नए दौर और पुराने समय में अंतर होता है। ये साधारण सी बात समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की पढ़ाई जरूरी नहीं है। बस अपने अहंकार, अपनी ठसक को थोड़ी देर किनारे रखना होता है। ऐसा नहीं करने पर क्या होगा? इसे समझना है तो एक नजर हाल के भारत बनाम ट्विटर विवाद को देख लीजिए।
भारत ने ऑनलाइन चलने वाले प्रचार तंत्र से निपटने के लिए नए कायदे बनाए। भारत के इस “इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी रेगुलेशन” में उतने ही छेद थे, जितनी किसी छकनी में हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि ये पुराने दौर के किन्हीं बूढ़े लोगों का बनाया हुआ होगा, जिन्हें खुद सोशल मीडिया और वेबसाइट-ब्लॉग जैसी चीज़ें चलाने का कोई अनुभव ही नहीं था। इन कायदों की कितनी सुनवाई हुई, उस पर तो पूरा देश ही नेताजी पर हँस भी रहा है।
उदाहरण के तौर पर ऐसे समझ लीजिए कि अख़बारों के दौर का कोई आदमी शायद ऑनलाइन के कायदे बनाने बैठा था। जब अख़बारों का युग था, उस समय भी कई बार गलत ख़बरें छप जाती थीं। दस-बीस पन्ने के अखबार में कोई नाम गलत हो जाना, कोई संख्या या प्रतिशत गलत छप जाना, कोई बड़ी बात नहीं। मानवीय भूलों से भी ऐसा होता है।
इधर तो कई बार पक्षकारों पर जान बूझकर ऐसी गलतियाँ करने के आरोप भी रहे हैं। इसके वाबजूद जैसा एकाउंटिंग में होता है, वैसा “एरर बाय ओमीशन” (छूट जाने से हुई गलती) और “एरर बाय कमीशन” (जान बूझ कर घुसाई गई गलती) के लिए अलग-अलग नियम इतने वर्षों में नहीं बने थे। ऑनलाइन का काम इससे भी कहीं आगे होता है। अख़बारों की तरह यहाँ एक बार छप गया तो बदला नहीं जा सकता, की मजबूरी नहीं है। ऑनलाइन में सुधार करने की संभावना अधिकांश जगहों पर होती है।
तो होना क्या चाहिए था? होना ये चाहिए था कि सिंगापुर जैसी जगहों पर जो “प्रोटेक्शन फ्रॉम ऑनलाइन फॉल्सहुड एंड मैनीपुलेशन एक्ट” (पीओएफएमए 2019) जैसे नियम हैं, उनसे सीखकर भारत में नियम बनाए जाने चाहिए थे। उस स्थिति में किसी अख़बार या न्यूज़ चैनल के ऑनलाइन संस्करण में भी अगर कुछ गलत छपा है तो उसके लिए केवल माफीनामा नहीं आता। उसमें सुधार करके उसे दोबारा प्रकाशित करने की ऐसे संस्थानों की मजबूरी होती।
ऐसा कुछ हुआ नहीं और बिना दाँत वाले बाघ की तरह मंत्रालय की दहाड़ पर ट्विटर ने कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टा ये जरूर हुआ कि फेसबुक की कंपनी व्हाट्सएप्प ने सरकार पर ही दबाव बनाने के लिए अदालतों की शरण ले ली! इसकी तुलना में सिंगापुर का पीओएफएमए 2019 भी ऐसा कानून है, जिसके लिए अदालत में जाया जा सकता है, लेकिन अभी तक फेसबुक, ट्विटर जैसी किसी कंपनी ने ऐसा करने की हिम्मत नहीं दिखाई है।
सिंगापुर के पीओएफएमए 2019 के बनने में आम लोगों ने भी अहम भूमिका निभाई थी। इस पूरी कवायद की तुलना भारत की नई शिक्षा नीति से करना भी अच्छा रहेगा। उन्होंने कोई 600-700 पन्नों का एक दस्तावेज जारी करके उस पर बहस आमंत्रित नहीं की।
ऐसी मोटी किताबों को कोई प्रिंट करवाएगा, फिर उसे पढ़ेगा, ऐसा मानना तो भारत के सरकारी बाबुओं के सपने में ही संभव है। न तो भारत के अधिकांश लोग 700 पन्ने का प्रिंट निकलवाने का आर्थिक खर्च झेलने में सक्षम होंगे, न ही उतना पढ़ कर उस पर अपने विचार रखने के लिए कोई समय निकलेगा। ये समझना भी मामूली सी बात थी लेकिन जैसे इसे नहीं समझा गया, कुछ वैसा ही “इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी रेगुलेशन” के मामले में भी हुआ। बात इतनी कमियों पर ही रुकती तो भी कोई बात थी, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ।
