मैंने आज तक चुनाव विशेषज्ञ तो छोड़िए अपने पंचायत का विशेषज्ञ होने का दावा नहीं किया है। उसका कारण बहुत ही सीधा है कि चुनावों के विश्लेषण में, खासकर तब जब जाति, पार्टी, क्षेत्र, वोटिंग पैटर्न, पर्सनल रुतबा, गठबंधन, विरोधी प्रत्याशी से लेकर चुनावों के पहले चैनलों के स्टूडियो से कैसी कैम्पेनिंग चल रही है, इतने सारे वैरिएबल्स होते हैं, तो गणित में कमजोर विद्यार्थी दिमाग लगाने की सोचता भी नहीं।
वैसे भी, पिछले पंद्रह सालों से तो यही देख रहा हूँ कि एक-दो सर्वे या एग्जिट पोल के अलावा, सारे गलत साबित होते हैं। जो सही भी साबित होते हैं, उनके तर्क आपको उनके सही साबित होने से पहले तक कन्विन्सिंग नहीं लगेंगे। फिर, जब कोई हार या जीत जाता है, तो उसके उलट रिजल्ट बताने वाले अभय राजनीत दूबे टाइप के विशषज्ञ आपको बताते हैं कि किस जाति या समुदाय के लोगों का वोट, पार्टी के किस नेता के किस बयान के कारण पलट गया और उसका परिणाम ऐसा आया।
यहाँ ज़मीनी वोटर इतना शातिर होता है कि आप उनसे पूछिए, “क्या चचा, किसको वोट दिए?” “दे दिए किसी को… किसी को तो दिए ही हैं।” चचा का यह जवाब सुनकर आप घूम जाएँगे। चचा ज्यादा शातिर हुए या आपने ज्यादा पूछा तो किसी भी रैंडम पार्टी का नाम लेकर निकल लेंगे। ऐसे में एग्जिट पोल के परिणामों पर विश्वास करना मूर्खता है।
एग्जिट पोल या भविष्यवाणी करने वालों पर एक और कारण से विश्वास नहीं किया जा सकता। वह कारण है ऐसे सर्वेक्षणों के सैंपल साइज का। जहाँ पहले और दूसरे नंबर पर आने वाले प्रत्याशियों की जीत में अंतर हजार और दो हजार वोटों का रहता हो, वहाँ एक प्रतिशत मतदाता से मतदान केन्द्र के बाहर खड़े होकर पार्टी का नाम पूछकर सटीक गणना करने की बात कहना ज़्यादती है।
अब आते हैं हमारे केस स्टडी कन्हैया कुमार पर। इस पर मैंने काफी समय से उकसाए जाने के बावजूद लिखना उचित नहीं समझा था, लेकिन अज्ञानी लोग दिल्ली में बैठकर बेगूसराय के जातीय समीकरणों पर जब ज्ञान देते हैं, तो मुझसे रहा नहीं जाता। मेरा घर बेगूसराय है, और वहाँ की राजनीति की समझ दिल्ली में बैठे फेसबुकिया बुद्धिजीवियों से थोड़ी ज़्यादा है मुझे।
बेगूसराय से पिछले कुछ समय से भाजपा या भाजपा गठबंधन के उम्मीदवार जीतते रहे हैं। 2004, 2009, 2014 में बेगूसराय से क्रमशः जद(यू) (भाजपा से गठबंधन) से राजीव रंजन सिंह, मोनाजिर हसन और भाजपा के भोला सिंह ने संसद में जगह बनाई। अगर हाल के विधायकों की बात करें तो बेगूसराय में सात विधानसभा क्षेत्र हैं जिसमें से तीन पर राजद (लालू की पार्टी), दो पर कॉन्ग्रेस और दो पर जद(यू) (नितिश की पार्टी) के विधायकों ने जीत हासिल की। सातों सीटों पर भाजपा या रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा दूसरे नंबर पर रहे। यहाँ पर यह जानना ज़रूरी है कि कॉन्ग्रेस और लालू पार्टी का गठबंधन था। यानी, पाँच सीटें उनको गईं।
नितिश की पार्टी ने भाजपा से गठबंधन नहीं किया था, उसके बावजूद दो सीटें ले आना ठीक परफ़ॉर्मन्स है। अब हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि लोकसभा और विधानसभा चुनावों में इस देश की जनता कई जगहों पर अलग तरीके से वोट करती है। मतलब यह कि एक ही समय में वोटिंग होने पर भी जनता ने विधानसभा में एक पार्टी को चुना, तो लोकसभा में दूसरी को।
