केंद्र सरकार ने मालाबार ‘विद्रोह’ में शामिल लोगों के नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची से हटाने का निर्णय लिया है। सरकार के निर्णय के अनुसार सूची से 387 ऐसे लोगों के नाम हटाए जाएँगे जिन्हें अब तक स्वतंत्रता सेनानी माना जाता रहा। भारत सरकार की डिक्शनरी ऑफ मार्टियर्स से इन नामों को इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च की एक समिति द्वारा की गई सिफारिश के बाद हटाया जा रहा है।
समिति का मानना है कि 1921 के इस तथाकथित विद्रोह में अंग्रेजों के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गई और न ही राष्ट्रवाद के पक्ष में कोई नारे लगाए गए। ऐसे में सरकार द्वारा उठाया गया इस कदम का स्वागत होना चाहिए क्योंकि किसी भी सभ्यता या राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि ऐतिहासिक घटनाओं को तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए न कि कहानियों के परिप्रेक्ष्य में।
तथ्य यही बताते रहे कि 1921 का मालाबार विद्रोह अंग्रेजों के खिलाफ नहीं था। यह किसी से छिपा नहीं है कि महीनों तक चले हिन्दुओं के योजनाबद्ध नरसंहार में तथाकथित मोपला स्वतंत्रता सेनानियों ने दस हजार से अधिक हिन्दुओं की हत्या की थी। इस्लामिक प्रोपेगंडा के तहत दशकों का स्थापित नैरेटिव चाहे जो बताए पर तथ्य यह बताते हैं कि उस क्षेत्र के मुसलमानों ने हिन्दुओं की हत्या, हिंदू महिलाओं का बलात्कार और लूटपाट किया तथा हज़ारों हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन के लिए बाध्य किया गया।
ऐसे में एक आम भारतीय के लिए यह आज भी आश्चर्य की बात होगी कि मालाबार में हुए हिन्दुओं के इस नरसंहार को अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने की लड़ाई कैसे कहा गया? यह प्रश्न तब और प्रासंगिक हो जाता है जब हमारी दृष्टि वर्षों की सरकारी सहायता से बुनी गई उन कहानियों पर जाती है जिनमें इस नरसंहार को न्यायसंगत ठहराने के लिए कुछ भी लिख दिया गया और हिन्दुओं के पास इन कहानियों के विरुद्ध केवल कुढ़ने के और कुछ नहीं था।
सरकार का यह कदम आवश्यक है और तर्कसंगत भी। स्वतंत्रता के पहले या उसके बाद दशकों तक ऐतिहासिक तथ्यों को नकारते हुए जो कहानियाँ बुनी गई हैं उन्हें तथ्यों की कसौटी पर कसना सरकार या बुद्धिजीवियों कर्तव्य और आम भारतीय का अधिकार है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। साथ ही केंद्र सरकार द्वारा लिखित इतिहास को जाँचने, जानने और उसके पुनर्लेखन के प्रयासों की प्रक्रिया भी एक ऐसा ही कदम है जिसकी आवश्यकता थी।
हर सरकार की प्रशासनिक और नैतिक जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्र के विद्यार्थियों को सही इतिहास की शिक्षा सुनिश्चित करे। सरकार के ऐसे प्रयासों का विरोध होगा, उसपर बहस होगी पर यह एक सामान्य बात है। किसी भी बदलाव की प्रक्रिया विरोध से ही शुरू होता है और सरकार को ऐसे हर संभावित विरोध का पता होगा और प्रक्रिया के आड़े आने वाले विरोधियों का संदेह दूर करना सरकार की जिम्मेदारी है।
आवश्यक नहीं कि केंद्र या राज्य सरकारें हर प्रयास का हिस्सा बने पर जहाँ तक संभव हो, उन्हें इस प्रक्रिया में अपनी भूमिका निर्धारित कर उसे पूरा करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। इस दिशा में जो शुरुआत हुई है वह आगे चलकर और तीव्र हो, यह आवश्यक है। स्वतंत्र सार्वजनिक विमर्शों में स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ अन्य ऐतिहासिक घटनाओं में तमाम संस्थाओं, व्यक्तियों और नेताओं की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे इस सूचना क्रान्ति के इस युग में न तो कोई सरकार रोक सकती है और न ही राजनीतिक दल।
स्वतंत्र सूचनाओं और तथ्यों की उपलब्धता से यह सुनिश्चित होता रहेगा कि इतिहास पर आरंभ हुई बहस एक परिणाम तक पहुँचे। हाल के वर्षों में इसका एक प्रमुख उदाहरण इतिहास में टीपू सुल्तान की भूमिका के पुनर्मूल्यांकन का रहा है। तमाम विरोधों के बावजूद तथ्यों के लगातार प्रवाह से इस बहस में एक विस्तृत सहभागिता सुनिश्चित हुई है।
तथाकथित मोपला स्वतंत्रता सेनानियों को सरकार की सूची से निकाल बाहर करने का विरोध शुरू हो गया है। केरल में लंबे समय तक कॉन्ग्रेस के मित्र दल रहे इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने केंद्र सरकार के इस फैसले का विरोध करना आरंभ कर दिया है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इतिहास को तोड़ने मरोड़ने में कॉन्ग्रेस पार्टी की भूमिका जगजाहिर है। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग हो, कॉन्ग्रेस पार्टी हो या फिर वामपंथी दल, इस एक विषय पर सभी साथ खड़े नजर आते रहे हैं।
ये हिंदुओं के नरसंहार के लिए जिम्मेदार मोपला नेताओं के नाम को स्वतंत्रता सेनानियों की सूची से निकालने की प्रक्रिया को इतिहास का डिस्टॉरशन बताएँगे पर सच यही है कि सरकार के इस फैसले के पीछे ठोस कारण और आधार हैं। केंद्र सरकार के फैसले का कॉन्ग्रेस, वामपंथियों और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग द्वारा विरोध उनके दशकों के प्रयास से गढ़े गए नैरेटिव के ध्वस्त होने की छटपटाहट है और उस छटपटाहट की तुलना में बहुत छोटी है जो दशकों तक हिंदुओं ने झेली है।