पश्चिम बंगाल में सरकार बनने के बाद पूरा एक महीना बीत चुका है पर हिंसा नहीं रुक रही है। इस समय कोरोना की दूसरी लहर के साथ-साथ हिंसा की तीसरी लहर चल रही है। हिंसा न रुकने का अर्थ यह है कि सरकार भले चल रही हो पर उसने कानून व्यवस्था को रोक रखा है।
भाजपा कार्यकर्ताओं और समर्थकों को मारा जा रहा है, उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं, उन्हें अपना घर छोड़कर पलायन करने के लिए मजबूर किया जा रहा है और साथ ही यह दावा भी किया जा रहा है कि कोई हिंसा नहीं हो रही। ताजा घटना में एक भाजपा कार्यकर्ता की नृशंस हत्या कर दी गई।
हिंसा न होने के दावे के साथ चिंता की बात यह है कि लगातार हो रही हिंसा की बात करते हुए राज्यपाल निरीह लग रहे हैं, उनसे भी निरीह जिन्हें मारा जा रहा है या जिन्हें अपने घर छोड़कर पलायन करना पड़ रहा है।
“पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा का एक इतिहास रहा है”, राजनीतिक विमर्श में पिछले एक महीने का सबसे बड़ा क्लीशे साबित हुआ है। जिन्होंने पिछले चार दशकों से प्रदेश में राजनीतिक हिंसा देखी है, वे भी स्वीकार करेंगे कि ऐसी हिंसा पहले कभी नहीं हुई। पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि किसी सरकार, राजनीतिक दल या गठबंधन ने हो रही हिंसा पर प्रश्न पूछे जाने पर सीधा यह कहा हो कि; कोई हिंसा नहीं हुई। ऐसे में कहा जा सकता है कि हिंसा की नृशंसता, उसकी तीव्रता आश्चर्य की बात नहीं है।
आश्चर्य की बात है सत्ताधारी दल का यह कहना कि कोई हिंसा नहीं हो रही है। कह सकते हैं कि प्रदेश में राजनीतिक हिंसा के इतिहास का यह सबसे शर्मनाक काल है, जिसमें हो रही हिंसा को सिरे से शायद इसलिए नकारा जा रहा है क्योंकि यदि उसके होने को स्वीकार कर लिया जाएगा तो सरकार के ऊपर उसे रोकने की जिम्मेदारी आन पड़ेगी और फिलहाल सरकार उसे रोकना नहीं चाहती।
हिंसा न रुके, इसके पीछे उसे करने वाले राजनीतिक दल की मंशा तो समझ में आना स्वाभाविक है पर इसके पीछे सरकार की मंशा क्या हो सकती है? इस प्रश्न का उत्तर किसी वैज्ञानिक फॉर्मूले में नहीं छिपा है कि उसे समझना मुश्किल हो। इसका उत्तर इस बात में है कि पिछले लगभग सात वर्षों में पश्चिम बंगाल में सरकार और सत्ताधारी दल के बीच जो एक सीमा-रेखा रहनी चाहिए, वह लगातार धुँधली होती गई और आज लगभग मिट गई है।
सत्ताधारी दल और सरकार के बीच इस रेखा के मिटने के संकेत पहले से मिलने लगे थे। इसका उदाहरण चुनाव प्रचार के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के उस वक्तव्य में है, जब किसी प्रचार मंच पर बैठे हुए उन्होंने कहा था कि; चुनाव के बाद तो केंद्र के अर्धसैनिक बल वापस चले जाएँगे। तब भाजपा समर्थकों और मतदाताओं को कौन बचाएगा?
इस बात के संकेत तब भी मिले थे जब सीबीआई ने उच्चतम न्यायालय को यह जानकारी दी थी कि शारदा ग्रुप के टीवी चैनल तारा टीवी के कर्मचारियों को मई 2013 से लेकर अप्रैल 2015 तक, हर महीने 27 लाख रुपए का भुगतान चीफ मिनिस्टर रिलीफ फण्ड से हुआ था। यह ऐसा खुलासा था, जो बताता है कि पश्चिम बंगाल सरकार और राज्य के सत्ताधारी दल के बीच रेखा कब से धुँधली होती रही है।
इसके अलावा जो बात सबको हतप्रभ करती है, वह है तृणमूल कॉन्ग्रेस के सांसदों का आचरण। सांसदों ने जिस तरह के बयान और जिस तरह की निम्न स्तरीय बातें राज्यपाल के लिए कही हैं, वह अपने आप में अभूतपूर्व है और भारतीय लोकतंत्र में कल्पना से भी परे रहा है।
Uncleji only way WB’s “grim situation” will improve is if you move your sorry self back to Delhi & find another job.