2014 के लोकसभा चुनावों की बात करें तो, में नंबर एक पर रहे थे भाजपा से भोला सिंह, नंबर दो पर रहे थे राजद के तनवीर हसन, और नंबर तीन पर रहे थे सीपीआई के राजेन्द्र प्रसाद सिंह। राजेन्द्र प्रसाद सिंह से याद आया कि वामपंथियों ने 1995 में बेगूसराय से पाँच विधानसभा सीटें जीती थीं, जो 2005 में दो पर गईं, 2010 में भी दो पर ही रहीं, और 2015 में शून्य हो गईं। इसके लक्षण 2014 लोकसभा चुनावों में ही दिखे थे जब राजेन्द्र प्रसाद सिंह को तीसरी जगह मिली थी।
राजेन्द्र प्रसाद सिंह को जानना ज़रूरी है। वो 1995 से 2010 तक बरौनी विधानसभा सीट (अब जिसका नाम तेघड़ा है) से विधायक रहे। बेगूसराय को लेनिनग्राद और मिनी मॉस्को आदि नाम नब्बे के दशक में वामपंथियों की पैठ के कारण मिला था, जिसे बेगूसराय के लोगों ने जल्दी ही पहचाना और नकारना भी शुरु कर दिया। ख़ैर, कहने का मतलब यह है कि तीन बार के विधायक रहे व्यक्ति का जनाधार भी लोकसभा और हाल के विधानसभा चुनावों में काम नहीं आया। इसी पार्टी के टिकट पर अब कन्हैया को उतारा गया है।
अब बात करते हैं बेगूसराय के वोटिंग पैटर्न की। अमूमन बिहार में लोग ये मानकर चलते हैं कि वोट जाति के आधार पर होता है। जबकि, देश का शायद ही कोई ऐसा हिस्सा हो जहाँ जाति (या उसी तरह की किसी बात पर) पर वोट न होता हो। कई वेबसाइट आँख मूँदकर यह लिख देते हैं कि बेगूसराय भूमिहारों का गढ़ है, ये बस कहने की बात है।
मुस्लिमों का प्रतिशत लगभग 13 है, और 86% हिन्दू हैं। हिन्दुओं में भूमिहार और ब्राह्मण को साथ रख दें तो वो 13-14% तक पहुँचते हैं। इसके अलावा यादवों का प्रतिशत 10 के आस-पास है, और बाकी की जनसंख्या दलित कहलाने वाली जातियों की है। ये सारे प्रतिशत (हिन्दू और मुस्लिम वाले छोड़कर) लगभग में हैं, अंतिम नहीं माने जाएँ। भूमिहारों का गढ़ इसे इसलिए कहा जाता रहा है क्योंकि यहाँ कम संख्या में होने के बावजूद राजनीति में इनकी चलती है, और इस जाति के नेता संसद और विधायक बनकर ऊपर जाते रहे हैं। इसलिए, यह सोचना कि भूमिहार वोट देकर भूमिहार को चुन लेते हैं, गलत आकलन है।
जब यहाँ भूमिहारों की ही चलती है तो फिर मोनाजिर हसन भाजपा-जदयू के टिकट पर कैसे जीत जाते हैं? वो इसलिए कि यहाँ भूमिहार जाति नहीं, कमल का फूल (या गठबंधन रहे तो तीर छाप) पहचानता है। इसलिए, पिछले चुनावों को ध्यान में रखा जाए तो, यहाँ प्रत्याशी की जाति तभी मायने रखती है जब वो भाजपा या गठबंधन का नहीं रहे। सवर्णों यानी भूमिहार और ब्राह्मणों का वोट वामपंथियों को इसलिए नहीं जाएगा कि वहाँ भूमिहार खड़ा है, बल्कि भूमिहार दूसरे समुदाय को भी वोट देते हैं जब वो तीर छाप पर मोनाजिर हसन के नाम पर खड़ा होता है।
मैंने ‘मुस्लिमों को भी’ लिखा है, जिसका मतलब यह है कि आमतौर पर ऐसा नहीं होता। जैसा कि मेरी ही गाँव के पंचायत में चार गाँव हैं, जिसमें एक गाँव मुस्लिमों का है, दो गाँव सिर्फ दलितों का और एक भूमिहारों का। वहाँ के चुनावों में भूमिहार कभी भी मुस्लिम प्रत्याशी को वोट नहीं देता, न ही मुस्लिम भूमिहार को। लेकिन, उसी मज़हब का उम्मीदवार कमल छाप या तीर छाप से खड़ा हो, तो भूमिहार पार्टी के प्रत्याशी को वोट देते हैं।
