असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद के बाहर अपने पाँव पसारने क्या शुरू किए, जो वामपंथी पहले उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे वो अब उनके खिलाफ हो गए। कोई उन्हें वोटकटवा कह रहा है तो कोई AIMIM की वजह से अन्य तथाकथित सेक्युलर पार्टियों को हो रहे नुकसान से चिंतित है। अब इस चर्चा में योगेंद्र यादव भी कूद गए हैं। BBC के एक वीडियो में उन्होंने भारत में मुस्लिम मतदाताओं की पसंद को लेकर भ्रामक दावे किए हैं।
महाराष्ट्र में AIMIM के विधायक रहे इम्तियाज जलील के हवाले से इस वीडियो में बताया गया है कि अगर देश में आज मुस्लिमों का कोई नेता है तो वो असाउद्दीन ओवैसी हैं। साथ ही वो पूछते हैं कि अगर उनके टक्कर में देश में कोई मुस्लिम नेता आया हो तो बताएँ। बिहार विधानसभा चुनाव में उनके हालिया प्रदर्शन का जिक्र करते हुए बताया कि अब वो एक महानगर की पार्टी न होकर देश भर में पाँव पसार रही है।
बता दें कि बिहार में AIMIM ने 5 सीटें जीती हैं, जो हैदराबाद के बाहर उसके लिए सबसे ज्यादा है। इसके बाद उन्होंने पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में पूरी ताकत के साथ उतरने का फैसला लिया है, जिसके बाद कुछ लोग इसलिए परेशान हैं क्योंकि उन्हें आशंका है कि इससे ममता बनर्जी की तृणमूल कॉन्ग्रेस को नुकसान होगा। ममता ने अपने 10 साल के कार्यकाल में मुस्लिम तुष्टिकरण का एक भी मौका नहीं छोड़ा है।
अब ओवैसी ने तो TMC को गठबंधन के लिए न्यौता देकर अपना पास फेंक दिया है। ऐसे में BBC के इस वीडियो में बताया गया है कि कैसे CAA, NRC, बाबरी मस्जिद और इस्लाम से जुड़े अन्य मुद्दों पर वो संसद में सबसे ज्यादा ठीक तरीके से बात रखते हैं। वहीं कुछ मुस्लिम विश्लेषकों के हवाले से बताया गया है कि उनका आगे बढ़ना खतरनाक है और भारतीय मुस्लिमों को एक सेक्युलर सिस्टम ही चाहिए।
एक मुस्लिम विश्लेषक के हवाले से दावा किया गया है कि भाजपा चाहती है कि विपक्ष उसकी पसंद का ही होना चाहिए और असदुद्दीन ओवैसी के रूप में वो अपने लिए अपना पसंदीदा विपक्ष पैदा कर रही है। बताया गया कि ये एक ‘आज्ञाकारी विपक्ष’ है, और इसके लिए भाजपा ही जिम्मेदार है। अब आते हैं योगेंद्र यादव पर, जिन्होंने असदुद्दीन ओवैसी के प्रभाव के बढ़ने को ‘सेक्युलर राजनीति की हार’ और ‘सेक्युलर पार्टियों की विफलता’ करार दिया।
योगेंद्र यादव का कहना है कि बँटवारे के बाद मुस्लिमों ने कभी भी मुस्लिम पार्टियों को वोट नहीं दिया और न ही अपने प्रतिनिधित्व के लिए मुस्लिम नेताओं का सहारा लिया। बकौल योगेंद्र यादव, मुस्लिमों का मानना था कि जो पार्टी बहुसंख्यकों का ख्याल रख सकती है, वो मुस्लिमों के हितों के भी ख्याल रख सकती है। उन्होंने इसे ‘लोकतंत्र की खूबसूरती’ बताते हुए कहा कि इस देश की ‘सेक्युलर’ पार्टियों ने मुस्लिमों को ‘वोट का बंधक’ बनाने का प्रयास किया।
योगेंद्र यादव ने यहाँ बड़ी चालाकी से स्वतंत्रता के बाद की बात की है लेकिन आज़ादी से पहले की बात की भी चर्चा ज़रूरी है। 1945-46 में ब्रिटिश इंडिया में प्रांतीय चुनाव हुए थे। इस चुनाव में मुस्लिम लीग ने 87% मुस्लिम बहुल सीटें जीती थीं। अब इस बात पर सोचना चाहिए कि आखिर 1 साल में ही ऐसा क्या बदल गया, जो भारत के मुस्लिम अचानक से सेक्युलर हो गए और उन्होंने इस्लामी पार्टियों को वोट देना बंद कर दिया?
