अमिताव घोष ने लिखा है- कोई नहीं जानता, कोई जान भी नहीं सकता, अपनी स्मृतियों में भी नहीं, क्योंकि काल के गर्भ में कुछ ऐसे क्षण होते हैं जो जाने भी नहीं जा सकते।
मारीचझापी की कहानी भी कुछ ऐसी ही है। बकौल दलित लेखक मनोरंजन व्यापारी यह एक ऐसा नरसंहार है, जिसने सुंदरबन के बाघों को आदमखोर बना दिया। आजाद भारत का सबसे भीषण नरसंहार जिसमें मार डाले गए हिंदू शरणार्थियों की संख्या को लेकर यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। सरकारी फाइलों में 10 मौतें जो अलग-अलग आकलनों में 10 हजार तक पहुॅंचती है। जो मारे गए उनमें ज्यादातर दलित (नामशूद्र) थे। जिनकी शह पर नरसंहार हुआ, वह दलितों के वोट से बंगाल में दशकों तक राज करने वाले वामपंथी थे। नरसंहार और उसे इतिहास के पन्नों से मिटा देने की साजिश को जिसकी मौन सहमति हासिल थी, वह कॉन्ग्रेस थी। वही, कॉन्ग्रेस जिसने मंगलदोई में समुदाय विशेष की घुसपैठ इस तेजी से करवाई कि जनसंख्या वृद्धि के सभी सिद्धांत धाराशायी हो गए और जिसके विरोध में असम आंदोलन की लौ फूटी।
1979 के इस नरसंहार के पन्नों को खोलने से पहले जरा नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध के नाम पर हो रही हिंसा के किरदारों पर गौर करें। मजहबी उन्मादी भीड़, उसके बीच खड़ा दलितों का मसीहा बनने को आतुर भीम आर्मी का चीफ चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ रावण, पर्दे के पीछे से साजिश रचते कॉन्ग्रेसी और वामपंथी। हिंदुत्व की कब्र खुदने के नारों के बीच ‘जय भीम-जय मीम’ की वही फुसफुसाहट, जिसने जोगेंद्रनाथ मंडल को 72 साल पहले धोखा, विश्वासघात और पश्चाताप के सिवा कुछ भी नहीं दिया था।
सो, हैरत नहीं कि खुशी सिंह ट्विटर पर लिखती हैं, “मैं दलित हूॅं। ज्यादातर बांग्लादेशी और पाकिस्तानी हिंदू दलित हैं। पाकिस्तान और बांग्लादेश के दलित शरणार्थियों को नागरिकता देने के विरोध में जामा मस्जिद पर हो रहे प्रदर्शन में चंद्रशेखर आजाद क्या कर रहा है? कौन इसे दलित नेता कहता है?”
I am a Dalit (Chamar), Most of the Bangladesh and Pakistani hindus are DALITS
— Khushi Singh (@KhushiText) December 20, 2019
What the fuck that PIG Chandrasekhar Azad doing in Jama Masjid and protesting against citizenship to DALITS of Pak and Bangladesh
Who call that pig a DALIT LEADER ?
That pig is not my leader.
खुशी जैसों की बात में दम है, क्योंकि पाकिस्तान के ज्यादातर हिंदू शरणार्थी मेघवाल, भील, कोली, बलाई जैसी जातियों से हैं। बांग्लादेशी नामशूद्र हैं। ऐसे में वह कानून जो पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के प्रताड़ित अल्पसंख्यक शरणार्थियों को नागरिकता देने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, कैसे दलित विरोधी हो सकता है? इस सवाल का जवाब आप जब तलाशते हैं तो जड़ें मरीचझापी के नरसंहार में मिलती हैं।
हालॉंकि बंगाल में अपने तीन दशक के शासनकाल में वामपंथियों ने जो खूनी खौफ कायम किया उसका ही असर है कि बमुश्किल चार दशक पुरानी इस घटना का ज्यादा ब्यौरा नहीं मिलता। अमिताव घोष की किताब ‘द हंग्री टाइड्स’ की पृष्ठभूमि यही नरसंहार है। इसके अलावा आनंद बाजार पत्रिका और स्टेट्समैन जैसे उस समय के अखबारों में इस घटना का एकाध विवरण मिलता है। लेकिन, इसका सबसे खौफनाक और प्रमाणिक विवरण पत्रकार दीप हालदार की किताब ‘द ब्लड आइलैंड’ में है, जो इसी साल प्रकाशित हुई है। दीप ने इस नरसंहार में जीवित बच गए लोगों और इससे जुड़े अन्य किरदारों के मार्फत उस खौफनाक घटना का विवरण पेश किया है।