इसीलिए कहते हैं कि बिहार की राजनीति थोड़ी जटिल है, उसे क्षेत्रों को हिसाब से पढ़ना चाहिए और कोई वहाँ का हो, जिसकी राजनीति में रूचि हो, तो उससे बात करनी चाहिए। हालाँकि, लोग फेसबुक पर बैठकर ही जाति के समीकरण बना लेते हैं और उन्हें न तो जाति की जनसंख्या का पता होता है, न ही इस बात का कि उस क्षेत्र में वोटिंग पैटर्न कैसा रहा है।
आजकल हवा चल रही है कि कन्हैया कुमार के भूमिहार होने का उसको लाभ मिलेगा। जबकि, पिछले तीन सालों में जितनी बार घर गया हूँ, कन्हैया कुमार को भूमिहार होने पर, जेएनयू कांड के कारण गालियाँ ही पड़ते सुना है। ये मैं सुनी-सुनाई बात नहीं कर रहा, बल्कि लोगों के भीतरी क्षोभ की बात कर रहा हूँ जो कि एक नहीं, कई गाँवों में सुनने को मिला, “ये भूमिहार के नाम पर कलंक है! बेगूसराय से ऐसे लोग कैसे निकल गए! दिल्ली में यही सब पढ़ाता है क्या?”
बेगूसराय राष्ट्रकवि दिनकर की भूमि है। वहाँ के लोग तिरंगा और देश को लेकर हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। बहुत लोग ऐसा सोचते हों, पर यह सत्य नहीं है कि बेगूसराय टेलिविज़न चैनल का बहुत बड़ा स्टूडियो है जहाँ कन्हैया माइक लेकर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ बोल देंगे और बेगूसराय वाले मान लेंगे। ऐसा बिलकुल नहीं है।
कन्हैया भाजपा के गिरिराज सिंह को दो ही सूरत में टक्कर दे सकता है। पहला यह कि राजद के तनवीर हसन (जो पिछली बार दूसरे नंबर पर रहे थे) बैठ जाते और महागठबंधन कन्हैया को उम्मीदवार बनाकर उतारता। दूसरा, अभी की स्थिति में गिरिराज सिंह स्वयं ही भाजपा की हार के लिए प्रार्थना करें जैसा कि दिल्ली के विधायकों ने दिल्ली विधानसभा चुनावों में किया था।
मुस्लिम अमूमन, अगर उम्मीदवार भाजपा का न हो, तो मुस्लिम को ही वोट करता है। ये बात 2014 से तनवीर हसन के वोटों की संख्या और मुस्लिमों की जनसंख्या का प्रतिशत देखकर लगाया जा सकता है। लगभग तीस लाख की जनसंख्या वाले बेगूसराय में मुस्लिमों की आबादी लगभग चार लाख है, और वोटरों की संख्या क़रीब ढाई लाख होगी। कुल वोटर 18 लाख के लगभग हैं, जिनमें से 60% मतदान होने पर लगभग 10.8 लाख लोगों ने वोट दिया था।
तनवीर हसन को 3,69,892 वोट मिले थे। एक तो वो राजद (लालू वाली पार्टी) के कैंडिडेट थे, और दूसरे मुस्लिम। तो उनको बेगूसराय के यादवों का भी ठीक ठाक वोट मिला और मुस्लिमों का एकमुश्त अलग से। यही कारण है कि वो दूसरे नंबर पर रहे। वहीं, भाजपा के भोला सिंह को उनसे लगभग 60,000 ज्यादा वोट मिले। नंबर तीन पर दूसरे भूमिहार कैंडिडेट वामपंथी राजेन्द्र प्रसाद सिंह रहे, जिन्हें लगभग 1,92,000 वोट मिले।
इसके साथ ही, अगर 2009 के चुनावों को भी देखें तो पता चलता है कि वोटिंग प्रतिशत 48 रहने के बाद भी जदयू के मोनाजिर हसन और लोजपा के प्रत्याशी के वोटों को जोड़ दें तो अभी के हिसाब से भाजपा गठबंधन का वोट शेयर लगभग 34% पहुँच जाता है। वहीं वामपंथी पुरोधा शत्रुघ्न प्रसाद सिंह जो कि भूमिहारों के एक क़द्दावर वामपंथी नेता हैं, दूसरे नंबर पर 1.64 लाख वोटों के साथ थे। इसी वामपंथी पार्टी को अगले चुनावों में 1.92 लाख वोट मिले लेकिन वोट शेयर 22% से घटकर 16% हो गया।
