आज मोदी ने बनारस ने नामांकन भरा, कल उनका रोड शो था। रोड शो कैसा था वो सारे न्यूज चैनलों ने दिखाया। आम तौर पर रोड शो या नामांकन का काफ़िला एक शक्ति प्रदर्शन के तौर पर इस्तेमाल होता रहा है। हाल ही में कन्हैया कुमार के लिए जब ऐसी ही भीड़ बेगूसराय में आई थी तो लिबरलों के पता नहीं कहाँ-कहाँ से आँसू निकल रहे थे। उनके लिए यह प्रेम था कन्हैया के लिए। वैसे ही राहुल गाँधी के वायनाड वाले शो में हरे रंग का प्रदर्शन भी दक्षिण के लोगों में कॉन्ग्रेस और राहुल की पैठ का परिचायक था।
लेकिन ज्योंहि मोदी ने बनारस में रोड शो किया, कि एवरीबडी लूज़ेज देयर माइंड्स! बनारस में ऐसा क्या था कि लिबरलों की सुलग गई? बनारस में एक खास रंग का समुद्र था। बनारस में एक खास व्यक्ति अपनी गाड़ी से हाथ हिला रहा था। बनारस में एक खास पार्टी के झंडे दिख रहे थे। बनारस में सनातन हिन्दू धर्म के प्रतीक चिह्नों का मेला लगा हुआ था। और बनारस में इस देश के हिन्दुओं की झुठलाई जाती रही संस्कृति को पुनर्जीवित करने की आशा की हवा चल रही थी।
इसी हवा ने बहुतों के दिलों में, और स्थानविशेष में पड़े, शोलों को जगा दिया और आग जल गई! मोदी शो ने दी हवा, थोड़ा सा धुआँ उठा और आग जल गई! और भाजपा भी कम नहीं है, वो हर साल दो से तीन बार ऐसे आयोजन करती है जिससे इन तथाकथित बुद्धिजीवियों, पाक अकुपाइड पत्रकारों और पत्रकारिता के समुदाय विशेष गिरोह के लोगों की कुंठा किलस-किलस कर बाहर आती रहे।
मोदी के भगवा से लिबरलों, कामपंथियों और पत्रकारिता के समुदाय विशेष की सुलगती क्यों है? आखिर क्या नकारात्मक है यहाँ? कुछ नहीं, सिवाय इसके कि इस भीड़ का रंग हरा क्यों नहीं है? दुर्भाग्य यह कि जब इनकी जलती है, तो उस आग का भी रंग ‘लगभग’ भगवा ही तो होता है!
याद कीजिए वो दौर जब सफ़ेद टोपियाँ पहने तमाम नेता इफ़्तार पार्टियों में ‘शंतिप्रियों’ से ज़्यादा ‘शांतिप्रिय’ बनने की क़वायद में लगे रहते थे। हामिद अंसारी और नजीब जंग बिना टोपी के चिल कर रहे होते हैं और केजरीवाल टोपी पहन कर सीधा मक्का में पहुँचा टाइप फ़ील करते हैं। ममता बनर्जी ऐसे दुआ में हाथ उठाती हैं और बुदबुदाती हैं मानो पूरी क़ुरान वहीं पढ़ देंगी, लेकिन जिनके यहाँ गई होती हैं, उन्हें थिएट्रिक्स की ज़रूरत नहीं होती।
ऐसा नहीं है कि समुदाय विशेष या उनके मज़हब से किसी नेता को कोई लेना-देना हो। यह न तो धर्मनिरपेक्षता है, न ही अल्पसंख्यकों के साथ खड़े होने की बात। ये सिर्फ औपचारिकता है ताकि समुदाय विशेष को लगे कि उनके प्रतीक चिह्नों को वो हिन्दू नेता ढो रहा है जिसकी पार्टी कथित अल्पसंख्यकों के हितों की बात करती है। ध्यान रहे, ‘बात करती है’, काम कोई नहीं करता।
