AIMIM अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा, “बीजेपी की सरकार भारत के मुस्लिमों को सेकंड क्लास नागरिक बनाना चाहती है और भारत के मुस्लिम इस बात का एहसास नहीं करते। भारत के मुस्लिमों को इस बात का एहसास होना चाहिए कि हम बहुत समय तक सेकुलरिज्म के कुली नहीं बन सकते तो हमारा वोट सेक्युलर पार्टियों के पास क्यों जाना चाहिए? मुस्लिमों को अपने समुदाय में राजनीतिक नेतृत्व खोजना चाहिए। यह इकलौता ऐसा रास्ता है जिससे यह सुनिश्चित होगा कि हमें संवैधानिक अधिकार दिए गए हैं।”
We should realise that we can no longer be ‘coolies of secularism’. Why should our vote go to the so-called secular parties?
— AIMIM Official (@aimim_national) August 25, 2019
Muslims must find political leadership from within their community. It’s the only way to ensure that constitutional rights are given to us. pic.twitter.com/m4mudnxVuI
हिंदी में इसके लिए दो कहावतें हैं: ‘एक तो चोरी, ऊपर से सीनाज़ोरी’, और ‘ज़ख्म पर नमक छिड़कना’। ओवैसी इस बयान से हिन्दुओं के साथ जो कर रहे हैं, उस पर यह दोनों कहावतें बखूबी फिर बैठतीं हैं। 500 साल आक्रमण, 800 साल गुलामी और उसके बाद से आजतक सेक्युलरिज़्म के नाम पर सेक्युलर-समाजवादी भारतीय गणराज्य का लक्षित (targeted) भेद-भाव हिन्दू झेल रहे हैं, मंदिरों पर हमारे कब्ज़ा है, 1947 में खीर-भवानी, हिंगलाज जैसे शक्ति पीठ हमने गँवाए, सरकारें-अदालतें हस्तक्षेप करने के स्वतंत्र हमारे उत्तराधिकार से लेकर मंदिर के नियम-कानून में हैं, कश्मीर के मुस्लिम-बहुल होने के चलते भगाए ब्राह्मण गए (मारे गए और बलात्कृत हुए; लेकिन उसकी तो हिन्दुओं को आदत पड़ चुकी है), RTE हमारे समुदाय के ही स्कूल ढोते हैं, CBSE/ NCERT की रोमिला थापर-मार्का हिन्दूफ़ोबिक किताबें इतिहास हमारा स्याह करतीं हैं, और सेक्युलरिज़्म के कुली मुस्लिम हो गए?
किसने माँगा पाकिस्तान, किसने दिए 1946 में मुस्लिमों को वोट?
ओवैसी को चूँकि हर बात पर यह याद दिलाने का शौक है कि पाकिस्तान के बन जाने के बाद भी अधिकाँश मुस्लिमों ने पाकिस्तान जाना नहीं, भारत में रहना पसंद किया। अगर यह सच है कि अधिकाँश मुस्लिम पाकिस्तान-समर्थक नहीं थे, तो ओवैसी को यह बताना चाहिए कि प्रांतीय चुनावों में मुस्लिमों के लिए आरक्षित सीटों पर 90% जीत कैसे हासिल की? कैसे उसे 6 करोड़ मुस्लिम वोटरों में से 4.5 करोड़ के वोट हासिल हो गए?
उनके पास इसके जवाब में केवल एक बोगस लिबरल तर्क होगा कि केवल ‘एलीट’ मुस्लिमों को वोटिंग का अधिकार प्राप्त था, और उन मुस्लिमों के जिहादीपन को सभी मुस्लिमों पर लागू नहीं माना जा सकता। लेकिन अगर इसी तर्क को हिन्दुओं पर लागू किया जाए, तो इसका मतलब होगा कि केवल ‘एलीट’ हिन्दुओं ने ही नर्म, केंद्रपंथी (centrist) कॉन्ग्रेस को चुना, धुर-दक्षिणपंथी हिन्दू महासभा के मुकाबले। उन्हीं प्रांतीय असेम्बलियों ने संविधान सभा बनाई, जिसने निश्चय किया कि न ही भारत पाकिस्तान के बनने के जवाब में हिंदूवादी देश बनेगा, और न ही पाकिस्तान बनाने का वोट देने वाले और सड़कों पर जिन्ना की पुकार पर खून की होली खेल रहे मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजेगा। यह फैसला ‘एलीट हिन्दुओं’ से लिया था, तो इसे आम हिन्दुओं पर क्यों थोपा जा रहा है, यह ओवैसी को बताना चाहिए। और इस मामले में कौन बना सेक्युलरिज़्म का कुली?
‘कश्मीरियत’ का कैंसर किसने भुगता?
राजा हरि सिंह ने जो समझौता जिसके साथ किया, उस technicality में घुसे बगैर सीधा सवाल पूछता हूँ: 1947 में राजशाही का व्यवहारिक रूप से खात्मा हो जाने के बाद कठमुल्ला शेख अब्दुल्ला और उनके गुंडे समर्थक, जो कि मुस्लिम ही थे, ने किस नैतिक आधार पर 370 की माँग रखी? जवाब अगर कश्मीरियत होगा, तो ओवैसी को बताना चाहिए कि ये ‘कश्मीरियत’ है क्या? ऐसी कौन सी सुर्खाब के परों वाली स्थानीय संस्कृति थी खाली कश्मीर में ‘बाहरियों’ के बसने से खत्म हो जाती, लेकिन बिहार, कर्नाटक, भोपाल में न होती? “नमस्ते शारदे देवी काश्मीरपुरवासिनि।” वाली संस्कृति तो न खत्म होती। जिहादी संस्कृति हमारी थी ही नहीं।
उसके बावजूद कश्मीर के मुस्लिमों का कट्टरपंथ हिन्दुओं ने 7 दशक से अधिक समय तक भुगता, कश्मीरी पंडितों ने जान-माल-इज़्ज़त सब खोया। कौन हुआ सेक्युलरिज़्म का कुली?
