30 जनवरी 1948 की शाम को महात्मा गाँधी के पास सरदार पटेल मिलने के लिए आए। आपसी बातचीत में गाँधी ने पटेल से कहा कि तुम दोनों (पटेल और जवाहरलाल नेहरू) में से किसी एक को मंत्रिमंडल से हट जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा, “मैं इस दृढ़ निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि मंत्रिमंडल में दोनों की उपस्थिति अपरिहार्य है। इस अवस्था में दोनों में से किसी एक का भी अपने पद से अलग होना खतरनाक साबित होगा।”
उन्होंने अपनी बात रखते हुए पटेल से कहा, “आज मैं इसी को प्रार्थना-सभा के भाषण का विषय बनाऊँगा। पंडित नेहरु प्रार्थना के बाद मुझसे मिलेंगे, मैं उनसे भी इसके बारे में चर्चा करूँगा। अगर जरूरी हुआ तो मैं सेवाग्राम जाना स्थगित कर दूँगा और तब तक दिल्ली नहीं छोडूँगा, जब तक दोनों के बीच फूट की आशंका को पूरी तरह समाप्त न कर दूँ।”
इस बातचीत के बाद गाँधी को प्रार्थना सभा में जाना था और उसके बाद उनसे नेहरू और आजाद भी पटेल के साथ आपसी मतभेदों के सिलसिले में मुलाकात करने वाले थे। दुर्भाग्यवश, ऐसा नहीं हो पाया और उसी दौरान गाँधी की हत्या हो गई। अब उनकी ‘अंतिम इच्छा’ के अनुसार, आपसी समन्वय स्थापित कर देश को सँभालने की जिम्मेदारी पटेल और नेहरू दोनों को स्वयं निभानी थी।
इस ‘अंतिम इच्छा’ के इतर एक अन्य पत्र पर गौर करना होगा, जो कि पटेल ने सी राजगोपालाचारी को अपने निधन से मात्र दो महीने पहले यानी 13 अक्टूबर 1950 को लिखा था। वे लिखते हैं, “मानसिक प्रताड़ना की इस प्रक्रिया को लंबा खींचना दर्दनाक है और हमें इसे अभी समाप्त करना होगा, क्योंकि मुझे कोई उम्मीद नहीं दिखती… उनका (नेहरू) रास्ता सुचारू बनाने के लिए मैं अपनी सीमा तक जा चुका हूँ, लेकिन मैंने पाया कि वह सब बेकार है और हम इसे सिर्फ ईश्वर पर ही छोड़ सकते हैं।”
वी. शंकर अपनी पुस्तक ‘My reminiscences of Sardar Patel’ में सरदार की व्यवहार-कुशलता का स्मरण करते हुए लिखते हैं, “(श्यामा प्रसाद) मुखर्जी की कलकत्ता की विजय वापसी, समझौता (नेहरु-लियाकत) और नेहरू के विरोध में समाचार-पत्रों की प्रतिक्रियाओं और जनता के कड़े विरोध से दिल्ली में सरकार घबरा गई थी। आशंका व्यक्त की गई कि अगर पंडित नेहरू पश्चिम बंगाल को समझौता बेचना चाहते हैं, जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा था, तो उनका कड़ा विरोध होगा और उनके खिलाफ हिंसा तक हो सकती है। हालात ये हो गए थे कि गोपालस्वामी आयंगर ने प्रधानमंत्री से कहा था कि कलकत्ता जाने के लिए सरदार को तैयार करें। इसके अनुसार, एक दिन सुबह नेहरू, सरदार से मिलने पहुँचे… उनकी (सरदार) नब्ज 90 से कुछ अधिक थी और वे कमजोरी महसूस कर रहे थे। नेहरू ने हिचकते हुए अपना प्रस्ताव रखा। सरदार ने उन्हें अपनी सेहत के बारे में बताया और सुझाव दिया कि वे खुद ही चले जाएँ। इस पर नेहरू ने उन्हें कहा कि सामान्य धारणा है कि मेरे जाने से मुझ पर