लोकसभा चुनाव 2024 के लिए पहले चरण के मतदान में कुछ ही दिन का वक्त है। इस चुनाव में बीजेपी ने 370+ तो एनडीए ने 400+ का लक्ष्य रखा है। एनडीए अपने दो दर्जन से अधिक सहयोगियों के साथ मुकाबला कर रही है, तो इसके जवाब में बना इंडी गठबंधन लगातार पीछे होता दिख रहा है। अभी तक शीट शेयरिंग का मुद्दा उलझा रहा। कई सीटों पर इंडी गठबंधन के दल फ्रेंडली फाइट भी कर रहे हैं, यानी आपस में ही लड़ाई। वहीं, बात इंडी गठबंधन के मुख्य घटक दल बन चुके (गठबंधन बनाने वाले नीतीश कुमार ही बाहर) कॉन्ग्रेस की करे, तो पूरी तरह से न सिर्फ कन्फ्यूज बल्कि असहाय भी नजर आ रही है।
ऐसा लगता है, मानो वो लोकसभा चुनाव 2024 की लड़ाई में पहले ही हथियार डाल चुकी हो, क्योंकि इस बार कॉन्ग्रेस न सिर्फ अपने इतिहास में सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है, बल्कि उसे ढंग के कैंडिडेट तक नहीं मिल रहे हैं। वो दूसरी पार्टियों के नेताओं के बच्चों को अपने टिकट पर चुनाव लड़ा रही है, यूपी की प्रयागराज सीट ऐसी ही एक सीट है। खैर, बड़े कैनवस पर देखें तो लोकसभा चुनाव 2024 में कॉन्ग्रेस 300 सीटों पर भी चुनाव लड़ती नहीं दिख रही है। आज (15 अप्रैल 2024) तक कॉन्ग्रेस महज 278 सीटों पर ही उम्मीदवार खड़े कर सकी है।
इस बार कॉन्ग्रेस की हालत इतनी खराब क्यों है?
एक तरफ तो कॉन्ग्रेस देश की सभी 28 राज्यों और 8 केंद्र शासित प्रदेशों में चुनाव लड़ रही है, तो दूसरी तरफ वो ऐतिहासिक रूप से सबसे कम सीटों पर चुनाव लड़ रही है। पंजाब में वो दिल्ली, गुजरात, हरियाणा की अपनी ही सहयोगी आम आदमी पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ रही है, तो केरल में वामदलों के खिलाफ। यूपी में ऐतिहासिक रूप से सबसे कम 17 सीटों पर ही कॉन्ग्रेस चुनाव लड़ रही है, तो पश्चिम बंगाल में वो 20 सीटों तक सिमट रही है। बिहार में कॉन्ग्रेस को एक चौथाई सीटें भी नहीं मिली हैं, तो मध्य प्रदेश में भी एक सीट पर वो चुनाव नहीं लड़ रही है। गजब बात ये है कि मध्य प्रदेश की खजुराहो सीट पर इंडी गठबंधन ही चुनाव से बाहर है, क्योंकि जिस सपा को खजुराहो सीट दी गई थी, उसके कैंडिडेट का पर्चा ही खारिज हो चुका है।
कॉन्ग्रेस पार्टी राजस्थान और गुजरात में भी अपने दम पर सभी सीटों पर नहीं लड़ पा रही है, तो हरियाणा में भी उसे आम आदमी पार्टी की बैसाखी की जरूरत पड़ रही है। असम में भी कॉन्ग्रेस की यही हालत है। जम्मू कश्मीर में भी कॉन्ग्रेस की ऐसी ही हालत है, क्योंकि पीडीपी के साथ गठबंधन नहीं होने की वजह से कश्मीर घाटी की तीनों सीटों पर पीडीपी ने अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं।
एक तरफ बीजेपी देश के 16 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में अकेले चुनाव लड़ रही है, तो कॉन्ग्रेस 12 राज्यों और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में। इन 18 (राज्य और केंद्र शाषित प्रदेशों में कुल 79 लोकसभा सीट) में कॉग्रेस उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गोवा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम में अपने दम पर चुनाव लड़ रही है, लेकिन इसमें भी पंजाब, सिक्किम में उसे आम आदमी पार्टी और सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा जैसे सहयोगियों से ही लड़ाई लड़नी पड़ रही है, ऐसी ही हालत दो केंद्र शासित प्रदेशों दिल्ली और जम्मू-कश्मीर का भी है। यहाँ आम आदमी पार्टी के साथ साझेदारी दिल्ली में है, तो जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ, यहाँ पीडीपी अलग चुनाव लड़ रही है। वहीं, कॉन्ग्रेस 6 केंद्र शासित प्रदेशों लक्षद्वीप, अंडमान निकोबार, लद्दाख, पुड्डुचेरी, चंडीगढ़, दमन दीव और दादरा नागर हवेली में अकेले ही चुनाव लड़ रही है।