— Mahua Moitra (@MahuaMoitra) June 6, 2021
Some suggestions:
1. Advisor to Ajay Bisht YogiCM on how best to Thok Do opposition
2. Advisor to Home Min on how best to hide during a pandemic https://t.co/oWLW0Ciupg
कल्याण बनर्जी का राज्यपाल के खिलाफ FIR करने की बात हो या सांसद महुआ मोइत्रा का वह बयान, जिसमें उन्होंने राज्यपाल से सीधा कहा कि प्रदेश में परिस्थियाँ तभी ठीक होंगी, जब राज्यपाल दिल्ली वापस जाएँगे और अपने लिए कोई नई नौकरी ढूँढ लेंगे। ऐसे बयान किसी भी लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा कभी नहीं रहे। ऐसे बयान की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती, जो संवैधानिक पदों पर बैठे हुए हैं।
चिंता का जो सबसे बड़ा विषय है, वह यह है कि सरकार ने अभी तक हिंसा रोकने की कोई मंशा नहीं दिखाई है और इसका अर्थ यह है कि सरकार के सत्ताधारी दल किसी तरह के राजनीतिक समाधान के पक्ष में नहीं हैं और यह एक ऐसी परिस्थिति है, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए सही नहीं क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरे में डालने वाली सरकारें चल तो सकती हैं, पर किसी का भला नहीं कर सकतीं।
क्या हिंसा ऐसे ही चलती रहेगी? क्या हिंसा पर राजनीतिक या नैतिक विमर्श के लिए जरा भी जगह नहीं है? आखिर ऐसा क्यों है कि केरल या पश्चिम बंगाल में जब सरकार द्वारा सह दिए जाने वाली हिंसा की बात होती है तो लोकतंत्र के हिस्सेदारों को साँप सूँघ जाता है? क्यों मीडिया चुप रहता है या क्यों न्यायालय इस हिंसा का संज्ञान खुद नहीं लेते?
पिछले पंद्रह दिनों में तमाम समूहों ने राष्ट्रपति से लेकर उच्चतम न्यायालय को प्रदेश में हो रही हिंसा को रोकने के लिए हस्तक्षेप करने की माँग की पर ऐसा क्यों है कि इन माँगों पर किसी ने न तो कोई ध्यान दिया और न ही किसी तरह विमर्श शुरू करने की चेष्टा की? केवल भारतीय जनता पार्टी के समर्थक सोशल मीडिया पर दिन-रात अपना सिर किसी न दिखने वाली दीवार पर मारते रहते हैं और केंद्र सरकार, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और भाजपा के नेताओं से प्रश्न पूछते रहते हैं।
मीडिया और ओपिनियन मेकर्स की मजबूरी तो समझ में आती है पर न्यायालय की कौन सी मजबूरी है? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो न केवल अनुत्तरित रह जा रहे हैं बल्कि लोकतंत्र के तथाकथित स्तंभों का चरित्र भी दिखाते हैं।
प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी राजनीति के बीच केंद्र-राज्य सम्बन्धों का क्या बनेगा? उस संघीय ढाँचे का क्या होगा, जिसकी रक्षा का दम आए दिन सभी भरते रहते हैं? राज्य सरकार केंद्र के साथ जिस तरह के टकराव के रास्ते पर है, उससे राज्य की जनता का कितना भला होगा? अधिकतर क्षेत्रीय दलों को केंद्र सरकार से शिकायतें रहती हैं पर पश्चिम बंगाल में सत्ताधारी दल जिस तरह का आचरण कर रहा है, वह क्या इन शिकायतों से मेल खाता है?
प्रश्न यह भी है कि ऐसा आचरण राज्य सरकार, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या दल के सांसद कितने दिन और अफोर्ड कर पाएँगे? क्या ये लोग भविष्य में अपने इस आचरण को तब न्यायसंगत ठहरा पाएँगे, जब उन्हें प्रदेश की जनता के सामने एक बार फिर से जाना पड़ेगा? प्रदेश में म्युनिसिपल और पंचायत चुनाव ज्यादा दूर नहीं, ऐसे में राजनीतिक दलों को जल्द ही जनता के सामने फिर से जाना होगा। सत्ताधारी दल को यह समझने की आवश्यकता है कि लोकतंत्र मजबूत से मजबूत दलों और नेताओं से ऊपर होता है।