Sunday, November 17, 2024
Homeविचारराजनैतिक मुद्देकश्मीर पर भूलों का करना था पिंडदान, कॉन्ग्रेस ने खुद का कर लिया

कश्मीर पर भूलों का करना था पिंडदान, कॉन्ग्रेस ने खुद का कर लिया

वजूद बचाने के संकट से जूझ रही बिन अध्यक्ष की कॉन्ग्रेस भॅंवर से निकलने का रास्ता ढूँढ़ने में जितनी देरी करेगी 370 के प्रावधानों की तरह इतिहास में उसके दफन होने के मौके भी उतने ही मजबूत होते जाएँगे।

पांडे जी अरसे से फेसबुकिया मित्र हैं। आए दिन सहज, सरल शब्दों में भाजपा को घेरते रहते हैं। 6 अगस्त को पांडे जी फेसबुक पर पोस्ट करते हैं, “दरअसल कॉन्ग्रेसी विरोध नहीं कर रहे हैं, बल्कि कॉन्ग्रेस का पिंडदान कर रहे हैं।” 5 और 6 अगस्त को आर्टिकल 370 के प्रावधानों को निष्प्रभावी करने के लिए राज्यसभा और लोकसभा में चर्चा के दौरान सोशल मीडिया में की गई प्रतिक्रियाओं की यह बानगी भर है।

आप चाहें तो ऐसी प्रतिक्रियाओं को पांडे जी या उन जैसों की कुंठा, इतिहास या राजनीति की कम समझ या फिर रवीश कुमार की शैली में ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्रशिक्षित कह कर खारिज कर सकते हैं। यह भी कह सकते हैं कि उन्होंने हवा देख ‘दिल्ली वाले सरजी’ की तरह पाला बदल लिया। चाहें तो संसद में बहस के दौरान #ShameOnCongress और #congressselfgoal के ट्रेंड करने को ट्विटर का आरएसएस एजेंट होना कह कर नकार सकते हैं। वैसे भी जब पाकिस्तानी चैनल पर पैनलिस्ट अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दामाद जेरेड कुश्नर को इस फैसले के पीछे बता सकते हैं तो ट्विटर के को-फाउंडर और सीईओ जैक डर्सी को सेट करना कौन सी बड़ी बात है। अरे याद आया बीते नवंबर में ही तो मोदी ने डर्सी से मुलाकात कर गुफ्तगू भी की थी।

लेकिन, उन सवालों का क्या जो कॉन्ग्रेस के भीतर से उठ रहे हैं। जब राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद कश्मीरियत, जम्हूरियत का हवाला देकर आर्टिकल 370 को निष्प्रभावी करने और जम्मू-कश्मीर को दो केन्द्र शासित प्रदेशों (यूटी) में बॉंटने के सरकार के कदम का विरोध करते हुए कह रहे थे, “मोदी सरकार ने भारत के मस्तक के टुकड़े कर दिए। सरकार देश के टुकड़े-टुकड़े करना चाहती है। जम्मू-कश्मीर के लोग केन्द्र सरकार के साथ नहीं हैं।”, उससे पहले ही कॉन्ग्रेस के कई नेताओं को आभास हो चुका था कि पार्टी लाइन जनभावना के खिलाफ है। पार्टी सांसद और राज्यसभा के ह्विप भुवनेश्वर कालिता ने यह कहते हुए, ‘कॉन्ग्रेस आत्महत्या कर रही है और मैं इसमें उसका भागीदार नहीं बनना चाहता’, सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। जर्नादन द्विवेदी, दीपेंद्र हुड्डा, मिलिंद देवड़ा जैसे गॉंधी परिवार के करीबी रहे नेताओं ने भी इस मसले पर पार्टी से इतर राय रखने में वक्त जाया नहीं किया। जर्नादन द्विवेदी ने कहा, “मैंने राम मनोहर लोहिया जी के नेतृत्व में राजनीति की शुरूआत की थी। वह हमेशा इस अनुच्छेद के खिलाफ थे। आज इतिहास की एक गलती को सुधार लिया गया है।”