इस बार कॉन्ग्रेस की सबसे कम सीटें, जानें पुराना इतिहास
अब बात करते हैं मुख्य मुद्दे की। अभी तक कॉन्ग्रेस ने देश भर की कुल 278 लोकसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की है। कॉन्ग्रेस ने कभी भी 400 से कम सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। शुरुआत से लेकर अभी तक के आँकड़ों पर गौर करें, तो साल 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस ने 479 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 364 सीटों पर जीत दर्ज की। 1957 में ये आँकड़ा बढ़कर 490 तक पहुँचा और जीत का आँकड़ा भी 370 तक पहुँच गया। कॉन्ग्रेस ने 1962 में 487 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 361 सीटों पर जीत मिली। साल 1967 के चुनाव में 512 सीटों पर चुनाव लड़कर कॉन्ग्रेस को 284 सीटों पर जीत मिली। 1971 में कॉन्ग्रेस ने 441 सीटों पर ही चुनाव लड़ा, लेकिन 352 सीटों पर कॉन्ग्रेस को जीत मिली। पाकिस्तान से युद्ध में जीत का भी इसमें बड़ा हाथ रहा।
साल 1977 में आपातकाल के बाद पहले चुनाव में कॉन्ग्रेस ने 492 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन 154 सीटों पर ही जीत मिली और उसे पहली बार पूर्ण रूप से विपक्ष में बैठना पड़ा लेकिन 1980 में कॉन्ग्रेस ने 491 सीटों पर उम्मीदवार उतारते हुए 352 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में वापसी की। साल 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर में कॉन्ग्रेस ने 492 सीटों पर उम्मीदवार उतारे और 405 सीटों पर प्रचंड जीत हासिल की, जो अब तक का रिकॉर्ड भी है।
इसके बाद कॉन्ग्रेस गिरावट की ओर आई। साल 1989 में कॉन्ग्रेस ने 510 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, लेकिन सिर्फ 197 सीटों पर ही जीत मिली, तो 1991 में 492 सीटों पर लड़कर 232 सीटों पर जीत मिली। 1996 में कॉन्ग्रेस ने सर्वाधिक 529 सीटों पर चुनाव लड़ा, लेकिन 140 सीटें ही मिल पाई, जबकि 1998 में 477 सीटों पर चुनाव लड़कर उसे 141 सीटें मिली। 1999 में 453 सीटों पर लड़कर कॉन्ग्रेस 114 सीटें ही जीत पाई, तो 2004 में 417 सीटों पर लड़कर 145 सीटें जीत पाई। सबसे कम सीटों पर कॉन्ग्रेस ने इसी साल चुनाव लड़ा, लेकिन यूपीए गठबंधन के तहत कॉन्ग्रेस की अगुवाई में सरकार बनी।
साल 2009 में कॉन्ग्रेस ने यूपीए 2 के लिए 440 सीटों पर चुनाव लड़ा और 206 सीटें जीतकर दोबारा सरकार बनाई, लेकिन 2014 में कॉन्ग्रेस पार्टी को 463 सीटों पर लड़ने के बावजूद सिर्फ 44 सीटें मिली, जो उसका अब तक का सबसे बुरा चुनावी प्रदर्शन रहा। साल 2019 में 421 सीटों पर लड़कर महज 52 सीटों पर जीत मिली। इसमें से भी बड़ी संख्या में इस्तीफे हो चुके हैं। और इस बार तो कॉन्ग्रेस पार्टी अभी तक महज 278 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर पाई है। ऐसा लगता है कि पार्टी बामुश्किल 20 सीटों पर और उम्मीदवार खड़े कर पाएगी और कुल आँकड़ा 300 के अंदर या आसपास ही सिमट कर रह जाएगा। ऐसे में कॉन्ग्रेस का चुनावी प्रदर्शन क्या होगा, ये सोचने वाली बात है, क्योंकि जितनी सीटों पर बीजेपी ने अकेले 2019 में जीत दर्ज की, उससे भी कम सीटों पर लड़ना ये दिखाता है कि कॉन्ग्रेस इस लोकसभा चुनाव में पहले ही हार मान चुकी है।