किताब में एक प्रत्यक्षदर्शी के हवाले से कहा गया है, “14-16 मई के बीच आजाद भारत में मानवाधिकारों का
का सबसे खौफनाक उल्लंघन किया गया। पश्चिम बंगाल की सरकार ने जबरन 10 हजार से ज्यादा लोगों को द्वीप से खदेड़ दिया। बलात्कार, हत्याएँ और यहॉं तक की जहर देकर लोगों को मारा गया। समंदर में लाशें दफन कर दी गईं। कम से कम 7000 हजार मर्द, महिलाएँ और बच्चे मारे गए।”
आप जानकर हैरत में रह जाएँगे कि वाम मोर्चे की सरकार ने जिनलोगों की हत्याएँ कि उन्हें यहॉं बसने के लिए भी उसने ही प्रोत्साहित किया था। यह तब की बात है जब वामपंथी सत्ता में नहीं आए थे और हिंदू नामशूद्र शरणार्थी उन्हें अपना शुभेच्छु मानते थे। वामदलों की शह पर खासकर, राम चटर्जी जैसे नेताओं के कहने पर ये नामशूद्र शरणार्थी दंडकारण्य से आकर दलदली सुंदरबन डेल्टा के मरीचझापी द्वीप पर बसे। अपने पुरुषार्थ के बल पर बिना किसी सरकारी मदद के इस निर्जन द्वीप को उन्होंने रहने लायक बनाया। खेती शुरू की। मछली पकड़ने लगे। स्कूल, क्लीनिक तक खोल लिए।
नामशूद्र दलित हिंदुओं का यह समूह उस पलायन का एक छोटा सा हिस्सा था, जो बांग्लादेश में प्रताड़ित होने के बाद भारत के अलग-अलग हिस्सों में बसे। लेकिन, सत्ता में लौटने के बाद वामपंथियों को ये बोझ लगने लगे। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक जनवरी 1979 में मरीचझापी द्वीप पर बांग्लादेश से आए करीब 40,000 शरणार्थी थे। वन्य कानूनों का हवाला दे वामपंथी सरकार ने उन्हें यहॉं से खदेड़ने का कुचक्र रचा। 26 जनवरी को मरीचझापी में धारा 144 लागू कर दी गई। टापू को 100 मोटर बोटों ने घेर लिया। दवाई, खाद्यान्न सहित सभी वस्तुओं की आपूर्ति रोक दी गई। पीने के पानी के एकमात्र स्रोत में जहर मिला दिया गया। पाँच दिन बाद 31 जनवरी 1979 को पुलिस फायरिंग में शरणार्थियों का बेरहमी से नरसंहार हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों का अनुमान है कि इस दौरान 1000 से ज्यादा लोग मारे गए। लेकिन, सरकारी फाइल में केवल दो मौत दर्ज की गई।
मीडिया रिपोर्टों के अनुसार उच्च न्यायालय के आदेश पर 15 दिन बाद रसद आपूर्ति की अनुमति लेकर एक टीम यहाँ गई थी। इसमें जाने-माने कवि ज्योतिर्मय दत्त भी थे। दत्त के अनुसार उन्होंने भूख से मरे 17 व्यक्तियों की लाशें देखीं।
बावजूद इसके करीब 30,000 शरणार्थी मरीचझापी में अभी भी थे। मई 1979 में इन्हें खदेड़ने पुलिस के साथ वामपंथी कैडर भी पहुॅंचे। 14-16 मई के बीच जनवरी से भी भीषण कत्लेआम का दौर चला। ‘ब्लड आइलैंड’ में इस घटना का बेहद दर्दनाक विवरण दिया गया है। मकान और दुकानें जलाई गईं, महिलाओं के बलात्कार हुए, सैंकड़ों हत्याएँ कर लाशों को पानी में फेंक दिया गया। जो बच गए उन्हें ट्रकों में जबरन भर दुधकुंडी कैम्प में भेज दिया गया। इस किताब में मनोरंजन व्यापारी के हवाले से बताया गया है कि लाशें जंगल के भीतरी इलाकों में भी फेंके गए और सुंदरबन के बाघों को इंसानी गोश्त की लत गई।
