Monday, November 18, 2024
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राम का गुणगान, अब परशुराम की मूर्ति और ब्राह्मण सम्मलेन: जानिए 11% ब्राह्मणों को लुभाने के लिए क्यों पगलाई सपा-बसपा

प्रियंका गाँधी, मायावती और अखिलेध यादव को राम और राम मंदिर के पक्ष में बोला पड़ा। इससे पता चलता है कि वो जनभावनाओं को समझ तो रहे हैं, लेकिन ये नहीं समझ रहे कि जनता अब दिखावे और श्रद्धा के बीच का अंतर समझने लगी है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

रामधारी सिंह दिनकर के ‘रश्मिरथी’ की ये पंक्तियाँ आज इसीलिए और ज्यादा प्रासंगिक हो गई हैं, क्योंकि भगवान विष्णु के अंशावतार माने जाने वाले भगवान परशुराम की उत्तर प्रदेश की राजनीति में अचानक से वापसी हो गई है। यदा-कदा ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों को गाली देकर राजनीति करने वाले सपा-बसपा अब उनकी आराधना में लगी है। यहाँ हम इसी बदलाव का पोस्टमॉर्टम करने की कोशिश करेंगे।

उत्तर प्रदेश में अब राजनीति की धुरी फिर से ब्राह्मणों पर ही आकर टिक गई है। राज्य की दोनों स्थानीय पार्टियाँ सपा और बसपा ब्राह्मणों को रिझाने के लिए एक से बढ़ कर एक वादे कर रही हैं। राज्य की 60 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहाँ ब्राह्मण जनसंख्या 20% के पार है। ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए कि सपा-बसपा ब्राह्मणों को रिझाने और भगवान परशुराम की मूर्ति बनवाने की बात कर रही है। लेकिन, आखिर उन्हें इसका एहसास कैसे हुआ कि ब्राह्मण उनके लिए ज़रूरी हैं?

सबसे पहले बात समाजवादी पार्टी की। सपा ने वादा किया है कि वो भगवान परशुराम की 108 फीट ऊँची प्रतिमा का निर्माण करवाएगी। इसके लिए जगह ढूँढने की बात भी कही जा रही है। बताया गया है कि प्रतिमा बनवाने के लिए समाजवादी पार्टी देश के लोकप्रिय मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति और लखनऊ स्थित मुख्यमंत्री कार्यालय में लगी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भव्य मूर्ति बनाने वाले राजकुमार के संपर्क में है।

इतना ही नहीं, सपा हर जिले में भगवान परशुराम की मूर्ति लगवाने और ब्राह्मण सम्मेलन आयोजित कराने की योजना बना रही है। मंगल पांडेय से भी पार्टी का प्रेम उमड़ा हुआ है। पहले स्वतंत्रता संग्राम के बलिदानी मंगल पांडेय की मूर्ति लगाने पर विचार किया जा रहा है। अखिलेश यादव ने कई ब्राह्मण नेताओं के साथ बैठक की है। पार्टी गरीब ब्राह्मण घर की बेटियों की शादी भी कराएगी। सपा अब प्रदेश के 11% जनसंख्या वाले ब्राह्मणों को साधने में जुटी है।

अब बात बहुजन समाज पार्टी की, जिसकी पूरी विचारधारा ही दलितों के इर्द-गिर्द घूमती है। पार्टी की मुखिया मायावती ने तो यहाँ तक कहा कि वो सपा से भी ऊँची परशुराम की प्रतिमा लगवाएँगी। उन्होंने भगवान परशुराम के नाम पर अस्पताल बनवाने से लेकर साधु-संतों के ठहरने के लिए स्थल बनाने तक की बात कही। उन्होंने दावा किया कि ब्राह्मण समाज को बसपा ने पूरा प्रतिनिधित्व दिया है और ब्राह्मणों का बसपा पर पूरा विश्वास है।

मायावती का पूरा जोर इस बात पर है कि वो ब्राह्मण हितों की रक्षा के मामले में सपा से ऊपर हैं। उन्होंने सपा से पूछा कि जब वो सत्ता में थी तब उसने परशुराम की मूर्ति क्यों नहीं लगवाई? उन्होंने कहा कि किसी भी महापुरुष को लेकर राजनीति नहीं होनी चाहिए। साथ ही ये इशारा किया कि सपा ब्राह्मणों को इसीलिए लुभा रही है, क्योंकि राज्य में उसकी स्थिति अच्छी नहीं है। उन्होंने कहा कि सपा के शासन में ही ब्राह्मणों का सबसे ज्यादा शोषण और उत्पीड़न हुआ।