राहुल गाँधी की यात्राओं वाले राज्यों में भी दिक्कतें
कॉन्ग्रेस ने लोकसभा चुनाव 2024 के लिए दो साल पहले से ही माहौल बनाना शुरू कर दिया था। साल 2022 के आखिर में कॉन्ग्रेस ने भारत जोड़ो यात्रा निकाली। ये न्याय यात्रा करीब 139 दिनों तक 14 राज्यों में कन्याकुमारी से लेकर श्रीनगर तक चली। इसके बाद 2023-24 में भारत जोड़ो न्याय यात्रा निकाली। इस यात्रा की भी अगुवाई राहुल गाँधी ने की। पूरब से पश्चिम तक ये यात्रा 15 राज्यों से गुजरी। यानी दो यात्राओं में 14+15 राज्यों में पहुँचने वाली कॉन्ग्रेस की यात्राओं का भी कोई बहुत फायदा नहीं पहुँचा। बल्कि इन राज्यों में कॉन्ग्रेस को नुकसान होता ही दिख रहा है।
राहुल गाँधी की यात्राओं के बीच कई सहयोगियों ने इंडी गठबंधन को छोड़ दिया। खास तौर पर भारत जोड़ो न्याय यात्रा के समय। मुंबई से लेकर दिल्ली, पंजाब, यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और अरुणाचल प्रदेश तक पार्टी को झटके लगे। 15 राज्यों की इस यात्रा में कॉन्ग्रेस पार्टी को गुजरात, मध्य प्रदेश से लेकर तकरीबन हर उस जगह पर झटका लगा, जहाँ या तो राहुल गाँधी पहुँच चुके थे, या पहुँचने वाले थे। इस यात्रा को भी तय समय से पहले ही खत्म करना पड़ा। कॉन्ग्रेस द्वारा जारी मैप के मुताबिक, राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा करीब 100 लोकसभा सीटों से होकर गुजरी, इनमें से आधी से अधिक सीटों पर कॉन्ग्रेस का उम्मीदवार ही नहीं है। रही बात अमेठी और रायबरेली की, तो वहाँ अभी तक कॉन्ग्रेस पार्टी उम्मीदवार का नाम भी तय नहीं कर सकी है।
कॉन्ग्रेस के पास नहीं उम्मीदवार, निर्विरोध जीत रही बीजेपी
देश के पूर्वोत्तर का सबसे अहम राज्य है अरुणाचल प्रदेश। पूर्वोत्तर में भारत-चीन की तनातनी का केंद्र। यहाँ पर भारतीय जनता पार्टी प्रचंड बहुमत में है। विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 19 अप्रैल को अरुणाचल में विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग होगी। हैरानी की बात है कि देश के सबसे पुराने दल कॉन्ग्रेस के पास यहाँ से हर सीट पर उम्मीदवार तक नहीं हैं। बीजेपी के कम से कम 5 प्रत्याशियों को विधानसभा चुनाव में निर्विरोध जीत मिली है, जिसमें मुख्यमंत्री पेमा खांडू भी हैं। कॉन्ग्रेस की दुर्गति देखिए कि अरुणाचल प्रदेश में विधानसभा की 60 सीटे हैं, लेकिन उसने सिर्फ 34 सीटों पर उम्मीदवार उतारे।
अरुणाचल में राहुल गाँधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत गए थे। तब पार्टी के पास कुछ विधायक थे, लेकिन उनकी भारत जोड़ो न्याय यात्रा का असर ऐसा हुआ, कि एक विधायक छोड़कर बाकी सारे विधायक बीजेपी में शामिल हो गए, यहाँ तक कि कॉन्ग्रेस पार्टी के विधायक दल के नेता भी। ये कॉन्ग्रेस की खत्म होती ताकत का सबूत नहीं, तो और क्या है?
वैसे एक तरफ तो चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की घोषणा कर रहा था, तो दूसरी तरफ राहुल गाँधी अपनी यात्रा में ही बिजी रहे। सहयोगी सीट बँटवारे की गुहार लगाते-लगाते अलग होते गए, लेकिन राहुल गाँधी की यात्रा नहीं रुकी। इस बीच, कॉन्ग्रेस ने लोकसभा चुनाव के लिए 44 पन्नों का जो घोषणा पत्र जारी किया है, उसमें 300 से ज्यादा वादे कर दिए हैं और उम्मीदवार पार्टी को 300 भी नहीं मिल पाए हैं। ऐसे में क्या ये माना जाएगा कि लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे जब 4 जून को आएँगे, तब तक राहुल गाँधी कॉन्ग्रेस के दफ्तर पर ताला लगा चुके होंगे?