Friday, November 15, 2024
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‘एक मोहल्ला, एक होलिका’ का ज्ञान देने वाले ईद पर ‘एक मोहल्ला, एक बकरा’ वाली सलाह देंगे? – हिन्दू त्योहारों पर ज्ञान बाँचने का चलन फिर शुरू, लिबरल गिरोह एक्टिव

क्या 'दैनिक जागरण' लोगों को ये सलाह देते हुए खबर प्रकाशित करेगा कि आप अखबर न खरीदें, क्योंकि इसके लिए जो कागज आता है वो पेड़ काट कर बनाया जाता है। लेकिन नहीं, जिन्हें 'एक मोहल्ला, एक बकरा' और 'एक मोहल्ला, एक क्रिसमस ट्री' लिखने की हिम्मत नहीं है, वो एक मोहल्ला, एक होलिका' लिख रहे हैं।

होली आ गई है। होली, मतलब रंग-गुलाल का त्योहार। हिन्दू त्योहार। अब चूँकि त्योहार हिन्दुओं का है, इसीलिए इस पर हंगामा मचाया जाना और इसके प्रति घृणा फैलाई जानी तो स्वाभाविक है। ऐसा करने वाले वामपंथी होते हैं, जिनका साथ कट्टर इस्लामी लोग बखूबी देते हैं। हिन्दू त्योहारों के खिलाफ प्रोपेगंडा में मीडिया, बुद्धिजीवी और सेलेब्रिटीज का एक पूरा का पूरा गठबंधन शामिल रहता है। होली को लेकर भी समय-समय पर ज्ञान दिए जाते रहे हैं।

ये कोई नई बात भी नहीं है। होली को लेकर पहले भी ज्ञान दिया जाता रहा है। जैसे, होली आते ही सब ‘वॉटर एक्टिविस्ट’ बन जाते हैं और पानी बचाने की बातें करने लगते हैं। ऐसे सेलेब्रिटी जो अपने घर में स्विमिंग पूल में नहा-नहा कर रोज हजारों लीटर पानी बर्बाद करते हैं, वो भी होली पर पानी बचाने का ज्ञान देते नजर आते हैं। कभी ‘सूखी होली’ खेलने को कहा जाता है तो कभी केवल फूलों का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है।

जब रंग ही गायब हो जाए तो होली कैसी? अब ‘दैनिक जागरण’ के एक विज्ञापन को देखिए। ये स्पष्ट नहीं है कि ये विज्ञापन कब का है, लेकिन ये होलिका दहन को लेकर ही है। ‘दैनिक जागरण की पहल’ के नाम पर अख़बार ‘एक मोहल्ला, एक होलिका’ नाम से एक विज्ञापन लेकर आ गया। इसमें उसने लिखा, “इस बार होली पर प्रयास करें कि थोड़ी दूर पर अलग-अलग होलिका जलाने की जितना जगह हो सके, एक मोहल्ले में एक ही होलिका जलाएँ। इससे प्रदूषण घटेगा, अपमापन बढ़ेगा।” साथ ही कुछ ‘दिशानिर्देश’ भी दिए गए।

ईद-क्रिसमस पर जम कर बधाइयाँ देने वाली मीडिया होली पर जम कर हिन्दुओं को नीचा दिखाती है। ‘दैनिक जागरण’ ने भी हिन्दुओं को ये सलाह दिया – यातायात बाधित न करें, इससे हमें और आपको ही परेशानी होगी, हाईटेंशन व अन्य तारों को बचाएँ, लकड़ी की जगह उपलों का प्रयोग करें, ताकि बचे रहें हमारे पेड़, ऐसा कोई सामान न जलाएँ जिससे पर्यावरण में प्रदूषण पैदा हो। क्या ईद-क्रिसमस पर ऐसे ज्ञान निकलते हैं?

अब जरा सोचिए। क्या ईद पर मीडिया लोगों को ये सलाह देती है कि एक मोहल्ले में एक ही बकरा काटें, क्योंकि जीव-जंतुओं की हत्या करना ठीक नहीं है? क्या ऐसे सलाह दिए जाते हैं कि जानवरों के खून को सड़क पर न बहाया जाए और बचे हुए मांस के टुकड़ों को सड़क पर न फेंका जाए? इससे तो बीमारी पैदा ही होती ही है। इस्लामी मुल्कों में सड़क पर खून की नदियाँ बहती दिखती हैं। ऐसे ही, ईद पर कभी ये ज्ञान नहीं दिया जाता कि सड़क जाम कर के नमाज न पढ़ें, इससे तो सचमुच यातायात बाधित होता है।