अगर इस सम्प्रदाय विशेष के लिए कोई भी पार्टी कुछ ढंग का काम करती तो तमाम सामाजिक सूचकांकों में यह समुदाय पीछे नहीं रहता, उनके समाज में पाकिस्तान और तुर्की जैसी जगहों से नकारी गई प्रथाओं की आड़ में स्त्रियों का अपमान नहीं हो रहा होता, उनकी बच्चियों में से मात्र एक प्रतिशत ग्रेजुएट नहीं होतीं। इस मजहब के लोग भी यह सब समझते हैं लेकिन वो अभी तक इन नेताओं की नौटंकी से बाहर नहीं आ पाए हैं, और आज भी कोई इमाम उन्हें एकमुश्त वोट करने की अपील कर देता है, और शायद, वो एकमुश्त वोट कर भी देते हैं।
ख़ैर, मोदी की बात करते हैं और उस जनसैलाब की बात करते हैं जो कल वाराणसी की महान नगरी में दिखी। वाराणसी और पाटलिपुत्र, दो ऐसे शहर हैं जो दुनिया के सबसे पुराने नगरों में आते हैं जो अपनी स्थापना के बाद से लगातार जीवित हैं, जिनकी बस्तियाँ गायब नहीं हुईं। यहाँ सभ्यता की शुरुआत से शहर के लोग हैं, लगातार बसे हुए। ये जीवित शहर हैं, सबसे पुराने।
मोदी का यहाँ से चुनाव लड़ना, जीतना और इस शहर का कायाकल्प करने के प्रयास में लगा होना, बताता है कि ये सिर्फ एक शहर नहीं बल्कि सनातन अस्मिता, इतिहास और संस्कृति के कायाकल्प की कोशिश है। वाराणसी की गंगा, यहाँ के विश्वनाथ और यहाँ के महामना इतिहास के निरंतर प्रवाह के प्रतिफल को वर्तमान तक पहुँचाते हैं। उसी की कड़ी में एक प्रयास मोदी का भी है।
लिबरलों और वामपंथियों ने इस समर्थन को पंद्रह सेकेंड भी देखा होगा तो उन्हें पता चल गया होगा कि उनके हिन्दू-विरोधी प्रपंच पर पिछले पाँच सालों से शॉशांक रेडेम्पशन के एंटी डूफरेन्स की तरह एक सरकार ने धीमे-धीमे ही सही, लेकिन प्रहार तो किया है। इसलिए जब उनके इन्टॉलरेन्स राग, राग मोदी घृणा फैलावत, राग बेरोज़गारी व्यापत, राग नोटबंदी मृतक, राग जीएसटी दुकानबंदी आदि से कोई दीपक नहीं जला, लेकिन ये मान कर चल रहे थे कि वो सत्ता विरोधी लहर फैलाने में कामयाब हो जाएँगे, तभी पता चला कि उनके रेकेल वेल्च की तस्वीर के पीछे से सरकार ने वामपंथी विचारधारा की जकड़न से सनातन अस्मिता को बचा कर निकाल लिया।
और मोदी जब वाराणसी में हाथ हिलाकर अभिवादन करता है, रुक कर एक आम नागरिक की शॉल लेता है, और पूरा रास्ता मोदी-मोदी के नारों से गूँजता है तो वह सिर्फ एक रोड शो नहीं रह जाता, वो एंडी डुफरेन्स के सर गिरती पानी की वो बूँदें हैं जिसकी पवित्रता और शीतलता उसने स्वतंत्रता पाने के बाद अपने चेहरे पर महसूस की थी। मोदी के ऊपर गुलाब की पंखुड़ियों की बारिश सनातन आस्था को इन बुद्धिपिशाचों के चंगुल से छुड़ाकर बाहर लाने के आभार सदृश है।
