जेएनयू कुछ सालों से पढ़ाई के लिए कम और बकैती के लिए ज्यादा चर्चा में रहा है। लेनिनवंशी माओनंदन कामपिपासु वामभक्त मोलेस्टरों का गढ़ रह चुके जेएनयू में ‘आजादी गैंग’ और ‘टुकड़े-टुकड़े गिरोह’ अभी भी साँस ले रहा है। ‘डर का माहौल’ में जी रहे ये कामपंथी, ‘फासिस्ट हिन्दुस्तान’ को लानतें भेजते हुए, गले में खराश से जूझती आवाज में देशविरोधी प्रदर्शन करने के लिए रात के अंधेरे का इस्तेमाल करते दिखे।
जिस तरह की क्रांतिकारी आवाज इनका क्रांतिकारी लौंडा निकाल रहा था, लग रहा था कि भाड़े पर बुलाया है ताकि बेचारे फोरेंसिक जाँच में उसे फँसा दें, और खुद बच जाएँ। ऐसा हो भी सकता है क्योंकि वामपंथियों की पूरी लड़ाई सर्वहारा की रीढ़ पर लात रख कर आगे बढ़ते हुए ही हुई है। ‘आजादी’ की बात करता हुआ यह क्रांतिकारी बालक जिस हिसाब से चिल्ला रहा था, उससे तो यही प्रतीत हो रहा था कि इसके बाप जब कहते होंगे कि ‘सात बजे के बाद घर से बाहर कहाँ जा रहे हो’, तो घिघियाता हुआ कहता होगा, “जी, वो, मैं तो… जी देखने जा रहा था कोई दरवाजे पर आया तो नहीं’। फिर बाप जोर से डाँटते होंगे, और हमारा ये क्रांतिकारी बालक कोर्स की किताबों के बीच कामरेड अनमोल रतन रचित ‘सीडी माँगने के बहाने बलात्कार के सौ तरीके’ रख कर पढ़ने लगता होगा।
वामपंथी लम्पटों का यही जीवन है। घर में सुबह उठ कर बाप के डर से मूर्ति के आगे हाथ जोड़ते हैं, और बाहर में अपनी इन्डिविडुएलिटी और फ्रीडम पर ज्ञान देते हैं। ऐसे कई वामपंथियों को जानता हूँ जो जेएनयू में पढ़ते वक्त जब किसी को आईफोन इस्तेमाल करते देख दिमाग की नसें फुला लेते थे कि कोई इतना महँगा फोन कैसे इस्तेमाल कर सकता है, और बाद में कॉरपोरेट या सरकारी नौकरी करते हुए, न तो घूस लेने में लजाते हैं, न कामचोरी करने में।
इनका वैचारिक खुलापन इतना ज़्यादा खुला हुआ है कि खुलते-खुलते ये कब नंगे हो जाते हैं, इन्हें पता ही नहीं चलता। आपसी बातचीत में हार्डकोर वामपंथी बताता है कि ‘सरकार तो ठीक ही काम कर रही है’ लेकिन ज्योंहि वो पब्लिक में आता है, वो बताता है कि सरकार हर मामले में असफल रही है। घर में कॉफी पीने वाला लेनिनवंशी पब्लिक में लाल चाय पीने लगता है और छत पर मार्लबोरो फूँकता माओनंदन कॉलेज के स्टाफ क्लब में बीड़ी पीता दिखता है। ये मैं जानता हूँ क्योंकि विश्विद्यालयों में प्रोफेसरों के साथ मेरे ऐसे ही अनुभव रहे हैं।
ये क्रांतिकारी भी उसी ब्रीड का है। ये जानता है कि अब इनके बिलों में बारिशों में पानी भर रहा है, और सर्दियों में मिर्ची का धुआँ भरा जाएगा। इसलिए, लवचेरी क्रांतिकारी अंधेरे में क्रांति के गीत गा रहा था और ज्योंहि मीडिया वालों का कैमरा आया कि डर के मारे मुँह छुपा कर भागता नजर आया। दस कामपंथी और झामपंथनों के बीच लानतें भेजता यह क्रांतिबीज यह नहीं जानता कि सरकार भी बदल गई है, और उसके गढ़ों के खूनी झंडे को हिलाने वाली हवा भी अब मरी-मरी सी बह रही है।