इसी तरह क्रिसमस और ईसाई नववर्ष के मौके पर कभी ये ज्ञान नहीं दिया जाता कि पटाखे न जलाएँ। दीवाली खत्म होते ही इस तरह का ज्ञान देने की तारीख़ एक्सपायर हो जाती है। क्रिसमस पर कभी आर्टिफिसियल पेड़ों को घर पर न लाने की सलाह नहीं दी जाती। कभी ये नहीं कहा जाता कि पार्टियों में पानी और भोजन बर्बाद न करें। उलटा और खुल कर जश्न मनाने की सलाह दी जाती है, क्योंकि सारे पर्यावरण का ठेका हिन्दुओं ने ही ले रखा है जो प्रकृति की पूजा करते हैं।

क्या हम ‘दैनिक जागरण’ से ये पूछ सकते हैं कि अख़बारों के लिए कागज कैसे बनता है? इसके लिए पेड़ काटे जाते हैं या नहीं? क्या ‘दैनिक जागरण’ लोगों को ये सलाह देते हुए खबर प्रकाशित करेगा कि आप अखबर न खरीदें, क्योंकि इसके लिए जो कागज आता है वो पेड़ काट कर बनाया जाता है। लेकिन नहीं, जिन्हें ‘एक मोहल्ला, एक बकरा’ और ‘एक मोहल्ला, एक क्रिसमस ट्री’ लिखने की हिम्मत नहीं है, वो एक मोहल्ला, एक होलिका’ लिख रहे हैं।

होलिका दहन एक ऐसा त्योहार है, जिसे भक्त प्रह्लाद के राक्षसों के अत्याचार के बावजूद ज़िंदा बच जाने की कहानी कहता है। अब देखिए, एक यूट्यूबर और कथित महिला एक्टिविस्ट ने तो होलिका दहन को ही महिला विरोधी त्योहार बताते हुए पूछ दिया कि एक सभ्य समाज में स्त्री को ज़िंदा जलाना कहाँ तक उचित है? ऐसी बातें वही करते हैं, जिन्हें न तो हमारे पर्व-त्योहारों के पीछे का कॉन्सेप्ट पता है और न इसका इतिहास और इसकी कथा।

होलिका दहन के बारे में हिन्दुओं को पता है कि होलिका अपने मासूम भतीजे प्रह्लाद को ज़िंदा जलाने के लिए आग में बैठ गई थी, लेकिन वो जल गई और भक्त प्रह्लाद बच गए। अगर होलिका जलाना स्त्री-विरोधी है तो क्या हर साल रावण को दशहरा के मौके पर जलाए जाने को पुरुष विरोधी बता कर आंदोलन खड़ा कर दिया जाना चाहिए? स्त्रियों की जहाँ पूजा होती है, उस हिन्दू धर्म में इस तरह के पाश्चात्य वोक एक्टिविज्म की ज़रूरत ही नहीं है।

होली रंगों का त्योहार है। रंग और पानी के बिना इसे हम क्यों मनाए? ऐसे ही, महाशिवरात्रि पर दूध बचाने का ज्ञान दिया जाता है। दीवाली पर कहा जाता है कि दीये मत जलाओ और पटाखे मत उड़ाओ। दुर्गा पूजा कर हिन्दुओं को ये कह कर नीचा दिखाया जाता है कि भारत में बलात्कार होते हैं। गणेश चतुर्थी के मौके पर प्रतिमा जल में न विसर्जित करने को कहा जाता है। अर्थात, जितने हिन्दू त्योहार उतने ही किस्म के नए-नए ज्ञान।

त्योहार हमेशा से वैसे ही मनाए जाने चाहिए जैसा हमारे शास्त्रों पर वर्णित है और जैसे हमारे पूर्वज पूरे उत्साह के साथ मनाते रहे हैं। हिन्दू त्योहारों में न तो हिंसा के लिए कोई जगह है और न ही किसी और को नुकसान पहुँचाया जाता है। उत्सव के दौरान सब जश्न में डूबे रहते हैं, एक-दूसरे से मिलते हैं और ईश्वर की पूजा-अर्चना करते हैं। इसमें लिबरल गिरोह के ज्ञान के लिए कोई जगह नहीं है। गया की ज़रूरत जिन्हें है, उन्हें देने में इनकी हालत पस्त हो जाती है क्योंकि वो ‘सिर तन से जुदा’ कर देते हैं।

इसीलिए, खूब अच्छे से होली मनाइए। रंग लगाइए एक-दूसरे को। पानी में रंग घोल कर एक-दूसरे पर उड़ेलिए। हाँ, बस हमें ऐसे रंगों का प्रयोग नहीं करना है जिससे हमारा नुकसान हो जाए। ब्रज में फूलों की होली खेलिए, काशी में चिताभस्म की होली खेलिए और मोहल्ले में अबीर-गुलाल सबका प्रयोग कर के होली खेलिए। पकवान खाइए, पूजा-पाठ कीजिए और ज्ञान देने वाले को दिखा-दिखा कर ये सब कीजिए। कोई ‘दैनिक जागरण’ या फिर कोई ‘निर्देश सिंह’ ये डिसाइड नहीं कर सकते कि हिन्दू अपने त्योहार कैसे मनाएँ।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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