दोनों ही दलों की बेचैनी को देख कर ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर एक ब्रेक के बाद ब्राह्मण फिर से उत्तर प्रदेश की राजनीति में इतने महत्वपूर्ण कैसे हो गए कि कथित अल्पसंख्यक और दलित तुष्टिकरण करने वाली पार्टियाँ उनके पास भाग रही हैं? इसके पीछे 2 सबसे स्पष्ट कारण नज़र आते हैं। पहला, राम मंदिर और दूसरा, विकास दुबे का एनकाउंटर। इन दोनों ही मुद्दों का सपा-बसपा ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहती है।

बिकरू गाँव में विकास दुबे ने 8 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था। ये एक बड़ा मुद्दा बना। विकास दुबे नाटकीय तरीके से पकड़ा गया और उससे भी बड़े नाटकीय अंदाज़ में एनकाउंटर में मारा गया। इसके बाद सोशल मीडिया पर उसके समर्थन में कई पोस्ट हुए। इसमें जातिवाद घुसा और योगी आदित्यनाथ को ठाकुर बताते हुए ब्राह्मणों का विरोधी करार दिया गया। इसमें कॉन्ग्रेस समर्थक ट्रोल सबसे ज्यादा सक्रिय रहे।

बस यहीं पर सपा-बसपा के कान खड़े हो गए। यूपी में प्रियंका गाँधी के कारण कॉन्ग्रेस का वोट प्रतिशत जरा भी बढ़ता है तो खास मजहब के वोटों का बँटवरा होना तय है। हो सकता है कि इसके 3 हिस्से हो जाएँ। ऐसे में उन पर दाँव न लगा कर प्रदेश की 11% जनसंख्या को साधने की कोशिश हो रही है। नॉन-यादव ओबीसी भाजपा के पक्ष में दिख रहा है। हालाँकि दलितों का एक वर्ग अभी भी बसपा के साथ है, लेकिन चंद्रशेखर उर्फ रावण ने मायावती की नींद उड़ा रखी है।

प्रियंका गाँधी ने जिस तरह से अस्पताल जाकर रावण से मुलाकात की थी, उसके बाद मायावती बिफर पड़ी थीं। न तो सपा सिर्फ यादवों के सहारे सरकार बना सकती है और न ही बसपा दलितों के खंडित वोटों से जनादेश ला सकती हैं। ऐसे में ब्राह्मणों को लुभाना उन्हें कारगर लग रहा है। सामान्य वर्ग और नॉन-यादव ओबीसी की भाजपा की गोलबंदी तोड़ने के लिए ये जुगत अपनाई जा रही है।

मायावती के हालिया बयानों को देखिए। उन्होंने कहा कि विकास दुबे की आड़ में सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज का शोषण किया जा रहा है। विकास दुबे के एनकाउंटर के तुरंत बाद भी उन्होंने कहा था कि एक गलत व्यक्ति के करतूतों को सज़ा पूरे समुदाय को दिए जाने के कारण ब्राह्मण समाज भयभीत और प्रताड़ित नज़र आ रहा है। 2007 में ब्राह्मण-दलित वाला फॉर्मूला अपना चुकीं मायावती ने कहा कि ये समुदाय आतंकित महसूस कर रहा है।

सपा को लगा था कि कहीं इस मुद्दे का फायदा बसपा और कॉन्ग्रेस न उठा ले, इसीलिए उसने परशुराम की प्रतिमा का दाँव खेल दिया। सपा नेताओं के साथ विकास दुबे की तस्वीरें वायरल होने पर भी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कोई सफाई नहीं दी। इसके पीछे ब्राह्मणों के समर्थन का दिखावा भी हो सकता है। बेचैन सपा-बसपा के नेता योगी आदित्यनाथ को अजय सिंह बिष्ट भी कहते रहे हैं।

अब बात राम मंदिर की। जब भी बात मंदिर और पूजा-पाठ की आती है, कुछ दल इसे ब्राह्मणों से जोड़ते हैं। शायद सपा-बसपा को धीरे-धीरे ये पता चल रहा है कि भाजपा को आँधी में कर्मकांड अब हर जाति तक पहुँच चुका है और इससे भावनाएँ जुड़ती जा रही हैं लोगों की। साधु-संतों के लिए स्थल बनाने के पीछे यही सोच हो सकती है। सैकड़ों सालों से अटके राम मंदिर निर्माण की काट शायद किसी दल के पास नहीं है।

प्रियंका गाँधी, मायावती और अखिलेध यादव को राम और राम मंदिर के पक्ष में बोला पड़ा। इससे पता चलता है कि वो जनभावनाओं को समझ तो रहे हैं, लेकिन ये नहीं समझ रहे कि जनता अब दिखावे और श्रद्धा के बीच का अंतर समझने लगी है। मायावती भले अखिलेश से सवाल पूछें लेकिन उन्होंने अपनी सत्ता रहते कांशीराम की मूर्तियों की झड़ी लगा दी थी। अब ये पार्टियाँ और असुरक्षित महसूस कर रही हैं।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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