लेकिन, मरीचझापी को न तो वामदलों ने मुद्दा बनने दिया और न कॉन्ग्रेस ने इन दलितों की फिक्र की। वह तो इसी वक्त मुस्लिम घुसपैठियों को मंगलदोई में बसाने में जुटी थी। अपनी किताब ‘द लास्ट बैटल आफ सरायघाट’ में रजत सेठी और शुभ्राष्ठा ने लिखा है कि इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के चुनावों में असम में कॉन्ग्रेस को 14 में से 10 सीटें मिली। तीन सीटें जनता पार्टी को मिली थीं। इनमें एक सीट मंगलदोई की थी। इस सीट पर जनता पार्टी के हीरा लाल पटवारी (तिवारी) चुनाव जीते थे। मंगलदोई लोकसभा क्षेत्र में 5,60, 297 मतदाता थे। एक साल बाद हीरा लाल की मौत हो गई तो उपचुनाव कराया गया। महज़ एक साल से थोड़े से अधिक समय में जब मतदाता सूची (वोटर लिस्ट) अपडेट की गई तो मतदाताओं की यह संख्या 80,000 बढ़ गई! यानी रातों-रात 15% की एकाएक वृद्धि! इनमें से लगभग 70,000 मतदाताओं का मजहब इस्लाम था। तमाम नागरिक समूहों ने इसके विरुद्ध शिकायतें दर्ज कराईं। ऐसे मामलों की संख्या भी लगभग 70 हज़ार थी, इनमें से 26 हज़ार ही टिक पाए। यहीं से भारतीय राजनीति में ‘अवैध बांग्लादेशी’ शब्द आता है, जिसका बड़ा हिस्सा बांग्लादेशी मुस्लिमों का है। इनके लिए ही आज ममता बनर्जी जैसी नेता राजनीतिक स्वार्थों की वजह से ढाल बनकर खड़ी नजर आ रहीं हैं।
वैसे, ‘जय भीम-जय मीम’ के नाम पर दलित हिंदुओं को छलने का सिलसिला गुलाम भारत से ही शुरू हो जाता है। जोगेंद्रनाथ मंडल भी इसी छलावे के शिकार हुए थे। यह मंडल ही थे जिनके कारण बांग्लादेश का सयलहेट पाकिस्तान में चला गया था। 3 जून 1947 की घोषणा के बाद असम के सयलहेट जिले को मतदान से ये तय करना था कि वो पाकिस्तान का हिस्सा बनेगा या भारत का। उस इलाके में हिन्दुओं और मुस्लिमों की जनसंख्या लगभग बराबर थी। चुनाव में नतीजे बराबरी के आने की संभावना थी। जिन्ना ने मंडल को वहाँ भेजा। दलितों का मत, मंडल ने पाकिस्तान के समर्थन में झुका दिया।
देश के विभाजन के बाद फौरी तौर पर मंडल को इसका इनाम भी मिला। वे पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री और श्रम मंत्री थे। सन 1949 में जिन्ना ने उन्हें कॉमनवेल्थ और कश्मीर मामलों के मंत्रालय की जिम्मेदारी भी सौंप दी थी। लेकिन जब पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार शुरू हुए तो मंडल बेबस हो गए। बलात्कार आम बात थी। हिन्दुओं की स्त्रियों को उठा ले जाना मंडल की नजरों से भी छुपा नहीं था। वो बार-बार इन पर कार्रवाई के लिए चिट्ठियाँ लिखते रहे। इस्लामिक हुकूमत को ना उनकी बात सुननी थी, ना उन्होंने सुनी। हिन्दुओं की हत्याएँ होती रहीं। जमीन, घर, स्त्रियाँ लूटी जाती रहीं। कुछ समय तो मंडल ने प्रयास जारी रखे। आखिर उन्हें समझ आ गया कि उन्होंने किस पर भरोसा करने की मूर्खता कर दी है। जिन्ना की मौत होते ही 1950 में वे भारत लौट आए और 5 अक्टूबर 1968 को गुमनामी की मौत मर गए।
मंडल से लेकर आज तक का इतिहास गवाह है कि ‘जय भीम-जय मीम’ की ओट में दलित हमेशा छले ही जाते रहे हैं। भले रावण जैसा कोई फौरी तौर पर अपना कद ऊँचा कर ले, लेकिन भीड़ दलितों के नाम पर अपने मजहबी उन्माद को छिपा लेती है। दलितों के सहारे सत्ता में आ कॉन्ग्रेसी और वामपंथी हर बार उनकी ही लाशों पर चढ़ ‘मीम’ का तुष्टिकरण करते हैं। आज CAA विरोध के नाम पर जो कुछ दिख रहा है वह भी इससे अलग नहीं है। आखिर, आंबेडकर ने यूॅं ही नहीं कहा था, “वतन के बदले क़ुरान के प्रति वफादार हैं मुस्लिम। वो कभी हिन्दुओं को स्वजन नहीं मानेंगे।”
वतन के बदले क़ुरान के प्रति वफादार हैं मुस्लिम, वो कभी हिन्दुओं को स्वजन नहीं मानेंगे: आंबेडकर
जय भीम जय मीम की कहानी 72 साल पुरानी… धोखा, विश्वासघात और पश्चाताप के सिवा कुछ भी नहीं