कॉन्ग्रेस पार्टी की अंतरराष्ट्रीय शाखा इंडियन ओवरसीज कॉन्ग्रेस (IOC) ने नौ यूरोपीय देशों के लिए अपने अध्यक्ष चुने हैं। आईओसी के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने इटली, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, हॉलैंड, पोलैंड, फिनलैंड और नॉर्वे के लिए अध्यक्षों के नाम और नियुक्ति की घोषणा करते हुए बताया कि ये अध्यक्ष इन देशों में आईओसी की नीतियों और योजनाओं के विस्तार के लिए काम करेंगे। वे अपने-अपने देशों में योग्य, समर्पित और चिन्तनशील लोगों की पहचान करेंगे ताकि आईओसी की नीतियों को आगे बढ़ाया जा सके।
@INCOverseas Hearty congratulations to the newly appointed Country Presidents of Indian Overseas Congress Europe team INCOverseas !
— Anura Mathai (@Anuramathai) July 8, 2021
Wishing the entire team all the very best ! pic.twitter.com/enfwRBLaUn
इसके साथ ही अखिल भारतीय कॉन्ग्रेस कमेटी ने देशों में एक कोर कमेटी नियुक्ति भी की है जिसमें संरक्षक, उपाध्यक्ष और महासचिव हैं। इन नियुक्तियों में एक दिलचस्प बात यह है कि नियुक्त किए गए अधिकतर पदाधिकारी पंजाबी मूल के हैं। ऐसा शायद आगामी पंजाब चुनावों को ध्यान में रखते हुए किया गया है।
@INCOverseas Hearty congratulations to the newly appointed CORE committee of Indian Overseas Congress Europe team INCOverseas !
— Anura Mathai (@Anuramathai) July 8, 2021
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भारतीय मूल की कॉन्ग्रेस पार्टी अपनी अंतरराष्ट्रीय शाखा के जरिए यूरोपीय देशों में कौन सी नीतियाँ लागू करना चाहती है या कैसे विस्तार करना चाहती है, यह जानना दिलचस्प रहेगा, पर ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। दिसंबर 2019 में इंडियन ओवरसीज कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष सैम पित्रोदा ने तुर्की के इस्तांबुल शहर में आईओसी का एक कार्यालय तब खोला था, जब तुर्की और भारत के संबंध अच्छे नहीं थे और तमाम विशेषज्ञों के अनुसार तुर्की से किसी न किसी रूप में भारत विरोधी गतिविधियों को शह दिया जा रहा था। इसके अलावा तब तुर्की और पाकिस्तान की नज़दीकियाँ पूरी दुनिया के सामने थी। तुर्की में कार्यालय खोलने के पीछे कौन से तर्क या कारण हैं, उसे लेकर केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है पर यह प्रश्न बार-बार खड़ा होगा कि तुर्की जैसे देश में भारत की एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए कार्यालय खोलना आवश्यक क्यों है?
यह विडंबना ही है कि कॉन्ग्रेस पार्टी देश में लम्बे समय तक शासन करने के बाद पिछले दो दशकों में अपनी नीतियों की वजह से सिकुड़ती रही है। ऐसे में भारत में अपनी खोई ताकत वापस पाने के लिए प्रयास न करके यदि उसका ध्यान दुनिया के अन्य देशों में किसी न किसी रूप में अपने विस्तार पर लगा हुआ है तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? आखिर इन देशों में कॉन्ग्रेस अपना विस्तार क्यों करना चाहती है?
इसका उत्तर तो शायद पार्टी चलाने वाले ही दे सकें। पर यह विमर्श अवश्य होना चाहिए कि इन देशों में अध्यक्ष और अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति के पीछे पार्टी की राजनीतिक मंशा क्या है? चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉन्ग्रेस पार्टी के बीच वर्ष 2008 में किए गए एक समझौते की खबर गत वर्ष सामने आई थी जिसको लेकर पार्टी ने कभी कोई संतोषजनक उत्तर देने का प्रयास भी नहीं किया और उस मामले में भी अभी तक केवल अनुमान ही लगाए जाते रहे हैं। साथ ही यह आश्चर्य का ही विषय है कि अलोकतांत्रिक देश चीन में शासन करने वाली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉन्ग्रेस के बीच सहयोग के ऐसे कौन से क्षेत्र हैं जिन पर दोनों दल न केवल मिलकर काम कर सकते हैं, बल्कि उन्हें एक लिखित समझौते में रख भी सकते हैं?
कॉन्ग्रेस पार्टी की राजनीति में विदेशी प्रभाव दशकों पुरानी संस्कृति का हिस्सा रहा है। वैसे तो पार्टी के संस्थापक भी एक विदेशी ही थे, पर इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता कि विदेशी संस्थापक द्वारा शुरू की गई पार्टी पिछले सवा सौ वर्षों से इस मामले में अपने मूल रास्ते पर दिखाई देती रही है। शायद पार्टी की इसी संस्कृति की महिमा का बखान करते हुए राहुल गाँधी ने प्रवासी भारतीयों के साथ अपनी एक मीटिंग में बताया था कि कॉन्ग्रेस हमेशा से एनआरआई की पार्टी रही है और गाँधी, नेहरू और अम्बेडकर, ये सभी एनआरआई थे। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने महात्मा गाँधी का उदाहरण देते हुए कहा था कि कैसे महात्मा गाँधी विदेश से आए थे ताकि कॉन्ग्रेस पार्टी के साथ काम कर सकें। संयोग से राहुल गाँधी के साथ प्रवासी भारतीयों की इस मीटिंग के सूत्रधार पित्रोदा ही थे।
कारण चाहे जो हो पर एक राष्ट्रीय स्तर की सवा सौ वर्षो से भी अधिक पुरानी पार्टी के लिए इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि वह भारत में अपने लिए एक अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं कर पा रही पर यूरोप के नौ देशों में एक साथ अध्यक्ष नियुक्त कर ले रही है। देखा जाए तो राष्ट्रीय अध्यक्ष की नियुक्ति की बात अब सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा भी नहीं रही है और पार्टी भी इस विषय पर आधिकारिक बयान देने से कतराने लगी है।
इस विषय पर आए दिन केवल जनता द्वारा अनुमान ही लगाए जाते हैं। पार्टी की तरफ से ऐसा किस रणनीति या राजनीतिक दर्शन के तहत किया जा रहा है, इस पर पार्टी के भीतर प्रश्न उठना शायद मुश्किल ही नहीं बल्कि असंभव सा जान पड़ता है। इस विषय पर होने वाली चर्चा अक्सर पार्टी के बाहर ही होती रही है। अगले वर्ष होनेवाले विधानसभा चुनावों को लेकर जब राजनीतिक सरगर्मियाँ बढ़ेंगी तब शायद इस विषय में चर्चा एक बार फिर से सामने आए। फिलहाल तो यही प्रतीत होता है कि निकट भविष्य में पार्टी के भीतर राजनीतिक हलचलें इंडियन ओवरसीज कॉन्ग्रेस तक ही सीमित रहेंगी।