पथराव होगा। फिर उन्होंने (पटेल) कहा कि बेहतर स्वास्थ्य ना होने की स्थिति में इस बात के लिए दवाब डालते हुए बड़ा दुख हो रहा है, लेकिन उन्हें कोई विकल्प नहीं दिखाई दे रहा है, क्योंकि श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने समझौते के खिलाफ जनमत बना लिया है और सरदार ही उनका प्रभावशाली जवाब दे सकते हैं। वह (सरदार) जानते थे कि उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा और अप्रैल के मध्य में कलकत्ता के ख़राब मौसम की उन्हें जानकारी थी, लेकिन इसके बावजूद सरदार ने कलकत्ता जाने और समझौते के विरोध में बने माहौल को बदलने का भयंकर दायित्व स्वीकार करने पर अपनी सहमति दे दी।”
अतः इसमें कोई दो राय नहीं है कि पटेल ने आपसी मनमुटावों को समाप्त करने और गाँधी की ‘अंतिम इच्छा’ को पूरा करने का हर संभव प्रयास किया, लेकिन वे असफल रहे। हालाँकि, जब उन्होंने राजगोपालाचारी को बताया कि वे इस दौरान बहुत लम्बी मानसिक प्रताड़ना से भी गुजरे हैं। वास्तव में, यह कोई सामान्य घटना नहीं है, बल्कि किसी भी भारतीय के मन में कम-से-कम दो सवाल तो पैदा करती है – पहला, आखिर ‘महात्मा गाँधी की अंतिम इच्छा’ का सम्मान क्यों नहीं किया गया? और दूसरा क्या पटेल मानसिक रूप से इतने व्यथित हो गए थे कि वे बीमार रहने लगे और एक दिन इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गए?
गाँधी के विश्वसनीय सहयोगी, प्यारेलाल अपनी पुस्तक ‘महात्मा गाँधी- द लास्ट फेज’ में लिखते हैं, “गाँधी की मृत्यु के बाद भी सरदार और पंडित नेहरू के बीच वैचारिक संघर्ष जारी रहा।” एन . वी. गाडगीळ अपनी पुस्तक में ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ में यह पुष्टि करते हैं कि मंत्रिमंडल दो गुटों में विभाजित था, जिसमें एक का नेतृत्व पटेल और दूसरे का नेहरू करते थे। उन्होंने अपनी इस आत्मकथा के पृष्ठ 177 पर पुनः लिखा है कि “दोनों के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे।”
पटेल के साथ काम कर चुके वीपी मेनन, ‘This was Sardar the Commemorative volume I’ (सहसंपादक – मणिबेन पटेल, पटेल की पुत्री) में प्रकाशित अपने भाषण, ‘If Sardar were Alive Today!’ में कहते हैं, “एक बार मैं दिल्ली स्थित उनके घर गया। मैंने उन्हें एक ऑक्सीजन टेंट के नीचे लेटे देखा। अतः मैं दरवाजे पर खड़ा होकर सिगरेट पीने लगा। जब सरदार को मेरे आने का पता चल तो उन्होंने डॉक्टर से टेंट हटाने को कहा और मुझसे पूछा कि इस तरह गलियारे में क्यों खड़ा हूँ? मैंने उन्हें बताया कि मैं धुएँ से हवा को दूषित नहीं करना चाहता था। उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली में जवाब दिया, “मेनन, आप चिंता क्यों करते हैं? पूरी दिल्ली की हवा दूषित है। उनकी इस टिप्पणी में कुछ कडवाहट थी। उन्होंने अपने और प्रधानमंत्री के बीच मतभिन्नता को दिल पर ले लिया था।”