कुछ ने भीड़ देख कर इसे हिटलर और नाज़ी जर्मनी को याद किया। ये तो उनकी अपनी चिंता है कि उन्हें लोकप्रिय नेता और बहुमत से सत्ता चलाता हुआ प्रधानमंत्री हिटलर लगता है। ये बताता है कि कुत्सित मानसिकता और दिमाग में जमा हुआ टार आपको कितना बीमार कर सकता है। हिटलर सिर्फ भीड़ जुटाने से हिटलर हो गया होता, तो वही भीड़ लालू की भी रैली में होती है, ममता की भी रैली में होती है, कॉन्ग्रेस की भी रैली में होती है। जबकि ममता के बंगाल और लालू के बिहार की जो स्थिति है, वो हिंसक तानाशाह के ज़्यादा क़रीबी होने का संकेत देती है।
किसी को इस बात से समस्या हुई कि हिन्दू आस्था का राजनीतिकरण हो रहा है! अरे चम्पू! आस्था का राजनीतिकरण बीफ पार्टी देना है, आस्था का राजनीतिकरण हिन्दू होकर इफ़्तार पार्टी में टोपी पहनकर चोरों जैसे मिसफ़िट होते हुए घुलने-मिलने की नाकाम कोशिश है, आस्था का राजनीतिकरण यह है कि तुम्हें मंदिर जाता राष्ट्राध्यक्ष गलत लगता है, लेकिन जनेऊ पहनकर बाहर आता राहुल नहीं।
अगर इनका या जिनकी चाटुकारिता में इनका दिन बीतता है, उनका जनाधार नहीं है तो यह मोदी की समस्या नहीं है। तुम जुटा लो भीड़ जहाँ से भी जुटा सकते हो, किसी ने मना तो नहीं किया। वायनाड में हरे झंडों पर चाँद-तारे की हरियाली तो पूरे देश को दिखी ही थी, किसी ने नहीं कहा कि ये रंग धार्मिक आस्था का राजनीतिकरण है।
आस्था निजी होती है, और आस्था सामुदायिक भी होती है। संविधान हमें अपना धर्म, मज़हब, रिलीजन चुनने और उसके अनुसार आचरण करने की स्वतंत्रता देता है। मोदी द्वारा गंगा आरती उनकी निजी आस्था भी है, और उन करोड़ों हिन्दुओं की सामूहिक आस्था भी जिन्होंने मोदी को सत्ता दी है ताकि उनके हितों का भी ध्यान रखे। यहाँ पर हित से तात्पर्य यह है कि पिछली सरकारों द्वारा एक तय तरीके से उनके देवताओं, मंदिरों, इतिहास और ग्रंथों को झुठलाया जाता रहा, शोध पत्र लिखे जाते रहे कि अयोध्या में मस्जिद थी, बताया गया आर्य और द्रविड़ हुआ करते थे, फैलाया गया कि दलितों पर 5000 सालों से अत्याचार हुआ!
ये प्रपंच तुमने चलाया तो खूब अच्छा। इसका आधार कुछ नहीं, बस तुमने कहना शुरु किया और खूब प्रोपेगेंडा फैलाया। तुम्हारा प्रधानमंत्री यहाँ तक कह देता है कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक़ कथित अल्पसंख्यकों का है! क्यों? किस हिसाब से? धर्मनिरपेक्षता कहाँ गई थी उस वक्त? इसीलिए तो तुम्हारी सुलगती है जब मोदी वंचितों, ग़रीबों और बेघरों की बात करते हुए, जाति और धर्म से परे, सबको दस प्रतिशत आरक्षण देकर सामाजिक न्याय की बात सही मायनों में करता है।
ये भगवा रंग किसी को डराने के लिए नहीं है। अयोध्या का दीपोत्सव किसी को धमकाने के लिए नहीं है। क्या इफ़्तार पार्टियाँ किसी को डराने के लिए होती थीं? बिलकुल नहीं। किसी नेता को लगा कि उसे जाना चाहिए, वो गया। किसी को लगा कि दुआ पढ़ने से उसे एक मजहबी आबादी अपना नेता मान कर अगली बार वोट देगी, तो उसे कान पर साड़ी का पल्लू रख कर आँख बंद कर लिया।