कौन से ‘बाबा’ दिखाए गए बलात्कारी?
बड़े ओवैसी अपने छोटे भाई की तरह खाली पूरी ज़िंदगी हिन्दुओं को 15 मिनट पुलिस हटा देने की चुनौती देते बिता देने वाले जाहिल नहीं हैं; पढ़े-लिखे हैं, पूर्व क्रिकेटर हैं। उम्मीद है फिल्मों का भी शौक रखते होंगे, क्योंकि फिल्म-जगत और क्रिकेट मौसेरे भाई हैं, और फ़िल्में और राजनीति साढ़ू-भाई। तो ज़रा ओवैसी याद करें कि आखिरी बार किस समकालीन फिल्म में मुस्लिम मौलवी या ओझा-दरवेश-सूफ़ी संत को ढोंगी-पाखंडी-बलात्कारी दिखाया गया था? जबकि लगभग सारे प्रोड्यूसर हिन्दू होते थे, अभिनेता-लेखक-निर्देशक से लेकर स्पॉटबॉय तक सब हिन्दू, लेकिन फिल्मों में मंदिर का पुजारी बलात्कारी और फ़क़ीर-औलिया को चमत्कारी दिखाया गया। किसके चलते? OMG में मिथुन चक्रवर्ती, गोविन्द नामदेव ने जैसा मज़ाक हिन्दू बाबाओं का उड़ाया, वैसा मुहम्मद का करना तो दूर की बात, मुहम्मद का रोल किसी पोस्टर में भी कर लेते तो हिंदुस्तान में गर्दन सर पर लेकर नहीं चल पाते। फिल्म में अपनी मूर्ति तोड़ने के रूपक अलंकार की आड़ में हिन्दू देवताओं की प्रतिमा तोड़ने वाले परेश रावल को भाजपा ने हिन्दू-राष्ट्रवाद के उबाल वाले 2014 लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और वे जीते भी।
ओवैसी कभी तस्लीमा नसरीन या सलमान रुश्दी को टिकट देने की बात हँसी-हँसी में भी कह कर देखें। या तो वहीं मॉब-लिंचिंग हो जाएगी या घर पहुँचते-पहुँचते दाढ़ी नोंच लेने से लेकर सर उड़ा देने तक का फतवा जारी हो जाएगा। कौन हुआ ओवैसी जी सेक्युलरिज़्म का कुली?
नेता क्षेत्र का बनता है प्रतिनिधि, समुदाय का नहीं
मैं ऐसे दर्जन-भर उदाहरण दे सकता हूँ एक साँस में, लेकिन अगर बात सच में समझनी हो तो इतने उदाहरण काफी हैं। अब आते हैं ओवैसी की इस अपील पर कि मुस्लिम अब ‘अपने समुदाय’ में राजनीतिक नेतृत्व खोजें। तो हर बात में ‘संविधान में कहाँ लिखा है?’ का राग अलापने वाले ओवैसी को यह पता होना चाहिए कि संविधान में और कानून में हर जनप्रतिनिधि अपने भौगोलिक क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है, किसी समुदाय विशेष का नहीं। यह वही ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ है जिसकी दुहाई वे और उनके मित्र देते रहते हैं। तो वे ये बताएँ कि ‘मुस्लिमों का वोट मुस्लिमों को ही मिलना चाहिए’ की लाइन पकड़ने वाले वे और विभाजन कराने वाले जिन्ना-इक़बाल-लियाकत अली खान कम-से-कम भाषा के अंतर पर कहाँ अलग हैं?
सच्चाई यही है ओवैसी जी कि सेक्युलरिज़्म के कुली मुस्लिम नहीं, हिन्दू हैं। अपने खून से, अपनी संस्कृति-सभ्यता, अपने धर्म और अपनी आत्मा की कीमत पर हिन्दुओं ने ही सेक्युलरिज़्म को जिला रखा है। “सर्वे भवन्तु सुखिनः” और “एकं सद्” का हवाला देकर हमने आपके पूर्वज मुस्लिमों (क्योंकि आप लोग तो खुद को अरबी नस्ल मानते हैं, हिंदुस्तानी नहीं) को स्वीकार किया, राजा दाहर, पृथ्वीराज चौहान जैसे झटके और धोखे खाने के बाद भी। और आज भी केवल 15-20% होने के बाद भी मुस्लिम शांति से रात को सो पाते हैं तो इसलिए क्योंकि जानते हैं कि 79% हिन्दू आबादी के बावजूद कोई हिन्दू साम्प्रदायिक होकर कोई पागलपन करने, हिंसा करने दौड़ पड़ा तो उसे रोकने आज के ‘डर का माहौल’ में भी पहले हिन्दू ही खड़े होंगे। हिन्दुओं का दुर्भाग्य यह है कि हम अपनी प्रकृति से ही सेक्युलरिज़्म के कुली हैं।