तब बंगाल और पंजाब में मुस्लिम लीग ने क्रमशः 113 और 73 सीटें जीती थीं। अब ये तर्क दिया जा सकता है कि इन प्रांतों के बड़े हिस्से पाकिस्तान में चले गए। लेकिन, लीग ने बिहार में 34, असम में 31, बॉम्बे में 30 और मद्रास में 28 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। ये प्रान्त तो आज भी भारत का हिस्सा हैं? क्या एक साल में ही भारत के मुस्लिम अचानक से सेक्युलर होकर इस्लामी पार्टियों के खिलाफ हो गए, ये सवाल तो बनता है।
मद्रास, ओडिशा और बॉम्बे की तो सारी की सारी मुस्लिम बहुल सीटें मुस्लिम लीग ने ही जीती थीं। अब योगेंद्र यादव, जो खुद को सेफोलॉजिस्ट बताते हैं, उनके दूसरे तर्कों पर आते हैं। आज़ादी के बाद भी जहाँ भी मौका मिला, वहाँ मुस्लिम पार्टियों ने मुस्लिम बहुल इलाकों में वोट पाया। हाँ, कई सीटों पर इस्लामी पार्टियों को इसीलिए सफलता नहीं मिली क्योंकि बड़े दलों के मुस्लिम उम्मीदवार मजबूत थे और उनके चेहरे पर ही वोट हुआ।
अब बिहार के किशनगंज सीट को ही ले लीजिए, जहाँ मुस्लिमों का सबसे ज्यादा प्रभाव है। यहाँ मुख्यतः कॉन्ग्रेस और उसके बाद राजद का ही कब्ज़ा रहा। लेकिन, अब तक हुए 16 चुनावों में मात्र एक बार ही यहाँ से कोई हिन्दू विजयी हुआ, वो भी 1967 में। क्यों? क्या ये नहीं माना जाए कि यहाँ मुस्लिमों ने अपने प्रतिनिधित्व के लिए हमेशा किसी मुस्लिम को ही पसंद किया? फिर ये एक मुस्लिम बहुल सीट तो योगेंद्र यादव के दावे को फेल ही कर देती है।
बिहार को छोड़िए, अब असम चलते हैं। वहाँ जब मुस्लिमों को विकल्प मिला तो उन्होंने बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF पर खूब प्यार बरसाया। खुद बदरुद्दीन अजमल जिस डुबरी लोक सभा क्षेत्र से जीते हैं, उसका ही इतिहास देख लीजिए। यहाँ अब तक हुए 16 चुनावों में एक बार भी कोई नॉन-मुस्लिम जीतने में कामयाब नहीं हो सका है। बदरुद्दीन खुद यहाँ से हैट्रिक लगा कर नाबाद खेल रहे हैं। इसे क्या समझा जाए? जहाँ कॉन्ग्रेस के मुस्लिम चेहरे जीतते थे, वहाँ मौका मिलते ही इस्लामी पार्टी को मुस्लिमों ने जिताया या नहीं?
