन का खतरा मंगलौर के हिंदुओं पर भारी पड़ रहा है और इसीलिए वह इन उपचुनावों में भाजपा के पक्ष में एकजुट हो गए। इसके अलावा, भाजपा ने इस बार करतार सिंह भड़ाना को मैदान में उतारकर अपने जातिगत समीकरणों को भी साध लिया।
मंगलौर उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित है इसलिए, हरियाणा के एक उम्मीदवार ने मंगलौर के हिंदुओं को आकर्षित किया। इसी कारण से उसका हार का अंतर घट कर मात्र 422 वोट रह गया। मंगलौर के परिणामों से यह साफ़ है कि हिंदू एकीकरण के साथ-साथ अगर जाति का मामला सही ढंग से समझा गया तो भाजपा मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति को पटखनी दे सकती है।
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