वामपंथी हमेशा से ही एक फट्टू आबादी रहे हैं। इनसे बकैती चाहे जितनी करवा लो, समाधान इनके पास एक भी नहीं होता। बात ये वेनेजुएला से लेकर क्यूबा तक की करेंगे, लेकिन उसका मतलब कुछ नहीं होता। ये एक ऐसी ब्रीड है जो परजीवी की तरह गरीबों के खून का शरबत बना कर पीती है, उन्हें राजनैतिक और सामाजिक तौर पर कमजोर करती है, और जब और कुछ नहीं बचता तो उन्हें ह्यूमन शील्ड बना कर सैनिकों की गोलियों के आगे कर देती है।
ये फट्टू तो थे। ये विद्यार्थी जीवन में वास्तवकिताओं से भागने की शुरुआत करने से लेकर जीवन के उत्तरार्द्ध तक सच्चाई से आँख फेरने वाले भगोड़े और अश्लील विचारक तो रहे हैं, लेकिन वक्त के साथ-साथ इनकी नारेबाजी की हिम्मत भी चली जाएगी यह देख कर निजी तौर पर मुझे बुरा लग रहा है। कहाँ ज़ोर-शोर से अफजल गुरु की बरसी मनाने वाले देशद्रोही वामपंथी, और कहाँ ये फट्टू लौंडा जिसके मुँह से आवाज नहीं निकल रही। क्या इसी दिन के लिए अपनी नौकरानी से बच्चे पैदा कर, उसे छोड़ देने वाले, संबंध को अस्वीकार करने वाले मार्क्स ने ज्ञान की बातें लिखी थीं! लानत है ऐसे वामपंथियों पर!
मुझे तो अभी भी लगता है कि जेएनयू के वामपंथियों ने किसी असहाय लड़के को भोजन आदि का लालच देकर, या किसी फर्स्ट ईयर वाले नए बच्चे को ‘सीडी के बहाने सेटिंग कराने’ का वादा करके या ‘कल मलाना क्रीम पिलाएँगे तुमको’ कह कर अंधेरे में, टूटे-फूटे शब्दों में, घिसी हुई स्क्रिप्ट पकड़ा कर ‘फासिस्ट’ और ‘ले के रहेंगे आजादी’ कहलवा दिया। ये यही करते हैं, इनका पूरा इतिहास अनभिज्ञ लोगों का इस्तेमाल करते हुए सत्ता तक पहुँचने की कहानियों से भरा हुआ है। इन्होंने गरीबों, असहायों को अपनी ढाल बना कर राजनीति की है। तो यह मानने में बिलकुल भी समस्या नहीं है कि नया वामपंथी एक गाँजे की ज्वाइंट के लोभ में यह करने को तैयार हो गया हो। (वैधानिक चेतावनी: गाँजा पीना, चाहे वो मलाना क्रीम ही क्यों न हो, स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।)
इनका जो हाल है, और जैसे-जैसे इनकी विचारधारा का पतन होता जा रहा है, अगले बार के प्रोटेस्ट में ये किसी मजदूर को ठग कर न ले आएँ और उससे ‘आजादी’ की बातें न कहलवा लें। जेएनयू में तो दो बार से सारे वामपंथियों के नितम्ब चिपक कर एक होने के बाद ही चुनाव जीते जा रहे हैं, इस साल कितने चिपकेंगे ये देखने की बात है क्योंकि इस बार तो कश्मीर का मुद्दा वाकई में इनके लिए मुद्दा है क्योंकि अगली बार से उनके पास ये मुद्दा रहेगा ही नहीं!
एक से दो चुनाव और बचे हैं जब जेएनयू भी कश्मीर की तरह बदल जाएगा। यहाँ से वामपंथ का कोढ़ समाप्त हो जाएगा और इनके रहनुमाओं को जनता हर जगह घेर कर सवाल करेगी कि ये जो पढ़-लिख कर चिरकुटों वाली हरकतें करते हो, वो क्यों करते हो। ये जो आजादी लेने की बातें करते हो, वो लेकर कहाँ रखोगे? भारत क्या परचून की दुकान है कि तुम्हें डब्बे में बंद आजादी दिख रही है, और गुल्लक में पैसे हैं नहीं, लेकिन एक दिन वो भरेगा और तुम आजादी ले कर रहोगे?
खैर, अंत में, सीरियसली वामपंथियो! मीडिया के कैमरे से बचते हो? इतने फट्टू हो गए हो! लानत है!