पाकिस्तान में धार्मिक और सामाजिक प्रताड़ना झेलने के कारण भारत आए हिंदू शरणार्थियों और अवैध रूप से देश में घुसे रोहिंग्या मुस्लिमों में अंतर है। अंतर यह है कि बिना नागरिकता मिले देश में रहने वाले रोहिंग्या मुस्लिमों को दिल्ली सरकार वो सुविधाएँ देती हैं, जो नागरिकता पाए हिन्दू शरणार्थियों को नहीं मिलतीं। अब तक यह सर्वविदित है कि आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार कैसे रोहिंग्या मुस्लिमों को सुविधाएँ देती है या उनका प्रबंध करती है और कैसे हिन्दू शरणार्थियों को न्यूनतम सुविधाएँ भी देने की बात पर मुँह फेर लेती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि दिल्ली में कुछ स्थानों पर बसे ये हिन्दू शरणार्थी अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए बाध्य हैं।
इस विषय पर हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में दाखिल एक जनहित याचिका पर आए फैसले में न्यायालय की दो न्यायाधीशों वाली पीठ ने कहा कि नागरिकता मिलने के बाद भारत आए हिंदू शरणार्थी हर उस सुविधा के हकदार हैं, जो भारत के किसी और नागरिक को मिलती है। ऐसे में नैतिकता और नियमों के तहत दिल्ली सरकार पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह इन नागरिकों को न्यूनतम सुविधाएँ उपलब्ध कराए।
देखने वाली बात यह होगी कि दिल्ली सरकार न्यायालय के आदेश का पालन करने की दिशा में क्या कदम उठाती है पर महत्वपूर्ण यह है कि दिल्ली सरकार अवैध रूप से भारत में घुसे विदेशियों और वैध रूप से नागरिकता प्राप्त शरणार्थियों में भेदभाव करती है। ज्ञात हो कि हाल ही में न्यायालय में दाखिल सूचना के अनुसार दिल्ली सरकार कोरोना महामारी के दौरान रोहिंग्या मुस्लिमों को मुफ्त में राशन मुहैया कराती रही है।
प्रश्न यह उठता है कि भारत सरकार की ओर से नागरिकता प्राप्त हिन्दुओं को सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए किसी भारतीय या एनजीओ को न्यायालय जाने की आवश्यकता क्यों पड़ती है और यही न्यूनतम सुविधाएँ अवैध रूप से रहने वाले रोहिंग्या मुस्लिमों को कैसे मिल जाती हैं? प्रश्न यह भी उठता है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आदेश के बावजूद हिंदू शरणार्थियों से इन सरकारी सुविधाओं को दूर क्यों रखा जाता है? आखिर दिल्ली सरकार के लिए इन नागरिकों को न्यूनतम सुविधाएँ देना क्या असंभव है? और यदि ऐसा है तो फिर रोहिंग्या मुस्लिमों को ये सुविधाएँ कैसे दी जा रही हैं?
दरअसल दिल्ली सरकार के कर्ता-धर्ता आजकल हिंदुओं में तो एक वोट बैंक देखने लगे हैं पर उन्हें हिंदू शरणार्थियों में कोई वोट बैंक दिखाई नहीं देता। या कहीं कारण यह तो नहीं कि पाकिस्तान या अन्य पड़ोसी देशों में धार्मिक प्रताड़ना झेलकर भारत आए इन हिंदुओं को न्यूनतम सुविधाएँ देने के कारण केजरीवाल के अल्पसंख्यक वोटर के नाराज होने का खतरा है? आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि दिल्ली सरकार राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग या न्यायालय के आदेशों का भी पालन नहीं कर सकती? ऐसा करना क्या केजरीवाल सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं है?
पिछले चुनाव के समय केजरीवाल जगह-जगह हनुमान चालीसा पढ़ते हुए यह दावा कर रहे थे कि वे ही असल हिंदू हितैषी हैं पर सरकार बनाने के बाद हिंदू हितों की बात पता नहीं कहाँ चली गई। अच्छा, ऐसा नहीं कि केवल राजनीति या सरकार ने ही इन हिंदुओं से मुँह मोड़ लिया है। रोहिंग्या मुस्लिमों के तथाकथित मानवाधिकार की रक्षा पर रात-दिन बिलखने वाले स्वघोषित बुद्धिजीवी और सेक्युलर मीडिया को भी इन हिंदू शरणार्थियों के अधिकारों पर बात करते नहीं देखा जाता। यहाँ तक कि यदि कोई बोलता है तो उसके विरोध में भी आवाज़ें उठने लगती हैं। आखिर हिन्दू शरणार्थियों की बात करना इनके किस हित को नुकसान पहुँचा सकता है?
सीएए और एनआरसी के विरुद्ध शाहीन बाग़ में महीनों तक जो कुछ भी हुआ, उसकी परिणति दिल्ली के हिंदू विरोधी दंगों में हुई। इस तथाकथित आंदोलन और इसके बाद हिंदू विरोधी दंगों में आम आदमी पार्टी और उसके नेताओं की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। ऐसे में यह स्पष्ट हो जाता है कि केजरीवाल द्वारा हिंदू हितों की बात क्यों खोखली है।
प्रश्न उठता है कि जो केजरीवाल सरकारी पैसे पर श्रवण कुमार बनकर दिल्ली के हर बुजुर्ग को अयोध्या की तीर्थयात्रा करवाने का वादा करते हैं, वे पाकिस्तान से आए नागरिकता प्राप्त हिंदू शरणार्थियों के लिए न्यूनतम सरकारी सुविधाएँ मुहैया कराने की बात पर क्यों बगलें झाँकने लगते हैं? दरअसल श्रवण कुमार बनकर दिल्ली के बुजुर्गों की अयोध्या की तीर्थ यात्रा का केजरीवाली वादा अयोध्या के राम मंदिर निर्माण में अपने लिए किसी तरह क्रेडिट का एक टुकड़ा खोज लेने से अधिक कुछ नहीं है। अयोध्या में राम मंदिर का विरोध करने वाली आम आदमी पार्टी और उसके नेता वहाँ अपने लिए कुछ खोजने के फिराक में हैं।
दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का पालन दिल्ली सरकार किस तरह और कब करती है, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है। रोहिंग्या मुस्लिमों को भोजन और रहने की व्यवस्था करने वाली दिल्ली सरकार की परीक्षा इस बात में है कि वह हिंदू शरणार्थियों को नियमों और नैतिकता के तहत सरकारी सुविधाएँ मुहैया कराती है या नहीं? यदि दिल्ली सरकार न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करती है तो यह साफ़ हो जाता है कि इतने वर्षों के मुख्यमंत्रित्व के बाद भी केजरीवाल अभी तक सरकार और दलीय राजनीति को अलग नहीं कर पाए हैं और यह स्थिति केवल लोकतंत्र के लिए ही नहीं, सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारियों के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है।