कुछ दिनों पहले किसी ने याद दिलाया था कि भौकाल का भी अपना महत्व है। ये कोरोना को लेकर दो देशों की तुलना थी, जिसमें दोनों का काम तो एक ही जैसा था, मगर एक देश ऐसा था जहाँ के लोग अपनी कामयाबी का जोर शोर से ढिंढोरा पीटते थे। दूसरे देश के लोग जरा कम बोलने वाले थे और उतना शोर नहीं मचाते थे। इसका नतीजा ये भी था कि एक देश के लोग अक्सर कंपनियों में सीईओ या ऐसे ऊँचे पदों पर दिखते, मगर जो कम बोलने वाले थे उनका दबदबा उतना नहीं दिखता था। ऐसा भारत के साथ भी होता है। आज जिस देश को इजराइल के नाम से जाना जाता है, उसके बनने में भारत का बड़ा योगदान है।
भारतीय घुड़सवार सैनिकों की मैसूर, हैदराबाद, और जोधपुर के घुड़सवारों की टुकड़ियों ने 1918 में हाइफा पर विजय का परचम फहराया था। उस दौर में ये आखिरी इस्लामिक खलीफा माने जाने वाले ओटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। उनसे अगर ये इलाका छुड़ाया नहीं गया होता तो इजराइल कभी बनता ही नहीं। इस युद्ध में शौर्य के लिए कैप्टेन अमन सिंह बहादुर और वफादार जोर सिंह को इंडियन आर्डर ऑफ़ मेरिट, कैप्टेन अनूप सिंह और सेकंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह को मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया था। इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह को भी उनकी वीरता के लिए मिलिट्री क्रॉस मिला था।
इस एक युद्ध के लिए भारतीय सेना अभी भी 23 सितंबर को हाइफा दिवस मनाती है। सिर्फ इस एक युद्ध में ही नहीं बल्कि शायद जितनी बार भारतीय सैनिक युद्धों में उतरे हैं, करीब-करीब हर बार दुनिया के नक़्शे पर एक नया देश उभरकर सामने आ गया है। अफ़सोस कि इनके बारे में याद दिलाने के बदले हम बताते क्या हैं? भारत तो गाँधी का देश है जी! ये तो बुद्ध की भूमि है जी! इसका नतीजा ये होता है कि जिन्हें भारतीय सेना के युद्ध में उतरने से आतंकित होना चाहिए, वो बेचारे मासूम ये मान लेते हैं कि इन्हें थप्पड़ मार दो तो ये तो दूसरा गाल आगे कर देंगे! जाहिर है ऐसे में बेचारे दुस्साहस कर भी बैठते हैं।
बीते दो चार दिनों में भारत-चीन विवाद के साथ ही कई चीज़ें बदल गई हैं। फ्राँस ने सीधे-सीधे सैन्य समर्थन देने की ही बात कर दी है। ऐसा माना जाता है कि इससे पहले विदेशी जमीन पर लड़ने के लिए वो मक्का पर कब्जे के वक्त उतरे थे। हालाँकि, आधिकारिक स्रोत इसकी पुष्टि नहीं करते लेकिन माना जाता है कि नवंबर 1979 में जब अल कह्ताबी ने मक्का पर कब्ज़ा जमा लिया था तो फ़्राँस की सैन्य मदद से ही उसे छुड़ाया गया था। फ़्राँस के ऐसा करने के साथ ही यूएनएचआरसी में भारत ने चीन को एक देश मानने की नीति में बदलाव दिखाते हुए सीधे-सीधे हांगकांग सेक्योरिटी लॉ की बात करके उसे अलग देश मान लिया है।