खुद असदुद्दीन ओवैसी को ही देख लीजिए। हैदराबाद लोकसभा क्षेत्र से 1980 से इस परिवार का कब्ज़ा है। हैदराबाद की 7 विधानसभा सीटें असदुद्दीन ओवैसी के खाते में जाती रही हैं। यहाँ भी मुस्लिमों को जैसे ही मौका मिला, उन्होंने मुस्लिम चेहरे की पार्टी पर विश्वास जताया। इसलिए, ये कहना कि बिहार में ओवैसी की पार्टी की मुस्लिम बहुल सीटों पर सफलता एक अचानक हुई घटना है, तो ऐसा नहीं है। हैदराबाद में वो इसी बल पर अपना प्रदर्शन दोहराते रहे हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 482 में से 7 मुस्लिम उम्मीदवार दिए, एक भी नहीं जीत पाया। क्या ये ध्रुवीकरण का सबूत नहीं? बाद में यही विश्लेषक पूछते हैं कि फलाने सरकार में एक भी मुस्लिम मंत्री क्यों नहीं है? क्या 2014 में भाजपा ने आकर ध्रुवीकरण कर दिया, अचानक से? ऐसा नहीं है। भाजपा के उम्मीदवार मुस्लिम भले ही हों, मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग के मन में ये बैठा रहता है कि इसके जीतने से बढ़ेगी तो भाजपा के सीटों की संख्या ही।
हिंदी बेल्ट और उत्तर-पूर्व के बाद अब दक्षिण भारत से भी एक उदाहरण देख लेते हैं। यहाँ केरल में पिछले 70 वर्षों से भी अधिक समय से ‘इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML)’ नामक पार्टी सक्रिय है। क्या आप यकीन करेंगे कि इस पार्टी के पास केरल में 18 विधानसभा सीटें और 3 लोकसभा सीटें हैं। वायनाड में इसके समर्थन से राहुल गाँधी जीते। क्या योगेंद्र यादव इसे भी ‘मुस्लिम बहुल इलाके में नॉन-मुस्लिम’ की जीत मानते हैं?
कल को इस पार्टी के पास भी ओवैसी जैसा कोई बड़ा विवादित चेहरा मिल जाता है और ये किसी अन्य राज्य में चुनाव जीत जाती है तो इसे भी भाजपा की बी-टीम ही माना जाएगा? ऐसा हो सकता है, क्योंकि इस पार्टी के खिलाफ वामपंथी और लिबरल गिरोह तब तक चुप रहेंगे, जब तक ये कॉन्ग्रेस के साथ UDF गठबंधन में है। जैसे ही ये पाँव पसारेगी, कॉन्ग्रेस का वोट छिटकने के लिए इसे जिम्मेदार ठहराते हुए गालियाँ दी जाएँगी।
इसीलिए, इन तथाकथित विश्लेषकों की दिक्कत किसी मुस्लिम पार्टी के उभार से बिलकुल नहीं है। उन्हें असली दिक्कत भाजपा की जीत से है। उन्हें दिक्कत इस बात से है कि मुस्लिम कट्टरवादियों का प्रभाव बढ़ने के कारण हिन्दू भी एकजुट हुए हैं, जिसकी वो कभी उम्मीद नहीं करते थे। दिक्कत इस बात से है कि ये मुस्लिम समाज उन इस्लामी पार्टियों को समर्थन क्यों दे रहा है, जो कॉन्ग्रेस या किसी भाजपा-विरोधी बड़े दल के साथ गठबंधन में नहीं हैं।
असली परेशानी इससे है कि मुस्लिमों को जानबूझ कर हाशिए पर रख कर खुद को उनका रहनुमा बताने वाली पार्टियाँ हिन्दुओं के खिलाफ फैसले ले-ले कर मुस्लिम समाज को खुश करने की कोशिश करते रहे, और उनके दशकों के प्रयासों को भुला कर मुस्लिमों ने इस्लामी पार्टियों को वोट देना शुरू कर दिया है। मुस्लिम तुष्टिकरण की हदें पार चुकी ये पार्टियाँ और उनके चमचे इसे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं।
मुस्लिम बहुल सीटों पर अगर कोई नॉन-मुस्लिम पार्टी जीती भी तो उसने वहाँ की मुस्लिम जनसंख्या के हिसाब से उम्मीदवार खड़े किए और अपने किसी बड़े मुस्लिम चेहरे को तरजीह देकर पार्टी कैडर को उसे जिताने में लगाया। आप गौर कीजिए, कॉन्ग्रेस, राजद, सपा, बसपा या तृणमूल जैसी पार्टियाँ मुस्लिम बहुल इलाकों में नॉन-मुस्लिम उम्मीदवार नहीं देती। क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि मुस्लिम समाज अपने बीच में ही प्रतिनिधित्व ढूँढता है। योगेंद्र यादव को भी पता होगा, लेकिन प्रपंच जो फैलाना है। योगेंद्र यादव तो सरदार पटेल के इस वीडियो को भी देखे होंगे लेकिन जनता को सब कुछ बताना क्यों?