कहने का मतलब यह है कि पूरी दुनिया और भारत देश में वामपंथियों को वोट देने वाले लोग लगातार घट रहे हैं। कन्हैया भी उसी पार्टी के हैं, उसी जाति के हैं, लेकिन उनके पास न तो शत्रुघ्न सिंह का जनाधार है, न ही राजेन्द्र प्रसाद का जो कि अपने क्षेत्र से दशकों से से राजनीति में सक्रिय हैं। ऐसे में सिर्फ भूमिहार और युवक के नाम पर कन्हैया को कितने वोट मिलेंगे, वो देखने वाली बात है। मेरे हिसाब से लाख का आँकड़ा छूना भी एक चुनौती होगा।
अब इसमें भोला सिंह की जगह भाजपा के ही गिरिराज सिंह को ले आइए, राजद से इस बार भी तनवीर हसन ही लड़ रहे हैं, और वामपंथ ने तीन बार के विधायक और ठीक-ठाक जनाधार वाले नेता की जगह नवयुवक कन्हैया को आगे किया है। वामपंथ के पहले भी प्रत्याशी भूमिहार ही थे, और इस बार भी कम्युनिस्ट होने के बावजूद अपनी भूमिहार का दावा करने वाले भूमिहार कन्हैया कुमार ही हैं।
मैंने आपके सामने इतने आँकड़े रख दिए। आपको वोटिंग पैटर्न बता दिया। आपको जाति और मज़हब की बात बता दी। कब, कौन जीता यह भी बता दिया। जनसंख्या बता दी, प्रतिशत बता दिया। अब, जब आपसे कोई कहे कि असली टक्कर तो तनवीर हसन और कन्हैया में है तो उनसे कहिए कि लालू के पैर छूने वाले कन्हैया को राजद ने इतना दूर कैसे कर दिया कि असली टक्कर लगाने लगे दोनों?
फिर इनसे पूछिए कि क्या वो बेगूसराय गए कभी या फिर टीवी देखकर (जिस पर बेगूसराय के नाम से सीरियल भी आता है जिसमें वहाँ राजपूतों का वर्चस्व दिखाया गया है, जिनका प्रतिशत शायद दशमलव के बाद शून्य लगाने पर आता हो) पता करते हैं कि बेगूसराय भूमिहारों का गढ़ है और गिरिराज सिंह नाराज हैं, और भूमिहारों का वोट बँट जाएगा!
भूमिहारों का वोट बँटता नहीं, भाजपा को जाता है। बँटने के बाद भी भाजपा के लिए इतना रहता है कि वो किसी को भी खड़ा कर दे, वो जीत जाते हैं। जो लोग गिरिराज सिंह की नाराज़गी में कहानी ढूँढ रहे हैं, उन्हें ध्यान रखना चाहिए वो सरकार में मंत्री हैं। रूठने पर भी, समझदार और दूरदर्शी आदमी स्थिति का जायज़ा लेता है। खासकर वह आदमी जो सत्ता में हो, वो सत्ता में होना चाहता है। वरना गिरिराज सिंह भी शत्रुघ्न सिन्हा बनकर राहुल गाँधी के बहुमुखी नेतृत्व में नवादा से चुनाव लड़ रहे होते। मुझे बेहतर पता है कि गिरिराज सिंह मेरे गाँव में होने वाले मृतक भोज से लेकर वैवाहिक कार्यक्रमों में तीन साल से कैसे आते हैं।
इसलिए, जब कोई यह कहता है कि असली टक्कर तो राजद के तनवीर हसन और कन्हैया कुमार में है, वो फेसबुक पर ही चुनावों का विश्लेषण करता है, फेसबुक पर ही सरकार बनाता है, फेसबुक पर ही सरकार को कोसता है, और फेसबुक पर ही अपने नागरिक होने की ज़िम्मेदारी भी निभाता है। अगर, राजद अपने प्रत्याशी को बिठा दे, जो कि करने से रही, तो भी कन्हैया कुमार के लिए जीतना तो छोड़िए, अपनी पार्टी के दो लाख वोटों का आँकड़ा छूने में भी कम से कम लाख वोटों का अंतर रहेगा ही।