कानूनों का स्पष्ट होना आवश्यक है। अगर किसी हिस्से की व्याख्या के लिए ही एक मुकदमा हो, और फैसले में जो व्याख्या आए उसके हिसाब से आगे काम होना हो, तो फिर तो मुक़दमे भी होंगे ही। भारतीय अदालतों में मुक़दमे में कितना वक्त लगता है, ये भी किसी से छुपा हुआ नहीं है।
अंग्रेजी कहावतों के हिसाब से मान लें कि इन्साफ में की गई देरी नाइंसाफी है, तो भारत की आम जनता को ये नाइंसाफी झेलनी भी होगी। इन सब के ऊपर से भ्रष्टाचार को भी जोड़ा जाए तो स्थिति और भयावह हो जाती है। जहाँ सिंगापुर के कानून मंत्री साफ़ कहते हैं कि हम किसी लॉबी के दबाव में नहीं आते, वहीं भारत के लिए हर बार ये बात लागू होती हो, ऐसा जरूरी नहीं लगता। हमें पता है कि भोपाल गैस लीक जैसे मामलों में अपराधी एंडरसन साफ़ निकल भागा था। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि भारत में कानूनों की दशा आम आदमी को बहुत विश्वसनीय तो नहीं लगती।
प्रश्न है कि ऐसी स्थिति में किया क्या जाए? इसका एक आसान तरीका है कि कम से कम कंप्यूटर और सूचना तकनीकों से जुड़े कानूनों को लगातार सुधार की श्रेणी में डाला जाए। जब तक एक कानून बन कर तैयार होगा, सूचना तकनीक की दुनिया एक कदम और आगे बढ़ चुकी होती है। ऐसे में इसमें लगातार बदलाव आवश्यक हैं।
सबसे पहले तो हमें इससे सम्बंधित कानूनों को कोई मोटा पोथा बनाने के बदले कम से कम, और स्पष्ट शब्दों में लिखने की तैयारी करनी होगी। कानूनी जानकारों को भी ये समझना होगा कि क्लिष्ट भाषा के बदले स्पष्ट सन्देश देने वाले कानूनों की जरूरत है। इसके साथ ही इसे जनता के बीच खुला रखना होगा और ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि इस पर लगातार चर्चा जारी रह सके। अगर कोई नया बदलाव आता है, या कोई नई शिकायत या संभावना जताई जाती है तो विभाग के पास इस बात की व्यवस्था होनी चाहिए कि कोई उस सन्देश को सुने और उस पर कार्रवाई भी हो।
इस न्यूनतम सुधार के बिना जब हम सूचना तकनीक से जुड़े कानूनों की बात करते हैं तो वो बेमानी होगी। इसके साथ ही हमें विभागों का वर्गीकरण भी करना होगा। सूचना तकनीक के द्वारा होने वाले अपराध एक अलग श्रेणी में जाते हैं। इसमें साइबर ठगी, गुंडागर्दी, धमकाना, ब्लैकमेल जैसी चीज़ें आएँगी। यहाँ कई कानून बैंकों और पैसे के लेन-देन से भी जुड़े होंगे। इसकी तुलना में इन्टरनेट और सोशल मीडिया के इस्तेमाल के जरिए प्रचार और प्रोपगैंडा एक बिलकुल अलग मसला है।
प्रोपगैंडा का इस्तेमाल असंतोष बढ़ाने, आतंकी संगठनों की भर्ती, दंगे भड़काने, या चुनावों को प्रभावित करने में किया जा सकता है। ये एक अलग क्षेत्र है और प्रोपगैंडा के लिए अलग श्रेणी के कानूनों की जरूरत होगी। इन दोनों को अलग-अलग बाँटकर काम करना शुरू करना होगा।
बाकी समस्या ये भी है कि भारत में मुद्दे उठते तो हैं, मगर थोड़े ही दिनों में भुला भी दिए जाते हैं। भारत बनाम ट्विटर का मुद्दा भी अब करीब इस दौर में है कि इसे भुला दिया जाए। हम सीख कर आगे बढ़ेंगे, या भूलकर आगे बढ़ेंगे, ये भी देखने लायक बात होगी।