एक दिन नेहरू ने सार्वजनिक रूप से अधिकारियों के सामने पटेल को बेइज्जत कर दिया। यह घटना कब और कहाँ की है, इसकी जानकारी कहीं उपलब्ध नहीं है, लेकिन पटेल अपनी बेइज्जती से इतना दुखी हुए कि उन्होंने इस घटना को 17 अक्टूबर 1950 को राजगोपालाचारी के साथ साझा किया था।
इसी दौरान पटेल को नेहरू का एक पत्र मिला, जिसमें उन्होंने कहा था कि अब सरदार को अपने विभागीय काम नहीं देखने होंगे, बल्कि रियासती मंत्रालय गोपालस्वामी आयंगर और गृह मंत्रालय को वे स्वयं देखेंगे। वी शंकर इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “मैं अच्छी तरह से जानता था कि इस व्यवस्था से सरदार की वर्तमान स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ेगा, उनका हृदय कमजोर हो जाएगा और गुर्दों पर भी असर होगा, इसलिए मैंने मणिबेन की सलाह से उन्हें यह पत्र न दिखाने का निश्चय किया। मुझे विश्वास था कि ऐसा करके मैंने सरदार को पंडित नेहरू के व्यवहार से होने वाली भावनात्मक पीड़ा और दुःख से बचा लिया, वरना उनकी हालत और बिगड़ जाती।”
अंततः गाँधी की हत्या से लेकर पटेल के ‘निधन’ तक दोनों के बीच संबंध तनावपूर्ण बने रहे। वी शंकर लिखते हैं, “सरदार अपने गिरते स्वास्थ्य के कारण अधिक से अधिक समय अपने घर पर ही बिताते थे। उस दौरान दवाएँ असर नहीं कर रही थीं, जिसके कारण उनकी नब्ज बढ़ रही थी और वे कमजोरी महसूस कर रहे थे। इसमें कोई संदेह नहीं था कि मानसिक पीड़ा के कारण भी उनके स्वास्थ्य पर तेजी से असर पड़ रहा था।”
आखिरकार, जब बम्बई में पटेल का निधन हुआ तो नेहरू द्वारा एक ‘अशोभनीय’ आदेश जारी किया गया। दरअसल, उन्होंने मंत्रियों और सचिवों से उनके अंतिम संस्कार में हिस्सा लेने से लिए न जाने का निर्देश जारी किया। के. एम. मुंशी अपनी पुस्तक ‘Pilgrimage to Freedom’ में लिखते हैं, उस समय मैं माथेरान (रायगढ़ जिला) के नजदीक था। श्री एनवी गाडगीळ, श्री सत्यनारायण सिन्हा और श्री वीपी मेनन ने निर्देश को नहीं माना और अन्त्येष्टि में शामिल हुए। जवाहरलाल ने राजेंद्र प्रसाद से भी बम्बई न जाने का आग्रह किया, जो कि एक अजीब अनुरोध था, जिसे राजेंद्र प्रसाद ने भी नहीं माना। अन्त्येष्टि में अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों में डॉ राजेंद्र प्रसाद, राजाजी और पंतजी (गोविन्द वल्लभ) और निसंदेह मैं भी शामिल था।”
वी शंकर लिखते हैं, “हमें बार-बार दिल्ली से सन्देश आ रहे थे और हम यह जानकर बहुत दुखी थे कि सरदार पटेल की अन्त्येष्टि में पहुँचने से रोकने के लिए बम्बई न जाने देने के लिए प्रयास किए जा रहे थे। हमें बताया गया कि मंत्रियों और राज्यपालों को भी रोका गया है। स्वयं नेहरू ने भी प्रोविजनल पार्लियामेंट में 15 दिसंबर 1950 को पटेल के निधन का समाचार देते हुए कहा, “मैंने अपने सहयोगियों से कहा कि वे यही (दिल्ली में) रुके, सिवाय श्री राजगोपालचारी के, जो यहाँ हम सभी लोगों में शायद सरदार पटेल के सबसे पुराने सहयोगी और मित्र रहे हैं।