उन्होंने अपने बयान को निजी विचार बताया था। लेकिन, सालों तक सोनिया के बेहद करीब होने के कारण उन्हें यह इल्म जरूर रहा होगा कि पार्टी शायद अपनी लाइन थोड़ी दुरुस्त कर पाए। जाहिर है ऐसा नहीं हुआ और अगले दिन लोकसभा में चर्चा के दौरान कॉन्ग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कुछ ऐसा कह दिया जिससे उनके बगल में बैठीं सोनिया भी असहज नजर आईं। चौधरी ने कहा, “जिस कश्मीर को लेकर शिमला समझौते और लाहौर डिक्लेरेशन हुआ है वह हमारा अंदरूनी मामला कैसे हो गया।”

इस बीच पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी ने ट्वीट कर कहा, “जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बॉंटकर, चुने हुए प्रतिनिधियों को जेल में डालकर और संविधान का उल्लंघन करके देश का एकीकरण नहीं किया जा सकता। देश उसकी जनता से बनता है न कि जमीन के टुकड़ों से। सरकार द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए घातक साबित होगा।” लेकिन, अधीर ने जो आग लगाई ​थी उसकी तपिश इससे कम नहीं हुई। मजबूरन, ज्योतिरादित्य सिंधिया, अनिल शास्त्री, रंजीत रंजन, अदिति सिंह जैसे कई नेताओं को पार्टी लाइन से हटकर रुख अख्तियार करना पड़ा।

राजनीति बौद्धिक बहसों से ज्यादा जमीनी सूझबूझ की कला है। जनभावना का मिजाज भॉंपने का चातुर्य है। लेकिन, ऐसा लगता है कि कॉन्ग्रेस का शीर्ष नेतृत्व लगातार चुनावी पराजयों की वजह से जमीन से ऐसे कटा है कि उसे कालिता और जर्नादन द्विवेदी जैसे अपने वरिष्ठ नेताओं के बयानों में छिपा संदेश भी समझ नहीं आ रहा।

असल में जम्मू-कश्मीर शेष भारत के लिए दो समुदायों का मसला नहीं है। जैसा कि कॉन्ग्रेस और इस बिल का विरोध कर रहे अन्य पार्टियों के नेता इसे पेश करने की कोशिश कर रहे थे। न ही यह जमीन का टुकड़ा खरीदने की आजादी से जुड़ा है और न ही कश्मीरी से ब्याह रचाने से, जैसा कुछ नीच सोशल मीडिया में इस बहस का स्तर गिराते हुए मीम शेयर कर रहे हैं। असल में कश्मीर वो भावनात्मक मसला है जो पूरे भारत को पाकिस्तान के खिलाफ, आतंकवाद के खिलाफ एक सूत्र में पिरोता है। इसका एहसास ‘जहॉं बलिदान हुए मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है’ से लेकर ‘कश्मीर हो या कन्याकुमारी-अपना देश अपनी माटी’ का नारा लगाने वाले छोटे से बच्चे को भी होता है। पर अफसोस कॉन्ग्रेस यह समझ नहीं पाई या समझना ही नहीं चाहती। शायद यही उसकी समस्या के मूल में है।

आम धारणा में इस बात की भी मजबूत पैठ है कि जम्मू-कश्मीर पूरी तरह भारत में घुलमिल नहीं पाया तो इसकी वजह नेहरू की नीतियॉं थी। अब आप इतिहास की पंक्तियों को अपने सिरे से व्याख्यायित करने की कितनी भी कोशिशें कर ले, आरएसएस और भाजपा के दुष्प्रचार का जितना रोना रोए, यह धारणा इतनी गहरी है कि उसे रातोंरात मिटाना मुमकिन नहीं। एक तरह से मोदी सरकार ने इस बिल के माध्यम से कॉन्ग्रेस को यह मौका दिया ​था कि वह जनभावना के सम्मान के नाम पर साथ आकर कश्मीर पर नेहरू की कथित भूलों से छुटकारा पाकर खुद को नए पायदान पर खड़ा कर ले।