भारत को कराची पर हुए किसी आतंकी हमले का दोषी बताने की चीनी कोशिश को UNSC में अमेरिका और जर्मनी ने रोक दिया है। टिक-टॉक और दूसरे एप्प पर भारत के प्रतिबन्ध को जहाँ एक तरफ यूएस ने जायज बताया। वहीं दूसरी तरफ उन्होंने खुद भी चीनी कम्युनिस्टों की कठपुतली होने की वजह से हुवाई कंपनी पर प्रतिबन्ध लागू कर दिए हैं। यूके ने एक कदम और आगे जाकर हॉन्गकॉन्ग के लोगों को अपने यहाँ 5 साल शरण देने (जिसके बाद वो नागरिकता ले सकते हैं), की बात की है। यूके के इस कदम से बौखलाकर चीन के विदेश मंत्रालय ने यूके को नतीजे भुगतने की धमकियाँ देना भी शुरू कर दिया है।
परंपरागत रूप से चीन का करीबी माने जाने वाले रूस ने एस-400 मिसाइल डिफेन्स सिस्टम की आपूर्ति समय से पहले ही कर देने की बात की है। इसपर चीन की आपत्तियों को भी रूस ने दरकिनार कर दिया है। यानी शीत युद्ध के दौर से कहीं आगे निकलकर भारत अब फ्रंट फुट पर खेल रहा है। सिर्फ भारत के कंधे पर रखकर बन्दूक चलाने की कोई मंशा भी नहीं दिखती क्योंकि कई पश्चिमी देश अपने प्रतिबंधों और शरणार्थी प्रस्तावों के साथ खुद ही आगे आ गए हैं। अब इसे प्रधानमंत्री के लगातार के विदेश दौरों (जिनसे टुकड़ाखोरों को बड़ी समस्या थी), का नतीजा माना जाए या ना माना जाए, ये एक अलग बहस का मुद्दा हो सकता है।
इन सबके बीच यूएस ने नेशनल डिफेंस ऑथोराईजेशन एक्ट पास कर दिया है। इससे अब वो गाउम द्वीप पर भारतीय, ऑस्ट्रेलियाई और जापानी पायलटों को प्रशिक्षण दे सकेंगे। ये द्वीप ऐसी जगह है जहाँ से चीन नजदीक होता है। थोड़े दिन पहले जो ऑस्ट्रेलिया के प्रधान भारतीय प्रधान को ‘शाकाहारी’ समोसे खिलाने की बात करते ट्विटर पर नजर आए थे, वो सैन्य क्षेत्र में निवेश को 40 प्रतिशत बढ़ा रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया के साथ चीन के व्यापारिक रिश्तों में हाल में आई खटास कुछ अख़बारों के कोनों में दिखी थी। वो सीधा माल नहीं खरीद रहे होंगे तो जाहिर है वहाँ भारतीय निर्यातकों के लिए एक नया बाजार भी अपने आप तैयार हो गया है।
इस सारी उठापटक के बीच प्रधानमंत्री का लेह-लद्दाख पहुँच जाना सेना के लिए कैसा होगा इस बारे में कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। जाहिर सी बात है जहाँ एक ओर इधर की सेना का मनोबल बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर चीन का मारे गए सैनिकों की गिनती ना बताना काफी कुछ कहता है। अगर नुकसान कम हुआ होता तो सिर्फ एक सेना नायक रैंक के मारे जाने को स्वीकारकर वो नहीं छोड़ते। आराम से कहते कि हमारे तो इतने ही मरे, या एक भी नहीं मारा गया? ट्रेनिंग के लिए मार्शल आर्ट्स के प्रशिक्षकों को भेजा जाना भी काफी कुछ बताता है। पुराने दौर में “दिल्ली दूर, बीजिंग पास” कहने वाले तथाकथित नेता पता नहीं किस बिल में हैं। ऐसे मामलों पर उनकी टिप्पणी रोचक होती।
बाकी ये जो बाँके अपनी मूछों के नए स्टाइल के साथ सुबह से लेह-लद्दाख में होने की खबर के साथ टीवी पर नजर आ रहे हैं, उनसे ओनिडा टीवी के पुराने प्रचार जैसा “नेबर्स एनवी, ओनर्स प्राइड” वाली फीलिंग तो आ रही है। “जलने वाले चाहे जल जल मरेंगे” को पंचम सुर में गाइए, मुस्कुराइए, धुँआ उठता देखना मजेदार तो है ही!