ये डराने के लिए नहीं है, ये लोगों का डर भगाने के लिए है। ये संस्कृतियों के युद्ध को टालने की एक ज़रूरत है। ये भगवा रंग उन लोगों को संबल देने के लिए है कि उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं है। उनके राम, शिव, हनुमान पर कोई किसी रैली में चप्पल नहीं मारेगा। उनकी दुर्गा को कोई वेश्या नहीं कहेगा। उनके त्रिशूलों पर कोई कंडोम नहीं चढ़ाएगा। ये उस तरह की कुत्सित कोशिशों के लिए एक संकेत है कि सुधर जाओ। ये प्रतीकात्मक रूप से यह कहना भर है कि तुम्हारी मलिन कोशिशों को अब नहीं सहा जाएगा।
ये डराना नहीं है। कोई हिटलर नहीं आया। हिन्दुओं की धरती है, सर्वसमावेशी विचार के लोग हैं, सहिष्णुता के प्रवर्तक और स्नेह में डूबे हुए लोग कि इस्लामी आक्रमणकारियों, इस्लामी बलात्कारियों, इस्लामी और विदेशी हत्यारों को भी बसने की ज़मीन दी। और कितने उदाहरण चाहिए? ऐसे लोग किसी को क्या डराएँगे? हम तो स्वयं ही हर पर्व पर एक खास तरह के आतंक से डर जीते रहे हैं। अब तो तुम हमें, जीने दो, जीने दो!
बख्तियार ख़िलजी जैसे लुटेरों के नाम पर तो हमने शहर बना रखे हैं, जिसने नालंदा विश्वविद्यालय में आग लगाई थी। हमने उन लुटेरों की संतानों को बसने दिया जिन्होंने हमें सदियों ग़ुलाम बनाए रखा। हमसे तुम्हें कैसा डर? हम तो बस रोड शो कर रहे हैं, हमने तो बस वो झंडे निकाले हैं जो वहाँ हुआ करते थे जिसे किसी ने तोड़ दिया। हमने तो बस प्रयागराज को दोबारा प्रयागराज बनाया है, इसमें डराने-धमकाने जैसी कोई बात ही नहीं है।
जैसे इस्लामी आतंकियों ने, लुटेरों और बलात्कारियों ने संस्कृति को मिटाने का सबसे उचित तरीक़ा आस्था पर प्रहार और साहित्य-इतिहास को जलाने-बदलने में ढूँढ निकाला था, हम तो उसे रीक्लेम कर रहे हैं। जो हमारा था, जैसा हमारा था, संवैधानिक दायरे में रहते हुए वही पाने की कोशिश कर रहे हैं।
ये भगवा भीड़ तो बस अपना नेता देखने आई है। ये तो वो लोग हैं जिनकी मृत आत्माओं को किसी ने संजीवनी दे दी। ये तो वसुधैव कुटुम्बकम् वाले हैं, जिसकी वसुधा से पिछली सरकारों ने उन्हीं के कुटुम्ब को खदेड़ना शुरु कर दिया था। ये वो भीड़ है जिसके भीतर आशा जगी है कि वोट देकर भी इतिहास के गौरव को वापस पाया जा सकता है।
मोदी के रोड शो की भीड़ से जलो मत, यहाँ के लोगों का प्रेम जीतने के लिए संघर्ष करो। सनातन में पापी को भी मुक्ति मिलती है। पाक अकुपाइड पत्रकार, पत्रकारिता के समुदाय विशेष गिरोह के सम्मानहीन सदस्य, लिबरलों की भीड़ के लम्पट नेतावृंद और तुष्टीकरण की टोपी लगाकर टहलने वाले लीडरों को भी मोक्ष मिल सकता है, बशर्ते वो वाराणसी की धरती पर जाएँ, नए रेलवे स्टेशन पर उतरें, गंगा घाट की सीढ़ियों का मन से प्रणाम करें और माँ गंगा से बोलें, “अब हम लम्पटई नहीं करेंगे, अब हम चिरकुट नहीं बनेंगे”।