लेकिन, तब सरकार की हर बात का विरोध करने की विपक्ष की अघोषित भूमिका का क्या होता? इसका रास्ता कॉन्ग्रेस के ही महासचिव ज्योतिरादित्य सिंधिया के ट्वीट में छिपा है। उन्होंने ट्ववीट किया था, “जम्मू कश्मीर और लद्दाख को लेकर उठाए गए कदम और भारत देश में उनके पूर्ण रूप से एकीकरण का मैं समर्थन करता हूॅं। संवैधानिक प्रक्रिया का पूर्ण रूप से पालन किया जाता तो बेहतर होता, साथ ही कोई प्रश्न भी खड़े नहीं होते। लेकिन ये फैसला राष्ट्रहित में लिया गया है और मैं इसका समर्थन करता हूॅं।’

इसी तरह के रुख से कॉन्ग्रेस अपना विपक्ष का कथित धर्म भी निभा लेती और राष्ट्रधर्म के लिहाज से पूरे नंबर भी पाती। सदन में नेहरू की गलतियों का बार-बार जिक्र होने से होने वाली असहजता से भी छुटकारा पा लेती।

लेकिन, कॉन्ग्रेस ने खुद ही अपने हाथ जलाने का फैसला किया। हालॉंकि अब उसे नुकसान का एहसास हो रहा है। बताया जाता है कि 7 अगस्त को पार्टी कार्यसमिति की बैठक में युवा बिग्रेड और वरिष्ठ नेताओं के बीच जमकर बहस हुई। युवा बिग्रेड ने आर्टिकल 370 को हटाने के पक्ष में व्यापक जनभावना को देखते हुए इसका विरोध करने पर सवाल उठाए। बताया जाता है कि झारखंड के प्रभारी और पूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने इस बैठक में कहा, “नीतिगत आधार पर पार्टी का नजरिया भले सही हो, लेकिन जनता को इस बारे में समझाना मुश्किल है। इसलिए जनता के बीच जाने के लिए इस मसले पर सहज और व्यवहारिक नजरिया क्या होना चाहिए, यह पार्टी को स्पष्ट करना होगा।” अब इस मसले पर 9 अगस्त को पार्टी ने सभी राज्यों के नेताओं की विशेष बैठक बुलाई है।

लेकिन, इन कवायदों से पार्टी का तब तक भला होता नहीं दिख रहा जब तक गुलाम नबी आजाद जैसे नेता सेल्फ गोल करने वाला बयान देते रहेंगे। आजाद का ताजा बयान घाटी में कश्मीरियों के साथ बतियाते, खाना खाते राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल के वीडियो पर है। बकौल आजाद, “वीडियो के लिए आप पैसा देकर किसी को भी अपने साथ ला सकते हैं।”

वजूद बचाने के इस सवाल का जवाब बिन अध्यक्ष चल रही कॉन्ग्रेस को खुद ही तलाशना होगा। जैसा आउटलुक के एक लेख में हरिमोहन मिश्र कहते हैं, “देखना है कॉन्ग्रेस अपने संकट से निजात पाने का कोई तरीका ढूँढ़ पाती है या देश की सबसे पुरानी पार्टी इतिहास के पन्नों में समा जाती है।” जाहिर है, इस भँवर से निकलने का रास्ता ढूँढ़ने में पार्टी जितनी देरी करेगी 370 के प्रावधानों की तरह इतिहास में उसके दफन होने के मौके भी उतने ही मजबूत होते जाएँगे।

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अजीत झा
अजीत झा
देसिल बयना सब जन मिट्ठा

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

महाराष्ट्र में महायुति सरकार लाने की होड़, मुख्यमंत्री बनने की रेस नहीं: एकनाथ शिंदे, बाला साहेब को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ कहने का राहुल गाँधी...

मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने साफ कहा, "हमारी कोई लड़ाई, कोई रेस नहीं है। ये रेस एमवीए में है। हमारे यहाँ पूरी टीम काम कर रही महायुति की सरकार लाने के लिए।"

महाराष्ट्र में चुनाव देख PM मोदी की चुनौती से डरा ‘बच्चा’, पुण्यतिथि पर बाला साहेब ठाकरे को किया याद; लेकिन तारीफ के दो शब्द...

पीएम की चुनौती के बाद ही राहुल गाँधी का बाला साहेब को श्रद्धांजलि देने का ट्वीट आया। हालाँकि देखने वाली बात ये है इतनी बड़ी शख्सियत के लिए राहुल गाँधी अपने ट्वीट में कहीं भी दो लाइन प्रशंसा की नहीं लिख पाए।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -